भारतीय भाषाओं के लिए विश्वविद्यालय की पहल स्वागत योग्य है

  • प्रो. गिरीश्वर मिश्र

भारतवर्ष  भाषाओं की दृष्टि से एक अत्यंत समृद्ध देश है. यहां की भाषाई  विविधता अनोखी  है  और उनमें अपार संभावनाएं  विद्यमान हैं यह उनकी आतंरिक जीवनशक्ति और लोक-जीवन में व्यवहार  में  प्रयोग ही था कि   विदेशी आक्रांताओं  द्वारा विविध प्रकार से सतत हानि पहुंचाये जाने के बावजूद  भी  वे  बची  रहीं. because पिछली कुछ सदियों इन भाषाओं को सतत संघर्ष करना पड़ा था. मुगल शासन काल में फारसी  को  महत्व मिला.  फिर  अंग्रेजों के उपनिवेश के दौर में अंग्रेजी को निर्भ्रान्त प्रश्रय दिया गया और  उसे नौकरी चाकरी से  जोड़  दिया गया. परन्तु यह भी सत्य है कि स्वतंत्रता संग्राम में लोक संवाद के साथ  देश को एक साथ ले चलने में हिन्दी  और अन्य भारतीय भाषाओं ने विशेष  भूमिका निभाई. so स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अंग्रेजों के दौर की नीतियों के अनुसरण करते रहने के फलस्वरूप अंग्रेजी का प्रभुत्व जीवन के सभी प्रमुख क्षेत्रों (यथा-प्रशासन, स्वास्थ्य, न्याय, व्यापार और शिक्षा) में  पूर्ववत कायम रहा और भारतीय भाषाएं  but हाशिए पर ढकेली जाती रहीं. औपनिवेशिक मानसिकता की जकड़न के कारण न केवल भारत की समृद्ध भाषिक विरासत और प्रयोग को क्षति पहुंची  बल्कि  समाज के मानसिक विकास और सृजनात्मकता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा .

स्वतंत्रता

साथ भी गहनता

सभी सांकेतिक फोटो गूगूल बाबा की शरण से.

स्वतंत्र भारत में  एक लोकतंत्र की व्यवस्था में जहां जनता ही केंद्र में होनी चाहिए अधिकांश जनता के लिए एक विदेशी और दुर्बोध भाषा अंग्रेजी को जबरन लादा दिया  गया. because उसकी महिमा अक्षुण्ण  बनी रही और उसी के सहारे काम करते रहने का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करते हुए भारत में भाषा को लेकर एक तरह का यथास्थितिवाद ही बना रहा.  अंग्रेजी को, जिसको जानने वाले  लगभग आज भी मात्र लगभग बारह प्रतिशत भारतीय हैं, पहले की ही तरह  शिक्षा  और  प्रशासन  में केंद्रीय बनाए  रख कर सम्भ्रांत अंग्रेजीदां  लोगों ने अपना वर्चस्व बनाए रखा.  शेष बहुसंख्यक गैर because अंग्रेजी भाषा-भाषी भारतीयों की प्रतिभा और उद्यमिता आदि को नकारते हुए उन्हें अवसर न देते हुए वंचित रखा जाता रहा और पीढी दर पीढी उनमें  अवांछित दैन्यबोध विकसित किया गया.

क्षमता के

आम जनता की शैक्षिक प्रगति और लोकतांत्रिक भागीदारी भी बुरी तरह  बाधित हुई. दुर्भाग्य से सरकार और समाज की उदासीनता के चलते  अंग्रेजी को सर्वथा because  हितकारी राम बाण सरीखा मान लिया गया. फलत: बाजार, व्यवसाय और शिक्षा जगत में अंग्रेजी की मांग बढती ही  रही  जिसका  प्रमाण है कि महंगे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों  की संख्या और उनमें प्रवेश की मारामारी  आज भी बढ रही है.

