चमोली

जंगली कं​टीली झाड़ी से रोजगार का स्रोत बन रहा है टिमरू

जंगली कं​टीली झाड़ी से रोजगार का स्रोत बन रहा है टिमरू
  • कम उपजाऊ और बेकार भूमि में आसानी से उगता है

  • उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में खेती को जंगली जानवरों से बचाव के लिए शानदार बाड़/बायोफेन्सिंग भी है टिमरू

  • खेती-बाड़ी बचाएगा टिमरू तो रूकेगा जंगली जानवरों की वजह से होने वाला पलायन

  • जे. पी. मैठाणी

हिन्दू धर्म ग्रंथों में जिन भी पेड़-पौधों का रिश्ता पूजा-पाठ तंत्र-मंत्र से जोड़ा गया है. उन सभी पेड़-पौधों, वनस्पतियों में कुछ न कुछ दिव्य और आयुर्वेदिक गुण जरूर हैं. और उनका उपयोग हजारों वर्ष पूर्व से पारम्परिक चिकित्सा पद्धति, आयुर्वेद और इथ्नोबॉटनी में किया जाता रहा है. यानी पेड़—पौधों का महत्व उसके औषधीय गुणों के कारण है और उनके संरक्षण के लिए उनको धर्म ग्रंथों में विशेष स्थान दिया गया है.

ऐसे ही एक बहुप्रचलित लेकिन उपेक्षित कंटीला झाड़ीनुमा औषधीय वृक्ष है टिमरू. टिमरू सिर्फ पूजा-पाठ और भूत पिशाच भगाने के लिए कंटीली डंडी नहीं है. वेद और शिव पुराण के अनुसार टिमरू को भगवान शिव और भैरव की लाठी माना जाता है. आयुर्वेद में 200 से अधिक प्रकार के आयुर्वेदिक फॉर्मूलेशन में इसके बीजों और फल का उपयोग किया जाता है. गढ़वाल में इसको टिमरू, कुमाऊं में टिमूर, हिमाचल में तेजबल और नेपाल में इसे टिम्बूर कहते हैं. संस्कृत में टिमरू को तेजोवती के नाम से जाना जाता है. यही नहीं टिमरू को हिमालय का नीम भी कहा जाता है.

वर्तमान में आयुष मंत्रालय भारत सरकार ने हिमालयी क्षेत्र जिसको टैम्परेट जोन यानी शीतोष्ण जलवायु क्षेत्र के लिए  23 जड़ी-बूटियों की खेती की जो योजना बनाई है उसमें टिमरू की खेती भी शामिल है. डाबर इंडिया जो 125 वर्ष से पुरानी आयुर्वेदिक/हर्बल कम्पनी है वो टिमरू के बीज एवं फलों का प्रयोग सभी प्रकार के टूथ पेस्ट और टूथ पाउडर बनाने में करते हैं.

वर्तमान में आयुष मंत्रालय भारत सरकार ने हिमालयी क्षेत्र जिसको टैम्परेट जोन यानी शीतोष्ण जलवायु क्षेत्र के लिए  23 जड़ी-बूटियों की खेती की जो योजना बनाई है उसमें टिमरू की खेती भी शामिल है. डाबर इंडिया जो 125 वर्ष से पुरानी आयुर्वेदिक/हर्बल कम्पनी है वो टिमरू के बीज एवं फलों का प्रयोग सभी प्रकार के टूथ पेस्ट और टूथ पाउडर बनाने में करती है. उत्तराखण्ड सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग की उत्तराखण्ड महिला समेकित विकास योजना के अंतर्गत जनपद चमोली के दशोली विकासखण्ड में महिलाओं द्वारा टिमरू की खेती और रोपण किया जा रहा है. साथ ही डाबर इंडिया द्वारा जीवंती वेलफेयर एवं चैरिटेबल ट्रस्ट के माध्यम से प्रमुखतः चमोली, बागेश्वर और पिथौरागढ़ में टिमरू का रोपण किया जा रहा है. हर्बल इंडस्ट्री के विशेषज्ञ डॉ. जी. पी. किमोठी बताते हैं कि वर्तमान में अकेले डाबर को प्रतिवर्ष 200 टन टिमरू के फल बीजों की आवश्यकता है. अभी तक डाबर नेपाल से इसका आयात करता है. संपूर्ण भारतवर्ष के हर्बल इंडस्ट्री में 1000 टन टिमरू के बीज और फलों की मांग है.

