Month: June 2020

गर्मियों की छुट्टी और रोपणी की बखत 

गर्मियों की छुट्टी और रोपणी की बखत 

संस्मरण
ममता गैरोला जून की भीषण गर्मी में पहाड़ स्वर्ग की सी अनुभूति है. खेतों की लहलहाती हवा, धारा (पानी का स्रोत) से बहता ठंडा पानी, लोगों में आपसी मेलजोल और साथ ही सांस्कृतिक रीति-रिवाज पहाड़ों की जीवन शैली का अद्भुत दर्शन कराती है और इस अनुभूति को हम सिर्फ तब ही नहीं महसूस करते जब हम अपने गांव में होते हैं बल्कि तब भी महसूस करते हैं जब हम शहरों में कहीं दो कमरों घर में हो या फिर आलिशान फ्लैट में रह रहे हों, एक बार बस बात शुरू हो जाने पर ही उन यादों में डूब जाते हैं. फिर आज भी मन है कि गांव जाने को आतुर सा होने लगता है. एक वक़्त हुआ करता था जब गर्मी की छुट्टियों में कहीं जाने का मतलब सिर्फ दादी और नानी के घर जाना होता था. और वहां जाना किसी फॉरेन ट्रिप से कम नहीं होता था न जाने कितनी ही मौज- मस्ती और कितने ही एडवेंचर किये हैं हमने वहां, अक्सर दिन में खाना- खाने के बाद कपड़े  लेकर गाड़-गधेरा...
लोक संस्कृति में रंग भरने वाला पहाड़ का चितेरा  

लोक संस्कृति में रंग भरने वाला पहाड़ का चितेरा  

उत्तराखंड हलचल
ललित फुलारा भास्कर भौर्याल बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं. उम्र सिर्फ 22 साल है. पर दृष्टिकोण और विचार इतना परिपक्व कि आप उनकी चित्रकारी में समाहित लोक संस्कृति और आंचलिक परिवेश को भावविभोर होकर निहारते रह जाएंगे. उनके चटक रंग बरबस ही अपनी दुनिया में खोई हुई आपकी एकाग्रता, को अपनी तरफ खींच लेंगे. वो जो अंकित कर रहे हैं, अपनी जड़ों की तरफ ले जाने की खुशी से आपको भर देगा. भास्कर के तैलीय चित्र हृदय की गहराई में जितने उतरते हैं, उनकी कुमाऊंनी में प्रकृति के सौंदर्यबोध वाली कविताएं उजाड़ मन में पहाड़ प्रेम को उतना ही ज्यादा भर देती हैं. भास्कर अब तक 200 से ज्यादा चित्र बना चुके हैं, जिनमें ग्रामीण परिवेश की बारीकियां, पहाड़ की संस्कृति में अहम भूमिका निभाने वाले वाद्य यंत्र, उत्तराखंड की संस्कृति के प्रतीक लोकनृ­त्य झोड़ा और चांचरी, एवं कुमाऊंनी, गढ़वाली और जौनसारी वेशभूषा.... आदि के विविध...
लोक की आवाज – हीरा सिंह राणा

लोक की आवाज – हीरा सिंह राणा

संस्मरण
मीना पाण्डेय आज से कुछ 18-20 साल पहले हीरा सिंह राणा जी से अल्मोड़ा में 'मोहन उप्रेती शोध समिति' के  कार्यक्रम के दौरान पहली बार मिलना हुआ. ‌तब उनकी छवि मेरे किशोर मस्तिष्क में 'रंगीली बिंदी' के लोकप्रिय गायक के रूप में रही. उसके बाद दिल्ली आकर कई कार्यक्रमों में लगातार मिलना हुआ. मध्यम कद-काठी पर मटमैला कुर्ता और गहरे रंग के चेहरे को आधा ढ़ापती अर्द्ध-चंद्राकार दाड़ी. चेहरे-मोहरे और वेश भूषा में भी वे लोक के प्रतीक रहे. उनकी कविताओं और गीतों में पहाड़ के परिवेश व  संस्कृति के प्रति गहरा लगाव स्पष्ट दिखाई देता है. राणा जी की रचनाओं का वितान बहुत वृहद रहा. वहां श्रृंगार है, जन आंदोलनों को उत्साह से भर देने के गीत हैं, प्रकृति के प्रति अनुराग है और अपनी संस्कृति के प्रति अकाट्य प्रेम भी. ये दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि हीरा सिंह राणा जी की लोकगायक के रूप में लोकप्रियता के प्रकाश मे...
बॅम्बूसा पॉलिमार्फा : एक बहुउपयोगी बांस

