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जिसकी कलम में गाँठ….

जिसकी कलम में गाँठ….

संस्मरण
‘बाटुइ’ लगाता है पहाड़, भाग—4 रेखा उप्रेती छोटे थे तो किसी भी बात पर सहज विश्वास कर लेते. हवा, पानी, पेड़, पहाड़- जैसे हमारे लिए साक्षात थे वैसे ही बड़ों से सुने हुए किस्से-कहानियाँ-कहावतें भी…. उन दिनों बाँस की कलम प्रयोग में लायी जाती थी और कलम मोटी, पतली, टेड़ी-मेड़ी भले ही हो पर गाँठ वाली न हो, इस बात का हम पूरा ध्यान रखते. क्योंकि कहावत थी- “जिसकी कलम में गाँठ, उसकी बुद्धि नाश”. तब हमें बुद्धि भले नहीं थी पर उसके नाश होने की कल्पना से हम घबराते थे. लिहाज़ा पुरानी कलम जब टूट जाती, तो बाँस के झुरमुटों में से सही नाप-तोल की सूखी टहनी टटोल कर लाना बड़ी लियाक़त माँगता था. दो गाँठों के बीच की साफ़-सुथरी टहनी खोजनी पड़ती. उसकी लम्बाई और मोटाई का अनुपात ठीक होना भी जरूरी था. बाँस न कच्चा हो न इतना सूखा कि दरार पड़ जाए. कलम उतनी ही स्याही सोखे कि अक्षर को आकार मिले वरना स्याही की बूँद टपक ...