नर्सरी में टिमरू की पौध की पैकिंग. फोटो: अनुज नम्बूदरी

 

टिमरू के औषधीय उपयोग-
टिमरू के बीजों में लिनालोल नामक रसायन मौजूद रहता है. जो एंटीसेप्टिक की तरह कार्य करता है. टिमरू के फलों और सुखाई गयी पत्तियों से बने टूथ पाउडर दांतों के कई रोगों को दूर करने में सहायक होते हैं. इसकी टहनियां और छाल के पाउडर को पुरातन समय से ही रक्तचाप नियंत्रित करने के लिए बनायी जाने वाली औषधियों में प्रयोग में लाई जाती है. टिमरू की नयी टहनियों से बने दातून भी प्रयोग में लाए जाते हैं. अपच और बुखार के निदान के लिए फल के चूर्ण का उपयोग किया जाता है. टिमरू के बीजों से तेल बनाया जाता है. सजावट और बाड़ के रूप में पौधे का प्रयोग किया जाता है. कलिनरी हर्ब और तड़के के रूप में, चटनी में पीसकर, भंगजीरे और नमक के साथ स्वादिष्ट और पाचक नमक. यही नहीं जंगली मशरूम के दुष्प्रभावों को दूर करने के लिए प्रयोग किया जाता है. मछली के सूप में बेहद स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है.

वाहनों से टिमरू पौध का डूलान. चित्र: त्रिलोक सिंह नेगी.

पर्वतारोहण में टिमरू-
नेपाल, भूटान और भारत के नॉर्थ ईस्ट राज्यों, पिथौरागढ़ क्षेत्रों में पर्वतारोहण में लगे शेरपा, पर्वतारोही और पोर्टर टिमरू का सूप पीते हैं. यह बेहद गर्मी पैदा करता है जिससे ठंड से बचा जा सकता है. मोमो की चटनी और सूप में भी इसका उपयोग होता है.

पहाड़ों में फसल सुरक्षा और टिमरू की खेती-
पहाड़ों में खेती-बाड़ी को बचाने के लिए खेतों की सारी या खेतों के चारों ओर किल्मोड़, टिमरू, हिंसोल और अमेश यानी सिबकथाॅर्न का रोपण कर दिया जाए तो जंगली जानवर जैसे- भालू, सुअर, सेही, बंदर, लंगूर, घ्वीड़, काकड़ किसानों की फसलों को नुकसान नहीं पहुँचा सकते हैं. और बाड़ पर लगे कंटीले टिमरू की झाड़ियों से बीज इकट्ठे कर पैसा कमाया जा सकता है. हम अधिकतर यही सुनते हैं कि लोग गाँवों से इसलिए पलायन कर रहे हैं क्योंकि जंगली जानवर फसलों को चौपट कर दे रहे हैं.

आगाज के पीपलकोटी नर्सरी में टिमरू की पौध. फोटो : देवेंद्र कुमार 

वानस्पतिक विवरण-
जैन्थोजाइलम जीनस रूटेसी परिवार के अंतर्गत आती है. यह अपने बहु-उपयोग की वजह से काफी महत्वपूर्ण पौधा है. दुनिया भर में इसके 549 से अधिक प्रजातियां फैली हुई हैं. जो उपोष्ण से शीतोष्ण जलवायु क्षेत्रों में विस्तारित है. इस पौध प्रजाति के टहनियों और तनों में पूरे कांटे भरे होते हैं वही इसकी प्रमुख पहचान भी है.

भारत में टिमरू की 11 प्रजातियां पायी जाती हैं और उत्तराखण्ड में 4 प्रजातियां पाई जाती हैं. जिसमें जैन्थोजाइलम एकेन्थोपोडियम, जैन्थोजाइलम आर्मेटम, जैन्थोजाइलम बुडरून्गा और जैन्थोजाइलम ऑक्जिफाइलम हैं.

