आखन देखी
ललित फुलारा
जब मैं यह लिख रहा हूं.. जुलाई बीत चुका है. फुटपाथ, सड़कें, गली-मोहल्ले कोरोना से निर्भय हैं! जीवन की गतिशीलता निर्बाध चल रही है. लोगों के चेहरों पर मास्क ज़रूर हैं, पर भीतर का डर धीरे-धीरे कम होने लगा है. रोज़मर्रा के कामकाज़ पर लौटे व्यक्तियों ने आशावादी रवैये से विषाणु के भय को भीतर से परास्त कर दिया है. घर के अंदर बैठे व्यक्तियों की चिंता ज्यादा है, बाहर निकलने वाले जनों ने सारी चीजें नियति पर छोड़ दी हैं.
वैसे ही जैसे असहाय, अगले पल की चिंता, दु:ख, भय और परेशानी ईश्वर पर छोड़ देता है.
दरअसल, पेट की भूख दुनिया की हर महामारी से बड़ी होती है. पेट की भूख के चलते ही तीन महीने पहले तक जो सड़कें भयग्रसित हो गईं थी, अब वहां हलचल है एवं स्थितियां सामान्य होने लगी हैं. मास्क व सैनिटाइज़र को जीवन का अभिन्न हिस्सा बनाते हुए लोग अपने कर्म पर लौट चले हैं. गली-मोहल्लों में कुल्फि...