पहाड़ों में जल परम्परा : आस्था और विज्ञान के आयाम

डॉ. मोहन चंद तिवारी दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं। वैदिक ज्ञान-विज्ञान के गहन अध्येता, प्रो.तिवारी कई वर्षों से जल संकट को लेकर लिखते रहे हैं। जल-विज्ञान को वह वैदिक ज्ञान-विज्ञान के जरिए समझने और समझाने की कोशिश करते हैं। उनकी चिंता का केंद्र पहाड़ों में सूखते खाव, धार, नोह और गध्यर रहे हैं। हमारे पाठकों के लिए यह हर्ष का विषय है कि प्रो. तिवारी जल-विज्ञान के संदर्भ में ‘हिमांतर’ पर कॉलम लिखने जा रहे हैं। प्रस्तुत है उनके कॉलम ‘भारत की जल संस्कृति’ की पहली कड़ी…


भारत की जल संस्कृति-1

  • डॉ. मोहन चन्द तिवारी

‘हिमाँतर’ में जल परंपरा पर चर्चा प्रारम्भ करने से पहले मैं जल की अविरल और निर्मल धारा के सर्जनहार और दिव्य जलों के भंडार देवतात्मा हिमालय को महाकवि कालिदास के निम्न श्लोक से नमन करना चाहता हूं-

“अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा
हिमालयो नाम नगाधिराजः.
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य
स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः..”
– कुमारसम्भव,1.1

उत्तराखण्ड हिमालय के धरतीपुत्र कहे जाने वाले महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य ‘कुमारसम्भवम्’ में शिव-शक्ति की लीलाभूमि हिमालय के दिव्य चरित का जो वर्णन किया है उसके मंगलाचरण श्लोक के रूप में उन्होंने अन्य किसी देवता की स्तुति न करके केवल हिमालय की ही वंदना पर्याप्त समझा. कालिदास हिमालय को महज एक प्राकृतिक जल संसाधनों से समृद्ध पहाड़ ही नहीं मानते, जहां से गंगा, यमुना, सरयू, सरस्वती आदि अनेक नदियां और हजारों जलस्रोत प्रवाहित होते हैं,बल्कि उनकी नज़र में उत्तर दिशा में विराजमान यह पर्वत पूर्व और पश्चिम के समुद्रों तक फैली हुई सम्पूर्ण पृथ्वी का अद्वितीय मापदण्ड भी है.यही कारण है कि कालिदास ने पर्वतराज हिमालय की वंदना ‘देवतात्मा’ के रूप में की है.

केदारखंड’ में ‘केदारमाहात्म्य’ के वर्णन प्रसंग में ग्लेशियर के लिए एक महत्त्वपूर्ण ‘हिमांतर’ शब्द का उल्लेख भी मिलता है, जिसकी जल वैज्ञानिक परिभाषा गढ़वाल हिमालय के ग्लेशरियों के सन्दर्भ में सटीक प्रतीत होती है. यहां ‘केदारखंड’ के परम आराध्य भगवान् शिव स्वयं पार्वती जी को ‘हिमांतर’ शब्द की आध्यात्मिक और जलवैज्ञानिक व्याख्या समझाते हुए कहते हैं कि- “हे प्रिये! बर्फ के भीतर से पिघल कर निकलने वाला यह जल, (जिसे हम सामान्य भाषा में  ग्लेशियर, हिमनद या हिमानी कहते हैं), इसे ‘हिमांतर’ कहा जाता है.

कुमाऊं हिमालय के पौराणिक भूगोल का वर्णन करने वाले ‘स्कंदपुराण’ के ‘मानसखंड’ में भी महर्षि वैशम्पायन हिमालय की स्तुति करते हुए कहते हैं कि -“पृथ्वी का प्रमुख पर्वत हिमालय ही है,जहां के शिखर भगवान् शिव के ही मस्तक हैं.यहीं दक्षपुत्री सती ने अवतार लिया तथा हिमालय सुता पार्वती के रूप में उन्होंने यहां तपस्या की.इसी पर्वत में पार्वती का शिव से विवाह हुआ. विश्व पर्यावरण का रक्षक और जल संसाधनों का भंडार यह पर्वतराज हिमालय हम सबका कल्याण करे-

