‘फूल संगराँद’ से शुरु होकर ‘अर्द्ध’ से होते हुए ‘साकुल्या संगराँद’ तक चलता रहता है उत्सव
सदंर्भ : फूलदेई
दिनेश रावत
वसुंधरा के गर्भ से प्रस्फुटित एक—एक नवांकुर चैत मास आते—आते पुष्प—कली बन प्रकृति के श्रृंगार को मानो आतुर हो उठते हैं. खेतों में लहलहाती गेहूँ—सरसों की because फसलों के साथ ही गाँव—घरों के आस—पास पयां, आड़ू, चूल्लू, सिरौल, पुलम, खुमानी के श्वेत—नीले—बैंगनी, खेत—खलिहानों के मुंडैरों से मुस्कान बिखेरती प्यारी—सी फ्योंली के पीले फूल और बांज, बुराँश, खर्सू, मोरू, अंयार की हरियाली के बीच से अद्वितीय लालिमा का संचार करते बुराँश के सुर्ख लाल फूलों की उन्मुक्त मुस्कान और अनुपम सौंदर्य देखते ही बनती है.
उत्तराखंड
प्रकृति के इसी मनोरम दृश्य को देखकर उसी के निकटव नैकट्य में जीवन यापन करने वाला सीधा—सच्चा—सरल because लोक मानस इस प्रकार आनंदित—उत्साहित—उल्लासित हो उठता है कि उसके मन में भी जीवन को ऐसे ही अद्भुत व अनुपम बनाने की उत्कंठा जाग उठती है. फलतः प्रकृति प्...