कैसे बनायें टिमरू की नर्सरी-
इसके झाड़ीनुमा पेड़ पर घनी टहनियां होती हैं. इस पर अप्रैल-मई में फूल लगते हैं और मई से जुलाई-अगस्त तक फल पकने लगते हैं. शुरूआत में फल गहरे हरे, धीरे-धीरे हल्के लाल-गुलाबी और पूरे पकने पर काले हो जाते हैं. और पेड़ पर ही फटने लगते हैं. फलों के अंदर से छोटे-छोटे काले मोती जैसे चमकदार बीज गिरने लगते हैं. इसलिए अगर नर्सरी बनानी है तो जब बीज हल्के लाल होने लगें उस दौरान एकत्र कर छाया में सुखाने चाहिए. बीजों को छाया में सुखाने पर बाहर की छाल जो वास्तव में टिमरू का फल है वो दो हिस्सों में फट जाता है और उसके भीतर से सुंदर काले चमकदार बीज दिखने लगते हैं. फलों को मसलकर छाल अलग कर लें. सूप में फटक कर बीज के दाने अलग कर लें. अब मिट्टी में 6 फीट लम्बी 3 फीट चैड़ी क्यारी बना लें. उसके ऊपर पूरी तरह से 3 सेमी0 रेत बिछा दें और 3-4 दिन के भीतर ही बीज बो दें ऊपर से फिर एक सेमी0 रेत से बीजों को ढक दें. तदोपरांत फव्वारे से भली भांति पानी छिड़क कर पुरानी बोरी या काले पॉलिथीन से ढक दें. हर 4-5 दिन बाद सिंचाई करते रहें और जब पौध लगभग 5-6 सेमी0 की हो जाय उनको सावधानी से उखाड़कर थैलियों में रोपित कर दें.

किरूली गांव की महिलाएं टिमरू रोपण को जाती हुई. फोटो : देवेंद्र कुमार

आगाज़ फैडरेशन की पीपलकोटी नर्सरी विशेषज्ञ रेवती देवी ने बताया कि पौध जमाने के लिए रेतीली, हल्की, गोबर की सड़ी खाद, कोकोपीट और वर्मीकुलाइट के मिश्रण से बनायी गयी क्यारी में बीज सबसे बढ़िया जमता है. लेकिन पेड़ से तोड़े जाने के 10 दिन के भीतर ही बीज बो दिये जाने चाहिए.

एक किलो बीज से लगभग 5 हजार पौध तैयार की जा सकती है. और एक नाली भूमि में 5 हजार पौध थैलियों में आसानी से व्यवस्थित की जा सकती है. एक पौध का वर्तमान बाजार मूल्य 18 से 20 रूपये है. इस प्रकार 1 नाली भूमि से 90 हजार रूपये की पौध तैयार की जा सकती है. नर्सरी बनाने में 5 हजार थैली और थैलियों का भरान और 1 वर्ष तक पालन-पोषण का खर्चा लगभग 20 हजार रूपये आता है. इस प्रकार कुल लागत हटा देने के बाद वार्षिक 70,000 रूपये यानी मासिक 5800 रूपये लगभग की आमदनी की जा सकती है. यह स्वरोजगार का एक बेहतर उदाहरण है.

कैसे करें टिमरू का रोपण-
टिमरू ठंडी जलवायु में 800 मीटर से ऊपर 2000 मीटर तक उगता है. इसलिए टिमरू के लिए वही गाँव ठीक हैं जिनकी ऊँचाई समुद्रतल से 800 से 2000 मीटर के बीच है. बहुत अधिक गर्मी यह पेड़ सह नहीं पाता है. टिमरू को वैसे तो कृषि भूमि के चारों ओर रोपित किया जाए तो यह फसलों को जंगली जानवरों के प्रकोप से भी सुरक्षित कर सकता है. क्योंकि 3-4 वर्ष बाद इसकी अच्छी बायोफैन्सिंग/बाड़ तैयार हो जाती है. यदि नाप भूमि जो कम उपजाऊ हो में टिमरू की खेती करनी है तो एक नाली में लगभग 30 पौध लगाई जा सकती है. पौध के बीच की दूरी 6 फीट से कम नहीं होनी चाहिए.

गड्ढा खुदान –
मई-जून में 1 फीट लम्बा, 1 फीट चौड़ा तथा 1 फीट गहरा गड्ढा खोदकर उसमें कम से कम 5 किलो काली सड़ी गोबर की खाद डाल दें और फिर जुलाई के पहले-दूसरे हफ्ते में पौध रोपकर चारों तरफ से भली भांति दबा दें. हर दूसरे-तीसरे महीने बीच की खरपतवार और झाड़ियां हटा दें.