“पृथिव्याः प्रथमश्चैव हिमाद्रिःश्रूयते नृप.
यत्र सन्ति सुपुण्यानि महेशस्य शिरांसि वै..
सेवितानि महाभाग ! पुष्पैरिव हिमैः शुभैः.
यानि दृष्ट्वा महाराज पतङ्गाद्याः शिवादयः॥

व्रजन्ति ब्रह्मभवनं पुनरावृत्तिदुर्लभम्.
यत्र पुण्या दक्षसुता अवतीर्णा महामते..
हिमजेति च विख्याता तत्रैव गिरिकन्यका.
तत्रैवोद्वाहिता देवी शिवेन मनुजोत्तम..
विवाहस्तु तयोस्तत्र समुद्गीतो द्विजातिभिः.
वदन्ति मुनयः सर्वे तस्य भागचतुष्टयम्॥
                              – मानसखण्ड,5.6-10

‘मानसखंड’ में उत्तराखंड हिमालय के विभिन्न तीर्थों, नदियों सरोवरों का माहात्म्य बताया गया है. इसी संदर्भ में महर्षि दत्तात्रेय हिमालय की महिमा बताते हुए कहते हैं- “हिमालय के समान पवित्र इस भूमंडल में और कोई बड़ा तीर्थस्थान नहीं है. दस हजार योजन की दूरी से भी कोई प्राणी यदि ‘हिम हिम’ शब्द का उच्चारण करता है तो वह सब पापों से मुक्त होकर विष्णुस्वरुप हो जाता है”-

“हिमाद्रि सदृशं पुण्यं स्थलं भूमण्डले क्वचित्.
नास्ति नास्ति महाराज सत्यं सत्यं वदामि ते..
हिमं हिममिति ब्रुयाद् योजनायुतदूरतः.
सर्वपापैर्विमुच्येत विष्णुसायुज्यमश्नुते..
                       – मानसखण्ड,8.33-34

महर्षि दत्तात्रेय ने जल संसाधनों के भंडार के रूप में जिस हिमालय की महत्ता बताई है उस सम्बन्ध में वे कहते हैं कि- “इसी हिमालय से गंगा,सरयू आदि महानदियों के जलस्रोतों का उद्गम होता है और यहीं से ही बड़े बड़े हिमनद (ग्लेशियर) प्रादुर्भूत होते हैं.यहीं विश्व का सर्वश्रेष्ठ तीर्थधाम कैलाश मानसरोवर भी विराजमान है,जहां ध्रुव,नारद आदि बड़े बड़े योगियों और ऋषि-मुनियों ने तपस्या करके विष्णुलोक प्राप्त किया था”-

“सरय्वाद्यास्तथा पुण्याःसम्भूताः सरितां वराः.
नदानां च नदीनां च यमाद्यं प्रवदन्ति हि..
तन्मानसं महत्तीर्थं जानिहि नृपसत्तम.
यं स्मृत्वा योगिनः सर्वे ध्रुवाद्या नारदादयः..”
– मानसखण्ड,8.51-52

दरअसल, ‘हिम’ के रहस्यात्मक और आध्यात्मिक स्वरूप को जाने बिना हिमालय में जल की दिव्य उत्पत्ति के पौराणिक इतिहास को समझ पाना कठिन है और हिमालय के ग्लेशियरों के स्वरूप को समझे बिना वहां से निकलने वाली नदियों, सरोवरों के जलविज्ञान की अवधारणा को व्याख्यायित करना असम्भव है. हिमालय की परंपरागत जल संस्कृति के प्राचीन इतिहास के साथ उत्तराखंड की लोक संस्कृति की भी अनेक लोक गाथाएं जुड़ी हुई हैं.

गौरीकुण्ड की खास विशेषता यह है कि यहां का पानी रंग बदलता रहता है. शुक्ल पक्ष में जल का रंग पीला और कृष्ण पक्ष में जल का रंग हरा हो जाता है.तीर्थयात्री यहां पर अपने पूर्वजों का श्राद्ध पिण्डदान आदि करते हैं.इन कुंडों के साथ भगवान् शिव,पार्वती और गणेश की अनेक पौराणिक कथाएं भी जुड़ी हैं.

