Tag: ककड़ी

कब चुभेंगे हिसाऊ, क़िलमोड के कांटे

कब चुभेंगे हिसाऊ, क़िलमोड के कांटे

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—17 प्रकाश उप्रेती आज बात हिसाऊ, क़िलमोड और करूँझ की. ये हैं, कांटेदार झाड़ियों में उगने वाले पहाड़ी फल. इनके बिना बचपन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. देश के अन्य राज्यों में ये होते भी हैं या नहीं इसकी जानकारी मुझे नहीं है. बचपन में कभी बाजार से खरीदा हुआ कोई फल खाया हो ऐसा याद नहीं. दिल्ली वाले रिश्तेदार मिठाई, चने और मिश्री लाते थे तो पहाड़ में रहने वाले एक बिस्किट का पैकेट, सब्जी, दूध, दही, छाँछ, उनके घर में लगी ककड़ी, गठेरी, दाल, बड़ी, घर से बनाकर पूरी और चार टॉफी में से जो हो, वो लाते थे. आता इन्हीं में से कुछ था. कभी- कभी एक सेठ बुआ जी केले जरूर ले आती थीं. तब यही अपने फल थे. करूँझ तोड़ते हुए तो अक्सर हाथों पर कांटे चुभ जाते थे लेकिन जान हथेली पर लेकर तोड़ते जरूर थे. तोड़ने को लेकर लड़ाई भी खूब होती थी. पहले मैंने देखे, इस पर ज्यादा हो रहे हैं, इस ...
काकड़, कोरैण, रायत और पीसी लूण

काकड़, कोरैण, रायत और पीसी लूण

संस्मरण
मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—5 प्रकाश उप्रेती आज बात- 'कोरैण' की. कोरैण माने कोरने वाला. लुप्त होने के लिए 'ढिका' (किनारे) में बैठा यह औजार कभी भी लुढ़क सकता है. फिर हम शायद ही इसे देख पाएं. उन दिनों पहाड़ में हर घर की जरूरत थी -कोरैण. अब तो इसके कई स्थानापन आ गए हैं. कोरैण भी धीरे-धीरे पहाड़ के उन घरों की तरह पुरानी हो गयी है जो आधुनिकता की भेंट चढ़े. आधुनिकता और आराम ने कई पुरानी चीजों को ढहाया और ले आया नये व आसान विकल्प. लकड़ी के हत्थे और लोहे की पत्ती से बनी कोरैण अलग-अलग आकार की होती थी. इसका आगे का हिस्सा मुड़ा होता था. उस मुड़े हुए हिस्से के 'कर्व' से तय होता था कि यह पतली वाली कोरैण है या मोटी वाली. लोगों द्वारा अलग-अलग चीजों को कोरने के लिए अलग-अलग कोरैण का इस्तेमाल किया जाता था. "ले य काकड़ कोर दे" (ये ककड़ी कोर दे). हम  ईजा को कहते थे 'डाव से कोरैण' निकाल दे. ईजा निक...