कुमाऊनी कविता
- अमृता पांडे
हम पहाड़िनाक काथे-काथ्
खाणपिणे की नि कौ बात्
ठुल्ल गिलास में भरि चाहा
कत्तु गज्जब हुनि हम पहाड़ी आहा,
कप में चाहा पि जै नि लागें
गिलास में मांगनूं चुड़कन चाहा
ककड़ी को रैत, झलमल राई
लूण,हल्द,मिर्च लै मिलायी
पूरी ,आलू टमाटर सब्जी़ दगड़ खाई
मस्तमौला भयां हम पहाड़ी.
मिल-बांटि बैर खांण वाले भयिं.
परुलि इजा चाहा बणायि
माया आलुक गुटुक लै आयि
बसंती लै कै चना-चबैना
पोटलि में धर लाई ,
घास काटि,पुला बणायिं
बीच में थोड़ा टाइम निकालि
झटपट आलु खायिं, चाहा पिवायि
फिर अपुण काम में लग गयिं.
आजाल है रे छि धान रोपाई
गोपालदा खेतम बे पाणि चुरायि
है गयिं वि आगबबूला
दि हालि वयिं बे द्वि-चार गायि
माया, बसन्ती वयिं रे गयि्
परुलि सरपट घरहुं भाजि आइ.
(हल्द्वानी नैनीताल, देवभूमि उत्तराखंड)