चिंतन की

अंग्रेजी की गुलामी because और उसके प्रति अतिरिक्त आकर्षण के पीछे  देश हित की जगह सीमित स्वार्थ सिद्ध करना और अपना वर्चस्व कायम रखना ही है.  इस प्रकार का  भाषिक परिवेश स्वराज, समता, समानता तथा  बंधुत्व आदि संविधान-स्वीकृत  लोकतांत्रिक  मूल्यों को कमजोर  करता रहा और युवा पीढी को देश की सभ्यता, इतिहास और संस्कृति से दूर करता रहा. आम जनता की शैक्षिक प्रगति और लोकतांत्रिक भागीदारी भी बुरी तरह  बाधित हुई. दुर्भाग्य से सरकार और समाज की उदासीनता के चलते  अंग्रेजी को सर्वथा  हितकारी  राम बाण सरीखा मान because लिया गया. फलत: बाजार, व्यवसाय और शिक्षा जगत में अंग्रेजी की मांग बढती ही  रही  जिसका  प्रमाण है कि महंगे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों  की संख्या और उनमें प्रवेश की मारामारी  आज भी बढ रही है. परंतु ज्ञान की वृद्धि, जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा  और समतामूलक समाज की स्थापना के लक्ष्यों की दृष्टि से यह स्थिति किसी भी तरह हितकर नहीं कही जा सकती .

भाषा हमारे

स्वतंत्र  भारत में जनता की जनतांत्रिक because भागीदारी और उसके मूल अधिकारों के संरक्षण की दृष्टि से भाषाई व्यवस्था ने प्रकट रूप से अंग्रेजी के पक्ष में और भारतीय भाषाओं के विरुद्ध कार्य किया. संविधान में  हिंदी को राजभाषा और सम्पर्क भाषा का दर्जा  दिया  गया  और अंग्रेजी के उपयोग को यथेच्छ समय तक चलाए जाने की अंतहीन छूट दे दी गई.  बाइस भाषाओं को आठवीं अनुसूची  की भाषा सूची में रखा गया है. अब कन्नड़, म्लयलम, उड़िया, संस्कृत, तमिल तथा तेलुगु को  प्राचीन भाषा because ( क्लैसिकल लैंग्वेज) का दर्जा दिया गया है. राजभाषा विभाग स्थापित है और हर मंत्रालय के लिए इसकी सलाहकार समिति भी है. परन्तु  वास्तविकता यह है कि भारतीय भाषाओं के लिए जो सरकारी उपक्रम  हुए  वे सतही होने के कारण अधिक प्रभावी नहीं साबित हुए. इस जटिलता के कारण अभी तक देश की कोई भाषा नीति नहीं बन सकी है और जीवन के विभिन्न  क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं को उनका यथोचित  स्थान नहीं मिल सका है .

गहनता

भाषा के प्रश्न को टालते रहने से समस्या  का समाधान दिन प्रतिदिन दूर होता गया. ऐसी स्थिति में आज अपने अस्तित्व, महत्व because और भविष्य की दृष्टि से भारतीय भाषाएं गम्भीर संकट की दहलीज पर खड़ी दिख रही हैं. चूंकि भाषा हमारे चिंतन की क्षमता के साथ भी गहनता से जुड़ी होती है इसलिए भारतीय भाषाओं (जो भारतीयों की मातृ भाषाएं भी हैं! ) की सतत उपेक्षा ने सामाजिक जीवन पर नकारात्मक असर डाला. एक ओर उसने अंग्रेजी थोपने के कारण ज्ञान-निर्माण, सृजनात्मकता और मौलिकता आदि की दृष्टि से भारतीयों को अन्य देशों की तुलना में पीछे ढकेलते रहने का कार्य किया तो दूसरी ओर भारतीय देशज ज्ञान परम्परा की विरासत, because यहां के परिवेश के प्रति संवेदनशीलता और समग्रतावादी जीवन-दृष्टि से न केवल अपरिचित बनाया बल्कि उसके प्रति संदेह, अरुचि और किंचित घृणा का भाव भी पैदा किया. उल्लेखनीय है कि अमेरिका, चीन, जापान, रूस, जर्मनी, फ्रांस, इजराइल आदि किसी भी विकसित देश के समाज में अपनी संस्कृति की सत्ता को ले कर इस तरह की कोई दुविधा नहीं मिलेगी जितनी अंग्रेजीभावित शिक्षित सम्भ्रांत भारतीय जनों में दृष्टिगोचर हो रही है .