बॅम्बूसा पॉलिमार्फा : एक बहुउपयोगी बांस

उत्तराखंड हलचल
जे. पी. मैठाणी बांस के संसार में बांस की कुल प्रजातियों को वानस्पतिक वर्गीकरण के आधार पर दो प्रमुख भागों में बांटा गया है. प्रथम बॅम्बूसा प्रजातियां जैसे- बॅम्बूसा पॉलिमार्फा, बॅम्बूसा वल्गेरिस, बॅम्बूसा बैम्बूस, बॅम्बूसा टुल्डा, बॅम्बूसा बालकोआ, बॅम्बूसा मल्टिप्लैक्स आदि. डैन्ड्राकैलेमस की प्रजातियों में डैन्ड्राकैलेमस एस्पर, डैन्ड्राकैलेमस हैमल्टोनाई, डैन्ड्राकैलेमस हेटरोस्टैचिया, डैन्ड्राकैलेमस लॉन्गिंपैथस, डैन्ड्राकैलेमस सिक्किमेन्सिस आदि. यह एक बहुत ही रोचक बात है कि बांस की प्रजातियों का उद्भव पृथ्वी पर लगभग 30 मिलियन वर्ष पहले हुआ. डायनासोर के विलुप्ति के बाद ही पृथ्वी पर बांस प्रजातियां उत्पन्न हुई हैं. आज हम आपको मूलतः म्यांमार, थाइलैण्ड, बांग्लादेश में पाए जाने वाले एक विशिष्ट बांस बॅम्बूसा पॉलिमार्फा के बारे में जानकारी दे रहे हैं. यह जानकारी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आजकल...
पहाड़ों में ब्याह-बारात की सामूहिकता

पहाड़ों में ब्याह-बारात की सामूहिकता

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—21 प्रकाश उप्रेती आज बात उस पहाड़ की जो आपको अकेले होने के एहसास से बाहर रखता है. वो पहाड़ जो आपको हर कदम पर सामूहिकता का बोध कराता है. हमारे लिए 'गौं में ब्याह' (गाँव में शादी) किसी उत्सव से कम नहीं होता था. खासकर लड़की की शादी में तो गाँव में 'कौतिक'(मेला) लगा रहता था. शहरों और दूर-दराज से रिश्तेदार गाँव पहुंच जाते थे. उस दौरान गाँव की रौनक ही अलग हो जाती थी. शादी जिसके घर में हो रही होती थी उससे ज्यादा उत्साहित गाँव भर के लोग रहते थे.हर उम्र के लोगों के लिए शादी में कुछ न कुछ होता था. शादी से दो दिन पहले हमारी ड्यूटी आस-पास के गाँव में 'न्यौत' (निमंत्रण) देने की लग जाती थी. ईजा कहती थीं- "अरे पारक बुबू कमछि कि म्यर दघें न्यौत कहें हिट दिए कबे" (गाँव के दादा जी कह रहे थे,मेरे साथ निमंत्रण देने चल देना). बड़े- बुजुर्गों के साथ निमंत्रण देने जाना भी ...
ना जाने कहां खो गई पोई और चुल्लू की महक

ना जाने कहां खो गई पोई और चुल्लू की महक

उत्तराखंड हलचल
आशिता डोभाल पहाड़ों में बहुत—सी चीजें हमारे बुजुर्गों ने हमें विरासत के रूप में सौंपी हैं पर आज आधुनिकता की चमक—दमक और भागदौड़ भरी जीवनशैली में हम इन चीजों से कोसों दूर जा चुके हैं. हम अपनी पुराने खान—पान की चीजों को सहेजना और समेटना लगभग भूल ही गए हैं. अपने खान—पान में हमने पुराने अनाजों, पकवानों को कहीं न कहीं बहुत पीछे छोड़ दिया है. आज लोग उस खान—पान को ज्यादा पसंद कर रहे हैं जिसमें पौष्टिकता बहुत कम मात्रा में होती है और शरीर को नुकसान अलग से होता है, जिससे हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ रही है. हमारा शरीर रोगों से लड़ने के लिए कमजोर होता जा रहा है. जिस खाने में नाममात्र की भी पौष्टिकता नहीं होती है बल्कि शरीर को मजबूत बनाना तो दूर, कमजोर ज्यादा बना रहा है, ऐसे खान—पान को हमने अपने आज खाने में शामिल किया हुआ है. रवांई घाटी एक ऐसी घाटी है जहां पर लोगों ने आज भी अपनी परम्पराओ...
पहाड़ की लोकसंस्कृति को पहचान दी लोक गायक हीरासिंह राणा ने

पहाड़ की लोकसंस्कृति को पहचान दी लोक गायक हीरासिंह राणा ने

समसामयिक
डॉ. मोहन चन्द तिवारी बहुत ही दुःख की बात है कि कोरोना काल के इस कठिन दौर में "लस्का कमर बांध, हिम्मत का साथ फिर भोल उज्याई होलि, कां ले रोलि रात"- जैसे अपने ऊर्जा भरे बोलों से जन जन को कमर कस के हिम्मत जुटाने का साहस बटोरने और रात के अंधेरे को भगाकर उजाले की ओर जाने की प्रेरणा देने वाले उत्तराखंड लोक गायिकी के पितामह, लोक-संगीत के पुरोधा तथा गढ़वाली कुमाऊंनी और जौनसारी अकादमी,दिल्ली सरकार के उपाध्यक्ष श्री हीरा सिंह राणा जी अब हमारे बीच नहीं रहे. 'हिरदा कुमाऊनी' के नाम से पुकारे जाने वाले हीरा सिंह राणा जी का जन्म 16 सितंबर 1942 को उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल के ग्राम-मानिला डंढ़ोली, जिला अल्मोड़ा में हुआ.उनकी माताजी का नाम नारंगी देवी और पिताजी का नाम मोहन सिंह राणा था. लोकगायकी की पहचान बने राणा जी का अचानक चला जाना उत्तराखण्डी समाज के लिए बहुत दुःखद है और पर्वतीय लोक संगीत के ल...
सबको स्तब्ध कर गया दिनेश कंडवाल का यों अचानक जाना

