प्रकृति व जीवन के नए सृजन का आधार है माहवारी

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भावना मासीवाल 

बचपन से पढ़ते और सुनते आ रहे हैं कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है. स्वस्थ तन जो बीमारियों से कोसो दूर है और स्वस्थ मस्तिष्क जो जीवन के प्रति आशान्वित है. because स्वस्थ होना केवल तन का ही नहीं मस्तिष्क का भी अधिकार है. स्त्री के संदर्भ में स्वस्थ होना उसकी प्रोडक्टिविटी तक सीमित है. उससे अधिक स्वास्थ्य संबंधित शिक्षा उसे शायद ही कभी बचपन से अब तक मिली हो. बचपन जो अपने साथ बहुत सारे सपने संजोता है और उनमें जीता है.

आज भी याद

मुझे आज भी याद है 2002 अर्थात 18 साल पहले विद्यालय परिवेश में बारहवीं की विज्ञान की पुस्तक में रिप्रोडक्शन का एक अध्याय था और हमें कहा गया इसे आप सभी खुद पढ़ ले. because कन्या विद्यालय जैसे खुले परिवेश में पाठ का नहीं पढ़ाना उस विषय से संबंधित सामाजिक मनोविज्ञान को दिखाता है.

गांधी

सभी सांकेतिक फोटो pixabay.com से साभार

स्त्री के बचपन की दुनिया फैंटेसी की होती है. गुड्डे-गुडियाँ, शादी-ब्याह यही सब उसकी दुनियाँ होती है. ये दुनिया उसकी अपनी नजर से नहीं बनती है बल्कि परिवेश से बनती है इसी परिवेश में उसे यह तो पता होता है कि because लड़की को अगर सही समय पर महावारी नहीं होती है तो परिवार व समाज में उसकी स्वीकार्यता खतम हो जाती है. अन्यथा परिवार डरा-सहमा सा अपने ही दायरे में उसे बंद कर देता है. परिवार व समाज स्त्री को कभी उसकी शारीरिक संरचना का बोध नहीं कराता है बल्कि वह अपने परिवेश से ख़ुद ही सीखती जाती है. इन स्थितियों में समाज द्वारा वह अपनी शारीरिक बदलाव की स्थितियों पर लज्जित भी की जाती है.

महात्मा

यह लज्जा और शर्म क्या है? शर्म दरअसल एक ऐसी ओढ़नी है जिसे स्त्री बचपन से अपने परिवेश व आसपास के लोगों से ग्रहण करती है और आत्मसात कर लेती है. यह शर्म उसे because आजीवन अपने ही दायरे में बांधे रखती है. यह शर्म उसे कभी खुलकर महावारी और सेक्स जैसे शब्दों पर खुलकर बोलने से रोकती है. मुझे आज भी याद है 2002 अर्थात 18 साल पहले विद्यालय परिवेश में बारहवीं की विज्ञान की पुस्तक में रिप्रोडक्शन का एक अध्याय था और हमें कहा गया इसे आप सभी खुद पढ़ ले. कन्या विद्यालय जैसे खुले परिवेश में पाठ का नहीं पढ़ाना उस विषय से संबंधित सामाजिक मनोविज्ञान को दिखाता है. वह गुड टच, बेड टच के फर्क को पहचानने से रोकता है और सबसे महत्वपूर्ण उसे अपनी ही शारीरिक संरचना को जानने से दूर करता है.

व्यवहार

अमूमन स्त्री स्वास्थ्य पर जब भी बात होती है तो उनका स्वास्थ्य किस्से कहानी तक का हिस्स्सा नहीं बन सका है. क्योंकि किस्से कहानी में स्त्री कभी बीमार नहीं होती है क्योंकि वह ‘शक्ति’ है. ‘घर, परिवार में 24 घंटे निस्वार्थ भाव से काम करती स्त्री, कभी थकती भी है; यह हमारे सोच के दायरे से बाहर है. जब वह थकती ही नहीं तो because फिर उसे स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होने की क्या आवश्यकता है? स्त्री स्वास्थ्य के प्रति स्वयं भी लापरवाह होती है और समाज तो उसके प्रति दोहरी भूमिका ही निभाता है. जैसा कि इससे पहले भी कहा गया कि उसके स्वास्थ्य महावारी और रिप्रोडक्शन के मुख्य केंद्र तक सीमित है उससे अधिक स्वास्थ्य संबंधित देख-रेख उसे नहीं मिलती है.

सामाजिक

‘मासिक धर्म के समय because पतियों के लिए भोजन पकाने वाली महिलाएं अगले जीवन में ‘……’ के रूप में जन्म लेंगी, जबकि उनके हाथ का बना भोजन खाने वाले पुरुष बैल के रूप में पैदा होंगे’

यह छुआछूत

स्त्री की खुद से और अपनी शारीरिक संरचना से पहली पहचान महावारी के दौरान होती है. जहाँ वह सोचती है कि उसे कोई बीमारी तो नहीं है. स्त्रियों का अपने शरीर के प्रति एक अज्ञात डर बचपन से ही महावारी के बाद से पैदा होना आरंभ हो जाता है. उस वक्त तक वह अपने शरीर के बदलावों को समझ नहीं पाती है और न ही कोई because उसे समझाने वाला होता है. आज भी भारतीय परिवारों में महावारी पर बात करना वर्जित है. महीने के इन दिनों में लड़कियाँ खुद को छुपाकर और बचाकर चलती है. वह हर समय डर में जीती हैं. आज भी हमारे समाज में महावारी के उन दिनों में महिलाओं के साथ छुआछूत का व्यवहार किया जाता है. घर के मुख्य प्रवेश द्वार से दूर स्थान पर रहना व सामाजिक और धार्मिक कार्यों से दूर रखा जाना, आज भी सामाजिक व्यवहार में शामिल है.