समय हमें

पीपुल्स लिंग्विस्टिक because सर्वे ऑफ इंडिया के वर्ष 2013 के अध्ययन के अनुसार देश में 780 भाषाएं हैं.  पिछले 50 वर्ष में भारत से 220 से अधिक भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं तथा 197 लुप्त प्राय हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार भारोपीय भाषा भाषी 78.05 because प्रतिशत, द्रविड़ 19.64 प्रतिशत,  आस्ट्रो शियाटिक 2.31 प्रतिशत तथा शेष अन्य भाषा परिवारों के हैं.

चेष्टा करते

भाषाओं को लेकर विगत वर्षों में जो अनुसंधान हुए हैं उनसे यह प्रकट हो रहा है कि भाषाओं का बड़े पैमाने पर तेजी से लोप हो रहा है. यूनेस्को का आकलन है कि विश्व भर में बोली जाअने वाली 6000 भाषाओं में से 2500 भाषाएं संकटग्रस्त हैं.  अनुमान है कि 21वीं सदी के अंत तक मात्र 200 भाषाएं ही जीवित बचेंगी. because भारत की अदिवासी भाषाओं में से 196 गम्भीर रूप से संकट ग्रस्त  हैं. भारत में कुल 1957 भाषाए6 हैं. इनमे6 से 1416 लिपिहीन हैं. ये सभी संकट ग्रस्त हैं. संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित भाषाएं इस प्र्कार हैं: असमी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिंदी, कन्नड़. कश्मीरी, कोकड़ी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू 2011 की जनगणना के अनुसार देश में भाषा के मानक पर because खरी उतरने वाली 1369 बोलियां/ भाषाएं थीं. इसमें से 121 भाषाएं ऐसी हैं जिनके बोलने वालों की संख्या 10 हजार से अधिक है. इनमें आठवीं अनुसूची की भाषाएं भी सम्मिलित हैं. पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया के वर्ष 2013 के अध्ययन के अनुसार देश में 780 भाषाएं हैं.  पिछले 50 वर्ष में भारत से 220 से अधिक भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं तथा 197 लुप्त प्राय हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार भारोपीय भाषा भाषी 78.05 प्रतिशत, द्रविड़ 19.64 प्रतिशत,  आस्ट्रो शियाटिक 2.31 प्रतिशत तथा शेष अन्य भाषा परिवारों के हैं.

बढाने की

भाषा से जुड़ी केंद्रीय सरकार की because संस्‍थाएं इस प्रकार हैं: सहित्य अकादमी, केन्‍द्रीय हिन्‍दी निदेशालय, वैज्ञानिक और तकनीकी शब्‍दावली केन्‍द्र, केन्‍द्रीय हिन्‍दी संस्‍थान, केन्‍द्रीय भारतीय भाषा संस्‍थान, राष्‍ट्रीय सिंधी भाषा संवर्धन संस्‍थान, राष्‍ट्रीय उर्दू भाषा संवर्धन परिषद, राष्‍ट्रीय संस्‍कृत संस्‍थान (आरएसकेएस), महर्षि संदीपणि राष्‍ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्‍ठान (एमएसआरवीवीपी), केन्‍द्रीय अंग्रेजी भाषा और विदेशी भाषा संस्‍थान. इनके अतिरिक्त तीन संस्कृत के, एक उर्दू तथा एक हिंदी का केंद्रीय विश्वविद्यालय है. राज्य सरकारों द्वारा संस्कृत के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार राजस्थान,because महाराष्ट्र, केरल, उत्तराखण्ड तथा उड़ीसा में विश्वविद्यालय स्थापित हैं. इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न भाषाओं के लिए अकादमियां, भाषा संस्थान और ग्रंथ अकादमियां स्थापित हैं. इनके अतिरिक्त गैर सरकारी भाषा  की संस्थाएं  भी कार्यरत  हैं.

