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कालसी गेट की रामलीला और मैं…

कालसी गेट की रामलीला और मैं…

संस्मरण
स्मृतियों के उस पार सुनीता भट्ट पैन्यूली अक्टूबर यानी पत्तियां रंग बदल रही हैं,  पौधे ज़मीन पर बदरंग होकर  स्वत:स्फूर्त बीज फेंक रहे हैं ज़मीन पर, जानवर सर्दियों से बचाव की तैयारी में चिंतन में आकंठ डूबे हुए हैं. यानी पूरी प्रकृति एक बदलाव की प्रक्रिया की ओर अग्रसर है. अक्तूबर आ गया है  सुबह सर्द मौसम की सरसराहट पूरे शरीर की धमनियों में दौड़ने लगी है और इसी सरसराहट के साथ नवरात्रि की धूम में  सुबह हवाओं में बहुमिश्रित अगरबत्तियों की खुशबू है.कहीं मंदिरों में घंटियों की टुनटुनाहट है. देर रात्रि में दूर शहर में कहीं  माइक पर धीमी होती आवाज़ में  रामलीला के डायलोग जैसे ही मेरे कर्णों को भेदते हैं, मेरी स्मृतियों के कपाट इस चिरपरिचित आवाज़ को सुनकर हर साल की तरह इस बार भी खुल गये हैं जिसके घुप्प अंधेरे को भेदकर बहुत पीछे जाने पर मेरे भीतर बचपन की रंग-बिरंगी अकूत झांकियां सजी हुई  हैं. ...