हिमालय से प्रवाहित होने वाले ‘ग्लेशियर’ शब्द का हिंदी अनुवाद कोष ग्रन्थों में प्रायः ‘हिमनद’, ‘हिमानी’ या ‘बर्फ की नदी’ किया जाता है. उधर,महाकवि भारवि ने अपने ‘किरातार्जुनीयम्’ महाकाव्य में हिमालय के ग्लेशियरों का वर्णन श्वेत वर्ण की हिमानियों के रूप में किया है जो पर्वत के ऊपरी शिखरों को सफेद चादर द्वारा ढकी हुई सी दिखाई देती हैं-

“नगं उपरि हिमानीगौरं आसद्य जिष्णुः.”
– किरातार्जुनीयम्,4.38

‘केदारखंड’ में ‘केदारमाहात्म्य’ के वर्णन प्रसंग में ग्लेशियर के लिए एक महत्त्वपूर्ण ‘हिमांतर’ शब्द का उल्लेख भी मिलता है, जिसकी जल वैज्ञानिक परिभाषा गढ़वाल हिमालय के ग्लेशरियों के सन्दर्भ में सटीक प्रतीत होती है. यहां ‘केदारखंड’ के परम आराध्य भगवान् शिव स्वयं पार्वती जी को ‘हिमांतर’ शब्द की आध्यात्मिक और जलवैज्ञानिक व्याख्या समझाते हुए कहते हैं कि- “हे प्रिये! बर्फ के भीतर से पिघल कर निकलने वाला यह जल, (जिसे हम सामान्य भाषा में  ग्लेशियर, हिमनद या हिमानी कहते हैं), इसे ‘हिमांतर’ कहा जाता है. यह बर्फीला जल अग्निमय गर्भ से तप्त रहता है इसलिए इस दिव्य जल का घृतयुक्त अग्नियों से पूजन करना चाहिए-

“हिमान्तर्गलितं तद् यं वै जलं वह्निमयं प्रिये.
पूजनं तस्य कर्त्तव्यं घृताक्त्ताहुतिभिस्तथा..
संतृप्तो जायते वह्निर्वरमिष्टम् प्रयच्छति.
तत उत्तरतो देवि आश्चर्यम् परमं शिवे..”
-केदारखंड,42.14-15

गढ़वाल हिमालय की पारिस्थितिकी से सम्बंधित ‘केदारखंड’ के इस उल्लेख से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि केदारनाथ, बद्रीनाथ के धार्मिक तीर्थस्थलों के जो अनेक तप्त जलकुंडों में गर्म जल के स्रोत मिलते हैं मूलतः वे हिमालय के अत्यंत पवित्र दिव्य जल के तप्त जलस्रोत,ग्लेशियर या ‘हिमांतर’ ही हैं, जिनके साथ जन सामान्य की आस्था मूलक धार्मिक भावनाएं भी जुड़ी हुई हैं.

केदारनाथ की 16 कि.मी. की कठिन पैदल यात्रा को शुरू करने से पहले तीर्थयात्री इन्हीं गौरीकुण्ड और तप्तकुण्ड के जलाशयों में स्नान करते हैं.भारी ठण्ड के बीच भी इन कुंडों में हमेशा गर्म पानी निकलता रहता है. गौरीकुण्ड की खास विशेषता यह है कि यहां का पानी रंग बदलता रहता है. शुक्ल पक्ष में जल का रंग पीला और कृष्ण पक्ष में जल का रंग हरा हो जाता है.तीर्थयात्री यहां पर अपने पूर्वजों का श्राद्ध पिण्डदान आदि करते हैं.इन कुंडों के साथ भगवान् शिव,पार्वती और गणेश की अनेक पौराणिक कथाएं भी जुड़ी हैं.

भारतीय परंपरा में वैदिक काल से ही वृष्टि द्वारा जल की प्राप्ति हेतु यज्ञों के अनुष्ठान की परम्परा चली आ रही है,जैसा कि गीता (3.14) में भी कहा गया है कि सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है,वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ वेदविहित कर्मों से उत्पन्न होता है-

“अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:.
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:॥“

गीता के इस श्लोक से भी ‘केदारखंड’ में आए ‘हिमांतर’ सम्बन्धी उस कथन की पुष्टि ही होती है कि अग्निमय गर्भ से युक्त बर्फीले ग्लेशियरों से दिव्य जल की प्राप्ति के प्रयोजन से ही वैदिक काल में इंद्र,अग्नि,सूर्य आदि वृष्टिकारक प्राकृतिक देव शक्तियों को घृतयुक्त अग्नियों से आहुतियां दी जाती थी.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं एवं विभिन्न पत्र—पत्रिकाओं में जल संकट को लेकर कई लेख प्रकाशित)

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