सामर्थ्य

पढ़ें— स्कूली शिक्षा की वैकल्पिक राहें

because भारतीय भाषाओं की सामर्थ्य बढाने की चेष्टा करते समय हमें कई बातों पर  ध्यान देना होगा. किसी भी भाषा की सामाजिक सामर्थ्य कई बातों पर निर्भर करती है. इन में प्रमुख हैं : पीढी दर  पीढी के बीच भाषा का अंतरण, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भाषा का उपयोग, भाषा के विविध रूपों  so का दस्तावेजीकरण, भाषा द्वारा नई तकनीक because और आधुनिक माध्यमों की स्वीकार्यता, सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्रों में प्रचलित भाषा नीति तथा भाषा का समुदाय का उस भाषा के साथ भावनात्मक लगाव की मात्रा. चूंकि भाषा असंदिग्ध रूप से संस्कृति, राष्ट्र और राष्ट्रीयता को परिभाषित करती है  तथा  राष्ट्र के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाती है यह आवश्यक है कि इनके  because संरक्षण  और सम्बर्धन  के लिए यथाशीघ्र समेकित प्रयास किया जाय. दृढ संकल्प के साथ जीवन के सभी क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं को स्थापित करने के अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं है. इसके लिए वातवरण बनाना जरूरी है. यह स्वीकार करते हुए कि भाषा की समस्या सभ्यता की समस्या है इस दिशा तत्काल प्रभावी कदम उठाना आवश्यक है .

भाषाओं

भारतीय भाषाओं का संरक्षण because और  सम्बर्धन देश के सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक और ज्ञानमूलक विकास को गति  दे सकेगा  सकेगा  और आम जन की  सामाजिक जीवन में सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जा सकेगी. इस उद्देश्य के अनुरूप  विश्वविद्यालय द्वारा अनुसंधान, अध्ययन-अध्यापन तथा प्रशिक्षण का कार्य सम्पादित होना चाहिए संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित सभी भाषाओं के साथ इसका आरम्भ होना चाहिए.

भारतीय

भारतीय भाषाओं के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगा. भारतीय भाषाओं का संरक्षण और  सम्बर्धन देश के सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक और ज्ञानमूलक विकास को गति  दे सकेगा because सकेगा  और आम जन की  सामाजिक जीवन में सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित की जा सकेगी. इस उद्देश्य के अनुरूप  विश्वविद्यालय द्वारा अनुसंधान, अध्ययन-अध्यापन तथा प्रशिक्षण का कार्य सम्पादित होना चाहिए संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित सभी because भाषाओं के साथ इसका आरम्भ होना चाहिए. इस हेतु शैक्षिक so और अनुसंधान की अपेक्षित सुविधाएं जुटा कर भाषाओं के विविध पक्षों यथा- शब्द संकलन, लिपि निर्धारण और विकास, कोश-निर्माण, अनुवाद, प्रासंगिक भाषावैज्ञानिक समस्याओं विशेषत: भाषाओं के अनुप्रयोगात्मक (अप्लायड) पक्षों का विश्लेषण और अनुसंधान, अपेक्षित भाषाई तकनीकों का विकास, भाषाओं का because तुलनात्मक विश्लेषण, भाषा-संस्कृति के पारस्परिक सम्बन्ध तथा इन सभी से जुड़े अन्य सम्बन्धित विषयों का अध्ययन किया जाना चाहिए. वैज्ञानिक रूप से प्राप्त जानकारी के आधार पर भारत में भाषाओं के प्रयोग की स्थिति का सतत पर्यवेक्षण but और भाषा नीति के विकास और उसके आलोक में आवश्यक उपायों के विकास का कार्य संभव हो सकेगा. खबर है कि भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने इस दिशा में विचार आरम्भ किया है. देर आयद दुरुस्त आयद!

(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपतिमहात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)

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