Tag: संस्कृति

6 मार्च को पीएम मोदी का उत्तरकाशी दौरा : पर्यटन और संस्कृति को मिलेगा नया आयाम

6 मार्च को पीएम मोदी का उत्तरकाशी दौरा : पर्यटन और संस्कृति को मिलेगा नया आयाम

उत्तरकाशी
उत्तराखंड बना सुशासन और विकास का मॉडल, मोदी-धामी की केमिस्ट्री का असर उत्तरकाशी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 6 मार्च को उत्तरकाशी के मुखवा-हर्षिल क्षेत्र पहुंचने वाले हैं. यह यात्रा केवल एक सरकारी दौरा नहीं, बल्कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने और पर्यटन को नया आयाम देने की एक ऐतिहासिक पहल है. मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के आमंत्रण पर पीएम मोदी की यह यात्रा राज्य के प्रति उनके गहरे लगाव को दर्शाती है. लेकिन इससे भी अहम बात यह है कि मोदी-धामी की जोड़ी ने मिलकर उत्तराखंड को विकास, सुशासन और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की दिशा में अभूतपूर्व ऊंचाइयों तक पहुंचाया है. देवभूमि उत्तराखंड एक बार फिर ऐतिहासिक क्षण का साक्षी बनने जा रहा है. 6 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तरकाशी के मुखवा-हर्षिल क्षेत्र में पहुंचेंगे, जहां वे उत्तराखंड की शीतकालीन यात्रा को नई पहचान देंगे. मुख्यमंत्री पुष...
विद्या के परिसर में सीखने-सिखाने की संस्कृति बहाल की जाए!

विद्या के परिसर में सीखने-सिखाने की संस्कृति बहाल की जाए!

साहित्‍य-संस्कृति
प्रो. गिरीश्वर मिश्र  कहा जाता है धरती पर ज्ञान जैसी कोई दूसरी पवित्र वस्तु नहीं है. भारत में प्राचीन काल से ही न केवल ज्ञान की महिमा गाई जाती रही है बल्कि उसकी साधना भी होती आ रही है. इस बात का असंदिग्ध प्रमाण देती है काल के क्रूर थपेड़ों के बावजूद अभी भी शेष बची विशाल ज्ञानराशि. अनेकानेक ग्रंथों तथा पांडुलिपियों में उपस्थित यह विपुल सामग्री भारत की वाचिक परम्परा की अनूठी उपलब्धि के रूप में वैश्विक स्तर पर अतुलनीय और आश्चर्यकारी है. यह हमारे लिए सचमुच गौरव का विषय है कि आज जैसी उन्नत संचार तकनीकी के अभाव में भी मानव स्मृति में भाषा के कोड में संरक्षित हो कर यह सब जीवित रह सका. इस परम्परा में मनुष्य के जीवन में होने वाले आरम्भ में विकास और उत्तर काल में ह्रास की अकाट्य सच्चाई को स्वीकार करते हुए मनुष्य को जीने के लिए तैयार करने की व्यवस्था की गई थी. ज्ञान केंद्रित भारतीय संस्कृति के अंतर...
ढांटू: रवांई—जौनपुर एवं जौनसार-बावर में सिर ढकने की अनूठी परम्‍परा

