Tag: गुरु पूर्णिमा

संत कबीर दास का गुरु स्मरण

संत कबीर दास का गुरु स्मरण

साहित्‍य-संस्कृति
गुरु पूर्णिमा (24 जुलाई) पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र  निर्गुण संत परम्परा के काव्य में गुरु की महिमा पर विशेष ध्यान दिया गया है और शिष्य या साधक के उन्नयन में उसकी भूमिका को बड़े आदर से देखा गया है. गुरु को ‘सद्गुरु’ भी कहा गया है और सद्गुरु को ईश्वर या परमात्मा के रूप में भी व्यक्त किया गया है. सामान्यत: संतों द्वारा  गुरु को प्रकाश के श्रोत के रूप में लिया गया है जो अन्धकार से आवृत्त शिष्य को सामर्थ्य देता है और उसे मिथ्या और भ्रम से निजात दिलाता है. गुरु वह  दृष्टि देता है जिससे यथार्थ so दृष्टिगत हो पाता है. गुरु की कृपा से शिष्य यथार्थ ज्ञान और बोध के स्तर पर संचरित होता है और दृष्टि बदलने से दृश्य और उसका अभिप्राय भी बदल जाता है. निर्गुण परमात्मा की ओर अभिमुख दृष्टि के आलोक में  व्यक्ति का अनुभव, कर्म और दुनिया से सम्बन्ध नया आकार ग्रहण करता है. शिक्षा यद्यपि भारत में गुरु, ...
शिक्षक ‘ज्ञानदीप’ है जो जीवनभर ‘दिशा’ देता है

शिक्षक ‘ज्ञानदीप’ है जो जीवनभर ‘दिशा’ देता है

समसामयिक
गुरु पूर्णिमा पर विशेष डॉ. अरुण कुकसाल बचपन की यादों की गठरी में यह याद है कि किसी विशेष दिन घर पर दादाजी ने चौकी पर फैली महीन लाल मिट्टी में मेरी दायें करांगुली (तर्जनी) घुमाकर विद्या अध्ययन का श्रीगणेश किया था. स्कूल जाने से पहले घर पर होने वाली इस पढ़ाई को घुलेटा (आज का प्ले ग्रुप) कहा जाता था. संयोग देखिये कि जिस ऊंगली से हम दूसरों की कमियों की ओर इशारा या उनसे तकरार करते हैं, उसी से हम ज्ञान का पहला अक्षर सीखते हैं. कुछ दिनों बाद 'आधारिक विद्यालय, कण्डारपाणी' असवालस्यूं (पौड़ी गढ़वाल) में भर्ती हुए तो रोज पढ़ने से पहले बच्चे बोलते...... ‘आगे-पीछे बाजे ढोल, सरस्वती माता विद्या बोल’. घर से स्कूल जाने से पहले सभी बच्चे तमाम कामों में घरवालों का हाथ बांटते. गांव का सयाना जिसकी उस दिन बच्चों को स्कूल छोड़ने की बारी होती वो जोर से धै लगाता ‘तैयार ह्ववे जावा रे’. बस थोड़ी ही देर में ...