उत्तराखंड राज्य के लिए भुलाया नहीं जा सकता दिल्लीवासियों का संघर्ष

उत्तराखंड राज्य के स्थापना दिवस (9 नवम्बर) पर विशेष

याद आ रहे हैं डॉ. नारायण दत्त पालीवाल

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

आज 9 नवम्बर को उत्तराखंड because राज्य का 21वां स्थापना दिवस है। हम सभी उत्तराखंडवासियों के लिए चाहे वह उत्तराखंड राज्य में रह रहे नागरिक हों, जो एक स्वतंत्र राज्य के अहसास से जीवन यापन कर रहे हैं, या फिर राज्य की बदहाली के कारण दूर दराज के मैदानी इलाकों में मजबूरी से गुजर बसर कर रहे प्रवासी जन हों,सबके लिए अत्यन्त ही हर्ष और गर्व का मौका है कि आज के दिन लंबे संघर्ष और अनेक लोगों के बलिदान के बाद नए राज्य का हमें हमारा संविधान सम्मत अधिकार मिला।

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यह गर्व करने का दिन इसलिए भी है क्योंकि so आज हमें एक स्वतंत्र राज्य के अलावा अपनी एक नई पहचान भी मिली थी। वरना तो उत्तर प्रदेश जैसे पिछड़े राज्य के किसी कोने में हम भी अपनी पहचान और लोक संस्कृति के लिए संघर्ष कर रहे होते और उत्तराखंड आंदोलन के विरोधी मुलायम सरकार ने न जाने अब तक हमारा क्या बुरा हाल किया होता!

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डा. नारायण दत्त पालीवाल

दरअसल, उत्तराखंड राज्य आंदोलन किसी but राजनैतिक पार्टी से प्रेरित आंदोलन नहीं था। यह आंदोलन यहां की जनता की परेशानियों और उसके साथ किए जाने वाले सौतेले दुर्व्यवहार से उत्पन्न एक स्वतःस्फूर्त जन आंदोलन था। मुझे अच्छी तरह याद है कि पिछले बीस वर्षों में यहां राज करने वाली राजनैतिक पार्टियों ने ही इस आंदोलन का शुरू शुरू में घोर विरोध किया था। किन्तु जन आंदोलन की बयार कुछ ऐसी बही कि उन्हें भी अपने राजनैतिक वजूद की वजह से इसे समर्थन देना पड़ा।

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तब शुरुआत में इस आंदोलन की नीयत पर तरह-तरह के शक और सवाल भी पैदा किए गए थे। किन्तु इस because आंदोलन को सफल बनाने के लिए उत्तराखंड की आंदोलनकारी जनता के साथ साथ दिल्ली सहित पंजाब, राजस्थान, हरियाणा, उत्तरप्रदेश,आदि के प्रवासीजनों का जो राष्ट्रव्यापी तन मन धन से सहयोग मिला उससे उत्तरप्रदेश तो क्या केंद्र सरकार भी हिल गई और अंततोगत्वा उन्हें उत्तराखंड राज्य की घोषणा करनी ही पड़ी।

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मगर आज बहुत पीड़ा होती है कि सोशल मीडिया में उत्तराखंड से पलायन के मुद्दे पर जब कोई प्रवासी जन इस राज्य की बेहतरी के लिए अपने विचार प्रकट करता है तो शराब माफिया so और ठेकेदार माफिया के समर्थकों तथा सत्ताधारी राजनैतिक पार्टियों के समर्थकों द्वारा,मजबूरी से पलायन कर चुके प्रवासी जनों पर कटाक्ष किया जाता है। शायद इसलिए कि ये बेचारे सरकार की नाकामी के कारण जीवन बसर करने के लिए अपने पैतृक निवास से पलायन कर चुके हैं पर वास्तविकता यह है कि उत्तराखंड राज्य के आंदोलन में प्रवासी जनों की भूमिका को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। यदि राष्ट्रीय स्तर पर उत्तराखंड के प्रवासी जन देश के विभिन्न शहरों में इसे जन आंदोलन का मुद्दा नहीं बनाते तो शायद ही उत्तराखंड पृथक राज्य बन पाता।

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मैं आज उत्तराखंड राज्य के स्थापना but दिवस पर अपनी दो दशक पुरानी कुछ यादगार स्मृतियों को ताजा करना चाहता हूं,जिनका उत्तराखंड राज्य के आंदोलन से गहरा संबंध है और दिल्ली की एक पर्वतीय संस्था ‘पर्वतीय सांस्कृतिक मंडल’ के माध्यम से भी मैं इस आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ा रहा।