ढांटू: रवांई—जौनपुर एवं जौनसार-बावर में सिर ढकने की अनूठी परम्‍परा

साहित्‍य-संस्कृति
निम्मी कुकरेती उत्तराखंड के रवांई—जौनपुर एवं जौनसार-बावर because क्षेत्र में सिर ढकने की एक अनूठी परम्‍परा है. यहां की महिलाएं आपको अक्‍सर सिर पर एक विशेष प्रकार का स्‍कार्फ बाधे मिलेंगी, जो बहुत आकर्षक एवं मनमोहक लगता है. स्थानीय भाषा में इसे ढांटू कहते हैं. यह एक विशेष प्रकार के कपड़े पर कढ़ाई किया हुआ या प्रिंटेट होता है, जिसमें तरह—तरह की कारीगरी आपको देखने को मिलेगी. यहां की महिलाएं इसे अक्सर किसी मेले—थौले में या ​की सामूहिक कार्यक्रम में अक्सर पहनती हैं. उत्तराखंड  ढांटू का इतिहास यहां के लोगों का मानना है कि वे because पांडवों के प्रत्यक्ष वंशज हैं. और ढांटू भी अत्यंत प्राचीन पहनावे में से एक है. इनके कपड़े व इन्हें पहनने का तरीका अन्य पहाड़ियों या यूं कहें कि पूरे भारत में एकदम अलग व बहुत सुंदर है. महिलाएं इसे अपनी संस्कृति और सभ्यता की पहचान के रूप में पहनती हैं. आज भी इ...
भड्डू और उसमें बनने वाली दाल के स्वाद से अपरिचित है युवा पीढ़ी

भड्डू और उसमें बनने वाली दाल के स्वाद से अपरिचित है युवा पीढ़ी

साहित्‍य-संस्कृति
आशिता डोभाल पहाड़ की संस्कृति और रीति—रिवाज अपने आप में सम्पन्न, अनूठी और अद्भुत है. यह अपने में कई चीजों का समाए हुए है, पहाड़ की संस्कृति और रीति—रिवाज हमेशा एक कौतूहल और शोध का विषय रहा है. हमारी संस्कृति पर कुछेक शोध जरूर हुए हैं लेकिन वह ना के बराबर. हमारी प्राचीन संस्कृति पर अभी भी गहन अध्ययन, चिंतन और शोध की जरूरत है. क्योंकि आज हम जिस समाज और भाग दौड़ की दुनिया में एक दिखावे की सी जिंदगी जी रहे हैं, उसमे हमारी आने वाली पीढ़ी पहाड़ों की कई ऐसी चीजों से अनभिज्ञ रहने वाली है. इसका कारण कोई और नहीं हम ही हैं. क्योंकि आज हम अपनी संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं. आज मैं बात कर रही हूं एक ऐसे बर्तन की, जो हमारे रीति—रिवाज और संस्कृति का कभी अभिन्न अंग हुआ करता था. मैं जिस बर्तन की बात कर रही हूं उसका नाम भड्डू है. भड्डू को बनाने में बहुत चिंतन—मनन करना पड़ा होगा. ऐसी धातुओं का मिश्रण...
हरेला पर्व, अँधेरे समय में विचार जैसा है

हरेला पर्व, अँधेरे समय में विचार जैसा है

लोक पर्व-त्योहार
प्रकाश उप्रेती पहाड़ों का जीवन अपने संसाधनों पर निर्भर होता है. यह जीवन अपने आस-पास के पेड़, पौधे, जंगल, मिट्टी, झाड़ियाँ और फल-फूल आदि से बनता है. इनकी उपस्थिति में ही जीवन का उत्सव मनाया जाता है. पहाड़ के जीवन में प्रकृति अंतर्निहित होती है. दोनों परस्पर एक- दूसरे में घुले- मिले होते हैं. एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. यह रिश्ता अनादि काल से चला आ रहा है. 'पर्यावरण' जैसे शब्द की जब ध्वनि भी नहीं थी तब से प्रकृति पहाड़ की जीवनशैली का अनिवार्य अंग है. वहां जंगल या पेड़, पर्यावरण नहीं बल्कि जीवन का अटूट हिस्सा हैं. इसलिए जीवन के हर भाव, दुःख-सुख, शुभ-अशुभ, में प्रकृति मौजूद रहती है. जीवन के उत्सव में प्रकृति की इसी मौजूदगी का लोकपर्व है, हरेला. हरेला का अर्थ हरियाली से है. यह हरियाली जीवन के सभी रूपों में बनी रहे उसी का द्योतक यह लोक पर्व है. एक वर्ष में तीन बार मनाया जाने व...