सबको स्तब्ध कर गया दिनेश कंडवाल का यों अचानक जाना

संस्मरण
भूवैज्ञानिक, लेखक, पत्रकार, प्रसिद्ध फोटोग्राफर, घुमक्कड़, विचारक एवं देहरादून डिस्कवर पत्रिका के संस्थापक संपादक दिनेश कण्डवाल का अचानक हमारे बीच से परलोक जाना सबको स्तब्ध कर गया. सोशल मीडिया में उनके देहावसान की खबर आते ही उत्तराखंड के मुख्यमंत्री से लेकर हर पत्रकार एवं आम लोगों द्वारा उन्हें अपने—अपने स्तर और ढंग से श्रद्धांजलि दी गई. हिमांतर.कॉम दिनेश कंडवाल को श्रद्धासुमन अर्पित करता है. कंडवाल जी का जाना हम सभी के लिए बेहद पीड़ादाय है. उनको विनम्र अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि… मनोज इष्टवाल पहली मुलाक़ात 1995....... स्थान चकराता जौनसार भावर की ठाणा डांडा थात. गले में कैमरा व एक खूबसूरत पहाड़ी महिला के साथ “बिस्सू मेले” में फोटो खींचता दिखाई दिया यह व्यक्ति. गले में लटका कैमरा Nikon F-5 . मैं अचम्भित था कि चकराता में यह जापानी, चीनी या फिर कोरियन व्यक्ति कैसे आया व इनके सम्पर्...
लोक के चितेरे जनकवि हीरा सिंह राणा

लोक के चितेरे जनकवि हीरा सिंह राणा

समसामयिक
डॉ. अरुण कुकसाल लस्का कमर बांधा, हिम्मत का साथा, फिर भोला उज्याला होली, कां रोली राता 12 नवम्बर, 2019 की रात वैकुंठ चतुर्दशी मेला, श्रीनगर (गढ़वाल) में गढ़-कुमाऊंनी कवि सम्मेलन के मंच पर नरेन्द्र सिंह नेगीजी एवं अन्य कवियों के मध्य जनकवि हीरा सिंह राणाजी भी शोभायमान थे. प्रिय मित्र चारू तिवारीजी एवं विभोर बहुगुणाजी के साथ कवियों की कविताओं का आंनद लेते हुए नज़र हीरा सिंह राणाजी पर जाती रही. और अस्सी के दशक में सड़कों पर तमाम जलूसों और जन-यात्राओं में गाया उनका गीत ‘लस्का कमर बांधा, हिम्मत का साथा, फिर भोला उज्याला होली, कां रोली राता.’ याद आता रहा. असली के दशक में नैनीताल और अल्मोड़ा की सड़कों पर जलूस में हीरा सिंह राणा जी के साथ ये गीत गाते हुए लगता था कि कमर बांधने का यही सही वक्त है. जीवन के प्रति सकारात्मक जज्बां ये गीत आज भी भर देता है. हीरा सिंह राणाजी का अस्वस्थ शरीर, चलने में दि...
कुछ लोग दुनिया में खुशबू की तरह हैं

कुछ लोग दुनिया में खुशबू की तरह हैं

संस्मरण
देश—परदेश भाग—4 डॉ. विजया सती बुदापैश्त में हिन्दी की तमाम गतिविधियों की बागडोर मारिया जी लम्बे समय से संभाले हुए हैं. डॉ मारिया नैज्येशी! बुदापैश्त में प्रतिष्ठित ऐलते विश्वविद्यालय के भारोपीय अध्ययन विभाग की अनवरत अध्यक्षा! मारिया जी विश्वविद्यालय स्तर पर प्राचीन यूनानी, लैटिन और संस्कृत भाषाएँ पढ़ रही थी जब अपने गुरु प्रोफ़ेसर तोत्तोशि चबा की प्रेरणा से वे भारत केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में हिन्दी पढ़ने आई. बाद में भारत के प्रेमचंद और हंगरी से मोरित्स जिग्मोंद – इनके साहित्य पर शोध किया और पीएचडी की डिग्री भारत से हासिल की. मारिया जी कहती हैं कि जब हंगरी में उन्होंने हिन्दी पढ़ना शुरू किया – तब न हिन्दी की किताबें थी, न हिन्दी जानने वाले अधिक लोग. फिर जब वे हिन्दी पढ़ने भारत आईं तो यहाँ का जीवन उनके लिए बिलकुल नया और अलग अनुभव लेकर आया. फिर भी भारत ने उन्हें प्रेरित किया. भारत से लौ...