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आज हम समस्त उत्तराखंडवासियों को गर्व है कि हमें चिर प्रतीक्षित उत्तराखंड राज्य मिला मगर पीड़ा यह होती है कि 20 वर्ष का यह राज्य बालिग तो हो चुका है किंतु राजनेताओं तथा अफसरशाहों की so प्रशासनिक अक्षमता के कारण स्वावलंबी न हो कर घुटनों के बल ही रेंग रहा है। चारों ओर उत्तराखंड के गांव गांव पहुंचने के लिए सड़कों का निर्माण तो हुआ है किंतु उन्हीं सड़कों से भारी मात्रा में मैदानों की ओर पलायन ही पलायन हुआ है,क्योंकि उत्तराखंड राज्य ने शिक्षा,स्वास्थ्य,और रोजगार और पानी,परिवहन जैसे मौलिक नागरिक अधिकारों के प्रति अपनी नाकामी ही प्रदर्शित की है।

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आज के दिन मैं उत्तराखंड राज्य की नाकामियों के दिल दहलाने वाले आंकड़े गिनाना उचित नहीं समझता क्योंकि यह मेरे लिए भी उतना ही दुःख दायी है और मेरे उत्तराखण्डवासियों के लिए भी। but पर राज्य बनने से पहले की दो दशक पुरानी आंदोलनकारी पृष्ठभूमि के संस्मरणों को याद करते हुए बताना जरूरी समझता हूं कि जहां मैं आज दिल्ली में रहता हूँ वहां ‘पर्वतीय सांस्कृतिक मंडल’, नेहरू विहार, दिल्ली की ओर से भी उत्तराखंड राज्य आंदोलन को सफल बनाने में सक्रिय भूमिका निभाई गई थी। देश के राष्ट्रपति को हजारों की संख्या में उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए अनुरोधपत्र प्रस्तुत किया गया था।

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हमारे क्षेत्र की संस्था ‘पर्वतीय सांस्कृतिक मंडल’, नेहरू विहार द्वारा उत्तराखंड के आंदोलनकारियों के भोजन इत्यादि के लिए भी व्यवस्था का कार्य किया गया। किन्तु मुझे वह 2 अक्टूबर because का दमनकारी दिन आज भी याद है जब दिल्ली में आंदोलनकारियों पर सरकार द्वारा बेरहमी से लाठियां बरसाई गईं और उसमें मेरे साथ साथ हमारे सांस्कृतिक मंडल के अध्यक्ष श्री खिमानन्द पांडे जी, बी डी जोशी, जानकी बल्लभ जोशी, मोहन लाल भट्ट, हयात सिंह अधिकारी, शिवदयाल कंडारी,बहादुर सिंह सिराड़ी आदि पंद्रह बीस लोग गम्भीर रूप से चोटिल हुए और निगमबोध घाट की तरफ भाग कर हम सबको तब अपनी जान बचानी पड़ी थी। दिल्ली पुलिस का आंदोलनकारियों पर वह दमन चक्र बहुत भयावह रूप ले चुका था,जिसकी तत्कालीन समाचार पत्रों में भी घोर निंदा की गई थी।

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कुमाऊं गढ़वाल के because मूलनिवासियों की इस चालीस साल पुरानी सांस्कृतिक संस्था ‘पर्वतीय सांस्कृतिक मंडल’ के बैनर तले उत्तराखंड राज्य के समर्थन में हमने अपने क्षेत्र की ओर से हस्ताक्षर अभियान चलाया और 25 हजार से भी अधिक हस्ताक्षर महामहिम राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री महोदय को सौंपे गए।

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कुमाऊं गढ़वाल के मूलनिवासियों की इस चालीस साल पुरानी सांस्कृतिक संस्था ‘पर्वतीय सांस्कृतिक मंडल’ के बैनर तले उत्तराखंड राज्य के समर्थन में हमने अपने क्षेत्र की ओर से हस्ताक्षर because अभियान चलाया और 25 हजार से भी अधिक हस्ताक्षर महामहिम राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री महोदय को सौंपे गए। उसका एक कारण यह भी था कि मिडिया का एक वर्ग और राष्ट्रीय पार्टियां इस आंदोलन को कुछ मुट्ठीभर लोगों का दिमागी फितूर बता रही थी। यहां वर्त्तमान में राज करने वाली राजनैतिक पार्टी भाजपा ही इस आंदोलन का तब मुखर विरोध कर रही थी और इसे देश को खंडित करने वाला आंदोलन बता रही थी।