उत्तराखण्ड में वर्तमान में प्राकृतिक रूप से कहाँ हैं टिमरू की उपलब्धता- वैसे प्राकृतिक रूप से जनपद चमोली में जोशीमठ विकासखण्ड के गुलाबकोटी, पगनौ, गणाई, मोल्टा, मल्ला टंगणी, पाखी, ह्यूणा, दशोली विकासखण्ड में मठ, बेमरू, गुनियाला, नौरख पीपलकोटी, किरूली, गडोरा, श्रीकोट, बटुला मायापुर, गैर टंगसा, कुजौं मैकोट, मंडल बैरागना, गौणा गाड़ी, सैंजी ब्यांरा, सोनला बछेर, जुमला के अलावा विकासखण्ड घाट, पोखरी, थराली, नारायणबगड़ के अलावा बागेश्वर के कपकोट, पिथौरागढ़ के मुनस्यारी, धारचूला, मूनाकोट, रूद्रप्रयाग में ऊखीमठ, जखोली, अगस्तमुनि, उत्तरकाशी में बड़कोट, नौगाँव में, टिहरी में प्रतापनगर, हिंडोलाखाल, कीर्तिनगर, विकासखण्डों में टिमरू प्राकृतिक रूप से उगता है.

उत्तराखण्ड में टिमरू की खेती वाले चयनित विकासखण्ड-
कुछ सामाजिक संगठनों द्वारा जनपद चमोली के विकासखण्ड जोशीमठ, दशोली, घाट और पोखरी, बागेश्वर के गरूड़, कांडा, कपकोट, पिथौरागढ़ के मुनस्यारी, धारचूला, बेरीनाग, कनालीछीना और मूनाकोट में अलग-अलग एजेंसियों और स्वयं के माध्यम से टिमरू की खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा है.

अल्मोड़ा में टिमरू के पौधों का वितरण करते हुए संस्कार परिवार सेवा समिति के विपिन आचार्य जी.

बीज उत्पादन एवं आमदनी-
टिमरू का पौधा चौ​थे वर्ष से बीज देना शुरू कर देते हैं. वैसे कई बार कुछ पौधों पर तीसरे वर्ष में ही फल आने शुरू हो जाते हैं. पहली बार एक स्वस्थ पौधे से 200 ग्राम तक बीज प्राप्त हो सकते हैं. छटे-सातवें साल बाद प्रत्येक पौधे से एक-डेढ़ किलो बीज आसानी से प्राप्त हो जाता है. वर्तमान में 1 किलो बीज का मूल्य लगभग 300 रूपये है जो 3-4 वर्ष बाद 500 रूपये प्रति किलो से अधिक होगा. इस प्रकार बिना देखभाल और मानवश्रम के 1 नाली भूमि से 45 किलो तक बीज प्राप्त किया जा सकता है. जिससे 22,500 रूपये की आय हो सकती है.

किसान का हर्बल पंजीकरण-
अगर निजी भूमि में टिमरू की खेती कर रहे हैं तो इसकी सूचना जड़ी-बूटी शोध संस्थान गोपेश्वर चमोली, उस जिले के जिला भेषज संघ और वन विभाग के रेंज अधिकारी कार्यालय को पंजीकरण के लिए आवेदन करना जरूरी है.

टिमरू की पौध कहाँ से लें-
जनपद चमोली में बायोटूरिज़्म पार्क पीपलकोटी चमोली से पौध प्राप्त की जा सकती है. इस वर्ष इसका मूल्य 15 रूपये प्रति पौध है. यही नहीं उत्तराखण्ड वन विभाग के सिल्वीकल्चरिस्ट प्रभाग की मंडल, गोपेश्वर नर्सरी  से भी पौघ प्राप्त की जा सकती है.

कहाँ बेचें टिमरू के बीज-
स्थानीय बाजार के अलावा अलकनन्दा स्वायत्त सहकारिता पीपलकोटी चमोली, ह्यूमन इंडिया श्रीकोट-श्रीनगर तथा ग्रीन हिमालया हर्बल फार्मा प्राइवेट लिमिटेड हल्द्वानी को बेचा जा सकता हैं.

 (लेखक पहाड़ के सरोकारों से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार एवं पीपलकोटी में ‘आगाज’ संस्था से संबंद्ध हैं)
‘आगाज’ के बारे में जानने के लिए click करें https://www.biotourismuk.org/

Share this:
About Author

Himantar

हिमालय की धरोहर को समेटने का लघु प्रयास

2 Comments

    नमः शिवाय नमः श्री मात्रे🙏 जानकारी के लिए आभार🙏

    Excellent information about Timru and its benefits.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *