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वरिष्ठ कवि व पत्रकार मंगलेश डबराल की स्मृति में

वरिष्ठ कवि व पत्रकार मंगलेश डबराल की स्मृति में

साहित्यिक-हलचल
कमलेश चंद्र जोशी वरिष्ठ कवि व साहित्यकार मंगलेश डबराल भौतिक रूप से अब हमारे बीच नहीं रहे लेकिन अपनी कविताओं, साहित्यिक रचनाओं व गंभीर पत्रकारिता के माध्यम से जिस लालटेन को वह जलता हुआ छोड़ गए हैं उसे जलाए रखने और रोशनी बिखेरने का काम वर्तमान व भविष्य की पीढ़ियों के हाथ में है. मंगलेश जी की स्मृति को अमूमन because सभी पत्रकारों, कवियों व साहित्य प्रेमियों ने सोशल, इलैक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया के माध्यम से याद किया. कथाकारों, लेखकों व पत्रकारों द्वारा मंगलेश जी के साथ बिताए समय के बहुत से संस्मरण फेसबुक के माध्यम से पढ़ने को मिले जिससे यह समझ में आया कि वह किस कदर जमीन से जुड़े व्यक्ति थे और हमेशा पहाड़ और उसके रौशन होने के सपने को साथ लिये चलते रहे. पत्रकारिता देवेंद्र मेवाड़ी बताते हैं कि दिल्ली में जनसत्ता में नौकरी करते हुए मंगलेश जी बड़े परेशान रहा करते थे. कहते थे दिल्ली महानगर है...
उत्तराखंड की वादियों से गुमानी पंत ने उठाई थी,आज़ादी की पहली आवाज

उत्तराखंड की वादियों से गुमानी पंत ने उठाई थी,आज़ादी की पहली आवाज

समसामयिक
संविधान दिवस (26 नवम्बर) पर विशेष डॉ.  मोहन चंद तिवारी मैं पिछले अनेक वर्षों से अपने लेखों द्वारा लोकमान्य गुमानी पन्त के साहित्यिक योगदान की राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में निरंतर रूप से चर्चा करता आया हूं. उसका एक कारण यह भी है कि संविधान की आठवीं अनुसूची में उत्तराखंड की भाषाओं को मान्यता दिलाने के लिए सर्वाधिक साहित्यिक प्रमाण लोककवि गुमानी पंत द्वारा आज से दो सौ वर्ष पूर्व रचित कुमाउंनी साहित्य है,जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय धरातल पर देश की भाषाई एकता को स्थापित करने के लिए गढ़वाली, कुमाउंनी आदि उत्तराखंड की भाषाओं के अलावा नेपाली और संस्कृत भाषाओं में साहित्य रचना की.पर विडंबना यह है कि आज उत्तराखंड की वादियों में बोली जाने वाली खसकुरा नेपाली भाषा को तो आठवीं अनुसूची में स्थान प्राप्त है किंतु  उसी भाषापरिवार से सम्बद्ध कुमाउंनी, गढ़वाली और जौनसारी को संवैधिनिक मान्यता नहीं मिल पाई ...