आज भी

स्वास्थ्य संबंधित जानकारियों के अभाव के कारण महिलाएँ परंपरा से चली आ रही रीतियों को परंपरा का हिस्सा बनाकर आगे आने वाली पीढ़ियों को उसी के अनुरूप तैयार करती है. because जबकि पुरानी पीढ़ी से बातचीत के आधार पर जाना जा सकता है कि उस समय माहवारी में महिलाओं को घर के काम करने की मनाही का आधार उनका स्वास्थ्य और महावारी के उन दिनों में शरीर को आराम देना और रक्त स्राव के उपरांत अपनी ऊर्जा को पुन: संचित करना था.

रहे हैं परंतु

आज भी महावारी की चर्चा पर शिक्षित और अशिक्षित समाज में सामाजिक रूढ़ मान्यताएं अधिक प्रभावी है. इस कारण समाज में कुछ महिलाओं की महामारी में स्वच्छता के अभाव व अधिक रक्त स्राव के कारण मृत्यु तक हो जाती है. लेकिन फिर भी उसे नियति व अन्य रूढ़ियों के आवरण में नजरअंदाज कर दिया जाता है और रूढ़ियों को भी because अपने हित के अनुरूप सही बता कर महिलाओं के स्वास्थ्य से ही खेला जाता है. इन रूढ़ियों के पालन और पोषण में महिलाओं का भी महत्वपूर्ण योगदान है. स्वास्थ्य संबंधित जानकारियों के अभाव के कारण महिलाएँ परंपरा से चली आ रही रीतियों को परंपरा का हिस्सा बनाकर आगे आने वाली पीढ़ियों को उसी के अनुरूप तैयार करती है. जबकि पुरानी पीढ़ी से बातचीत के आधार पर जाना जा सकता है कि उस समय माहवारी में महिलाओं को घर के काम करने की मनाही का आधार उनका स्वास्थ्य और महावारी के उन दिनों में शरीर को आराम देना और रक्त स्राव के उपरांत अपनी ऊर्जा को पुन: संचित करना था. लेकिन धीरे-धीरे महिलाओं के हित में लिए गए निर्णय परिवर्तित व रूढ़ होते गए.

प्रवेश कर

आज कुछ गाँवों की स्थिति ऐसी है कि महावारी के दिनों में उनका घर के भीतर ही प्रवेश वर्जित है. मैं सोचती थी कि शिक्षा और विज्ञान ने हमें नई सोच दी. लेकिन आज जब पुन: ग्रामीण परिवेश में because कार्य कर रही हूँ तो स्थितियों में कोई बदलाव नहीं देख रही हूँ. कुछ नियम रूढ़ियाँ बनकर आज परंपरा का हिस्सा बना दिए गए. जिन्हें नहीं चाहकर भी ढोना आने वाली पीढ़ी की मजबूरियाँ है और इन रूढ़ियों को परंपरा बनाए रखने में सबसे अधिक महिलाओं का योगदान है.

सदी में

शहरों में कुछ स्तर तक यह व्यवहार because और मानसिकता बदली है मगर गाँव आज भी उसी मानसिकता से बंधे हैं. आज भी गाँवों में किसी बड़ी आपदा व घटना के घटने का कारण महामारी में महिलाओं का मंदिर प्रवेश माना जाता है.

इक्कीसवीं

हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर रहे हैं परंतु आज भी यह छुआछूत सामाजिक व्यवहार में बना हुआ है. इस मानसिकता का उदाहरण गुजरात के स्वामी नारायण मंदिर से जुड़े स्वामी कृष्णस्वरूप दास का बयान है ‘मासिक धर्म के समय पतियों के लिए भोजन पकाने वाली महिलाएं अगले जीवन में ‘……’ के रूप में जन्म लेंगी, because जबकि उनके हाथ का बना भोजन खाने वाले पुरुष बैल के रूप में पैदा होंगे’. इनके लिए आज भी माहवारी छुआछूत का विषय है. उत्तर भारत और दक्षिण भारत दोनों में ही इसी मानसिकता के कारण आज भी महिलाओं का मंदिरों में पूर्णत: प्रवेश वर्जित है. जिस पर महिलाएं क़ानूनी लड़ाई भी लड़ रही हैं.

महात्मा गांधी

शहरों में कुछ स्तर तक यह व्यवहार और मानसिकता बदली है मगर गाँव आज भी उसी मानसिकता से बंधे हैं. आज भी गाँवों में किसी बड़ी आपदा व घटना के घटने का कारण महामारी में because महिलाओं का मंदिर प्रवेश माना जाता है. बीते दिनों केदारनाथ में जो त्रासदी घटी उसके पीछे वैज्ञानिक कारण को नकारकर ग्रामीण परिवेश में माहवारी में महिलाओं के मंदिर प्रवेश को त्रासदी का कारण माना गया. यह विडंबना ही है कि प्रकृति और जीवन को आगे बढ़ाने वाली वही स्त्री महामारी में अछूत बना दी जाती है जबकि यही माहवारी प्रकृति व जीवन के नए सृजन का आधार है.

महात्मा गांधी

(डॉ. भावना मासीवाल असिस्टेंट प्रोफेसर, राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मानिला  (अल्मोड़ा) हैं)

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