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हम बच्चे ‘हक्के-बक्के’ जैसे किसी ने अचानक ‘इस्टैचू’ बोल दिया हो

हम बच्चे ‘हक्के-बक्के’ जैसे किसी ने अचानक ‘इस्टैचू’ बोल दिया हो

संस्मरण
चलो, बचपन से मिल आयें भाग—1 डॉ. अरुण कुकसाल बचपन में हम बच्चों की एक तमन्ना बलवान रहती थी कि गांव की बारात में हम भी किसी तरह बाराती बनकर घुस जायं. हमें मालूम रहता था कि बडे हमको बारात में ले नहीं जायेगें. पर बच्चे भी ‘उस्तादों के उस्ताद’ बनने की कोशिश करते थे. गांव से बारात चलने को हुई नहीं कि आगे जाने वाले 2 मील के रास्ते तक पहुंच कर गांव की बारात का आने का इंतजार कर रहे होते थे. नैल गांव जाने वाली बारात की याद है. हम बच्चे अपने गांव की पल्ली धार में किसी ऊंचे पत्थर पर बैठ कर सामने आती बारात में बाराती बनने को उत्सुक हो रहे थे. बारात जैसे-जैसे हमारे पास आ रही थी, हमारा डर भी बड़ रहा था. हमें मालूम था पिटाई तो होगी परन्तु मार खाकर बाराती बनना हमें मंजूर था. वैसे भी रोज की पिटाई के हम अभ्यस्थ थे. शाम होने को थी. बड़े लोग वापस हमको घर भेज भी नहीं सकते थे. क्या करते ? नतीजन, बुजुर्गो...