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उस समय ज्यादा जरूरत यह थी कि उत्तराखण्ड आंदोलन के बारे में फैलाये जा रहे दुष्प्रचार का तार्किक शैली में जवाब दिया जाए। प्रिंट मीडिया में इस आंदोलन को लेकर तरह तरह के because भ्रम फैलाए जा रहे थे। दिल्ली में इस आंदोलन को वैचारिक दृष्टि से तर्कसंगत सिद्ध करने के लिए एक हाई लेबल कमेटी उत्तराखंड राज्य को राष्ट्रव्यापी आंदोलन बनाने की दिशा में कार्यरत थी जिसमें उत्तराखंड के लब्धप्रतिष्ठ बुद्धिजीवी, साहित्यकार, पत्रकार, समाजसेवी अपने अपने स्तर पर कार्य कर रहे थे। इस संदर्भ में उत्तराखंड के जाने माने साहित्यकार और दिल्ली प्रशासन में तत्कालीन भाषा सचिव तथा हिंदी अकादमी के सचिव डा. नारायण दत्त पालीवाल जी की अग्रणी भूमिका रही थी।

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डा. पालीवाल प्रायः but कहा करते थे कि उत्तराखंड राज्य के विरोधी जिस तरह से इस आंदोलन का राजनैतिक विरोध कर रहे हैं,निहित स्वार्थ वाले मुलायम सिंह जैसे नेता इस आंदोलन के प्रति जो दमनचक्र चला रहे हैं और मीडिया के कुछ पत्रकार उसे हवा दे रहे हैं…

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इस अवसर पर उनके द्वारा लिखी पुस्तिका “उत्तराखंड राज्य : दशा और दिशा” जैसे सारस्वत योगदान को उत्तराखंड राज्य के आंदोलन के इतिहास में कभी भुलाया नहीं जा सकता। because मेरी भी इस पुस्तिका के लेखन में डा. साहब के साथ  सहयोगात्मक भूमिका रही थी। डा. पालीवाल प्रायः कहा करते थे कि उत्तराखंड राज्य के विरोधी जिस तरह से इस आंदोलन का राजनैतिक विरोध कर रहे हैं,निहित स्वार्थ वाले मुलायम सिंह because जैसे नेता इस आंदोलन के प्रति जो दमनचक्र चला रहे हैं और मीडिया के कुछ पत्रकार उसे हवा दे रहे हैं, उसके लिए एक लिखित दस्तावेज द्वारा उत्तराखंड राज्य के विरुद्ध फैलाई जाने वाली भ्रांतियों का निराकरण करना बहुत जरूरी है ताकि देश के जनमत को उत्तराखंड राज्य की वास्तविक और जायज मांग से अवगत कराया जा सके।

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इसी संदर्भ में आयोजित एक बैठक में मेरे और वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र उपाध्याय तथा अन्य गण्यमान्य लोगों द्वारा किए गए अनुरोध पर डा. पालीवाल जी ने अपनी प्रभावशाली लेखनी से so उक्त पुस्तिका “उत्तराखंड राज्य : दशा और दिशा” की रचना की और सरकार एवं समस्त वैधानिक संस्थाओं को इस तथ्यपूर्ण पुस्तिका से अवगत कराया कि उत्तराखण्ड राज्य की मांग क्यों और कैसे जायज है? और यहां के मूलनिवासियों की भाषा संस्कृति और संविधानप्रदत्त अधिकारों का किस तरह उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा हनन किया जा रहा है? डा. पालीवाल ने इस पुस्तिका के माध्यम से उत्तराखण्ड राज्य की उन विरोधी शक्तियों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए लिखा कि-

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यह लड़ाई न because अलगाववाद की है न पृथकतावादी भावना की. यह आंदोलन उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति और वहाँ की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुकूल योजनाओं पर आधारित विकास न किए जाने के प्रति उत्तराखंड का आक्रोश है. इसके पीछे पहाड़ के संघर्ष,वहां के अभाव और आर्थिक पिछड़ेपन की पीड़ा है. यह जनआंदोलन शोषण से मुक्ति पाकर संसाधनों के समुचित उपयोग व विकास में भागीदारी के हक के लिए है.

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“यह लड़ाई न अलगाववाद की है न पृथकतावादी भावना की. यह आंदोलन उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति और वहाँ की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुकूल योजनाओं पर आधारित विकास न but किए जाने के प्रति उत्तराखंड का आक्रोश है. इसके पीछे पहाड़ के संघर्ष,वहां के अभाव और आर्थिक पिछड़ेपन की पीड़ा है। यह जनआंदोलन शोषण से मुक्ति पाकर संसाधनों के समुचित उपयोग व विकास में भागीदारी के हक के लिए है। आज समय आ गया है कि स्थिति की गम्भीरता को समझते हुए राज्य और केंद्र सरकार तुरंत उत्तराखंड राज्य की घोषणा करें. यदि सुलगते हुए उत्तराखंड की अनदेखी करते हुए दमनचक्र चलता रहा तो हिमालय की हवाएं पता नहीं क्या रुख ले लें। इन हवाओं को शांत करने का एकमात्र हल है-उत्तराखंड राज्य की स्थापना।” -डा. नारायण दत्त पालीवाल, “उत्तराखंड राज्य : दशा और दिशा” से उद्धृत.

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इस पुस्तिका को डा.पालीवाल ने उन क्रांतिकारी शहीदों को समर्पित किया जिन्होंने उत्तराखंड राज्य so आंदोलन के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। तथ्यों तथा वास्तविक आंकड़ों के आधार पर लिखी गई इस पुस्तिका की लाखों प्रतियां उत्तराखंड समेत समूचे देश में सचिन प्रकाशन के स्वामी अनिल पालीवाल द्वारा आंदोलन से जुड़े समस्त लोगों तक निःशुल्क पंहुचाई गई। राष्ट्रपति भवन हो या प्रधानमंत्री का कार्यालय, उत्तरप्रदेश सरकार हो या भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालय, देश के समस्त समाचारपत्र, दूरदर्शन आदि सभी संस्थाओं को एक दस्तावेज के रूप में इस पुस्तिका की प्रति भेजी गईं। इस कार्य में सचिन प्रकाशन के प्रकाशक श्री अनिल पालीवाल की सक्रियता और कर्तव्यनिष्ठा की सराहना करनी होगी कि उन्होंने उत्तराखंड राज्य आंदोलन के औचित्य की वास्तविकता को समस्त आंदोलनकारियों तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई।

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गौर तलब है कि जिन दिनों उत्तराखंड राज्य का आंदोलन चल रहा था तो उन दिनों दिल्ली को एक सांस्कृतिक सोच और भाषाई समझ देने और हिंदी, संस्कृत के साथ साथ कुमाउँनी एवं गढ़वाली भाषा because व संस्कृति को अपनी पहचान दिलाने में दिल्ली की तीन विभूतियों का महान योगदान रहता था,जिन्हें उत्तराखंड की त्रिमूर्ति के रूप में भी जाना जाता था।उन त्रिमूर्तियों के नाम हैं दिल्ली के तत्कालीन शिक्षामंत्री श्री कुलानंद भारती जी, हिंदी अकादमी के सचिव डा. नारायण दत्त पालीवाल जी और संस्कृत अकादमी के सचिव डा.श्रीकृष्ण सेमवाल जी।

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डा. पालीवाल जी तो इतने साहसी प्रकृति के उत्तराखंड राज्य के समर्थक थे कि उन्होंने दिल्ली के विभिन्न उत्तराखंड वासियों की कालोनियों में जा जा कर प्रवासीजनों को राज्य आंदोलन के लिए जागरूक किया और 2 अक्टूबर को उत्तराखंड राज्य के समर्थन so में जो जन सैलाब उमड़ कर आया, उसे वैचारिक और बौद्धिक धरातल पर एक वास्तविक जनआंदोलन का रूप देने में डा.पालीवाल जी की अहम भूमिका को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता है। मैं इस आंदोलन की रणनीति के संदर्भ में समर्पित भाव से इस त्रिमूर्ति के सदैव संपर्क में रहा और इस आंदोलन को वैचारिक दृष्टि से सफल बनाने के लिए मेरे द्वारा भी अपने क्षेत्र में अनेक गोष्ठियों का आयोजन किया गया,जिसमें उत्तराखंड राज्य की मांग का पुरजोर समर्थन किया गया।

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मैं आज डा.नारायण दत्त पालीवाल जी की यादगार पुस्तक “उत्तराखंड राज्य : दशा और दिशा” के कुछ निष्कर्षात्मक पृष्ठों को अपलोड करते हुए उत्तराखंड राज्य के स्थापना दिवस स्वरूप 18वीं जन्मजयंती का स्मरण और हार्दिक अभिवंदन करना चाहता हूं और दिल्ली में उत्तराखंड राज्य आंदोलन के रणनीतिकार but और प्रेरणापुरुष स्व.डा. नारायण दत पालीवाल जी को सादर नमन करता हूं। इसके साथ ही उत्तराखण्ड के शहीदों को भी हमारा शत शत नमन !! जिन्होंने इस आंदोलन को सशक्त और गांव गांव पहुंचाने के लिए अपने प्राणों की भी आहुति दे दी। हम उम्मीद करते हैं कि जिन संकल्पों से हमारे उत्तराखंड के आंदोलनकारियों ने पृथक राज्य के लिए संघर्ष किया वे शुभसंकल्प पूर्ण हों और हमारी देवभूमि उत्तराखंड आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न तथा खुशहाल बने।

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इन्हीं हार्दिक संवेदनाओं के साथ उत्तराखण्ड राज्य स्थापना दिवस 9 नवम्बर की सभी उत्तराखण्डवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं!! 

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्रपत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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