“मां के पदों में सुमन-सा रख दूं समर्पण शीश को”

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क्रातिकारी श्रीदेव सुमन की 77वीं पुण्यतिथि पर विशेष

डॉ. मोहन चंद तिवारी

अपनी जननी और जन्मभूमि के प्रति अपार श्रद्धा तथा बलिदान की भावना रखने वाले उत्तराखंड के स्वतंत्रता सेनानी, अमर शहीद श्री देव सुमन जी की आज पुण्यतिथि है. आज के ही दिन, 25 जुलाई,1944 को लगभग शाम के करीब चार बजे इस 28 वर्षीय अमर सेनानी नौजवान ने अपनी जन्मभूमि, अपने देश, अपने आदर्श की रक्षा के लिये अपने प्राणों की आहुति दे दी थी. श्री देव सुमन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वे अमर शहीद हैं जिन्होंने न केवल अंग्रेजों का विरोध किया बल्कि टिहरी गढ़वाल रियासत के राजा की प्रजा विरोधी नीतियों का विरोध करते हुए सत्याग्रह और अनशन करते हुए अपने प्राण त्याग दिए. श्री देव सुमन जी की पूरी राजनीति महात्मा गांधी के अहिंसा और सत्य के सिद्धांतों से प्रभावित थी.

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“मैं इस बात को स्वीकार so करता हूं कि मैं जहां अपने भारत देश के लिेए पूर्ण स्वाधीनता के ध्येय में विश्वास करता हूं और मैं चाहता हूं कि महराजा की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन जनता को प्राप्त हो, वहां मैंने काले कानूनों और कार्यों की अवश्य आलोचना की है और मैं इसे प्रजा का जन्मसिद्ध अधिकार समझता हूं.”

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उन्होंने टिहरी के राजा बोलंदा बद्रीनाथ से क्षेत्रवासियों के लिए पूरी आजादी की मांग की थी जिससे नाराज होकर राजा ने उन्हें विद्रोही घोषित कर दिया तथा पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. so जेल में उन्हें काफी प्रताड़ना दी गई. उन्हें इस तरह का खाना दिया जाता था जो खाने लायक नहीं होता था जिससे तंग आकर उन्होंने अनशन शुरू कर दिया. उन्होंने 209 दिनों के कैद की कठोर यातना सही और 84 दिन तक लगातार अनशन किया जिसके बाद 25 जुलाई 1944 को उनका शरीरान्त हो गया. क्रातिकारी देव सुमन जी की शहादत का जनता पर इतना प्रभाव पड़ा जिसके बाद राजशाही के खिलाफ खुला विद्रोह शुरु हो गया.

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राजा की क्रूरता का अनुमान इसी से so लगाया जा सकता है कि उनके शरीर का दाह संस्कार भी नहीं किया गया और ऐसे ही नदी में डाल दिया गया. श्री देव सुमन को अपने राज्य से इतना प्रेम था कि उन्होंने लिखा है-

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“मैं इस बात को स्वीकार करता हूं कि मैं जहां अपने भारत देश के लिेए पूर्ण स्वाधीनता के ध्येय में विश्वास करता हूं so और मैं चाहता हूं कि महराजा की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन जनता को प्राप्त हो, वहां मैंने काले कानूनों और कार्यों की अवश्य आलोचना की है और मैं इसे प्रजा का जन्मसिद्ध अधिकार समझता हूं.”

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श्रीदेव सुमन जी का जन्म टिहरी गढ़वाल जिले की बमुण्ड पट्टी के ग्राम जौल में 12 मई,1915 को हुआ था. इनके पिता का नाम श्री हरिराम बड़ोनी और माता जी का नाम श्रीमती तारा देवी था. so इनके पिता श्री हरिराम बडोनी जी अपने इलाके के लोकप्रिय वैद्य थे. 1919 में जब क्षेत्र में हैजे का प्रकोप हुआ तो उन्होंने अपनी परवाह किये बिना रोगियों की अथाह सेवा की, जिसके फलस्वरुप वे 36 वर्ष की अल्पायु में स्वयं भी हैजे के शिकार हो गये. लेकिन दृढ़निश्चयी साध्वी माता ने धैर्य के साथ बच्चों का उचित पालन-पोषण किया और श्री देव सुमन जी की शिक्षा-दीक्षा का उचित प्रबन्ध भी किया.

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अपने विद्यार्थी जीवन के प्रारम्भिक काल से ही श्रीदेव सुमन गांधी जी के देशभक्तिपूर्ण विचारों से बहुत प्रभावित थे. इनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गांव और चम्बाखाल में हुई और 1931 में टिहरी से हिन्दी मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की. अपने विद्यार्थी जीवन में 1930 में जब वह किसी काम से देहरादून गये थे तो सत्याग्रही जत्थों को देखकर वे so उनमें शामिल हो गये, इनको 14-15 दिन की जेल भी हुई. सन 1931 में ये देहरादून गये और वहां नेशनल हिन्दू स्कूल में अध्यापकी करने लगे और उसके बाद दिल्ली आ गये. पंजाब विश्वविद्यालय से इन्होंने ’रत्न’ ’भूषण’ और ’प्रभाकर’ परीक्षायें उत्तीर्ण की फिर हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ’विशारद’ और ’साहित्य रत्न’ की परीक्षायें भी उत्तीर्ण कीं.

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दिल्ली में उन्होंने कुछ मित्रों के सहयोग से देवनागरी महाविद्यालय की स्थापना की. और 1937 में “सुमन सौरभ” नाम से अपनी कवितायें भी प्रकाशित कराईं. श्री देव सुमन जी को so पत्रकारिता में विशेष रुचि थी और उन्होंने भाई परमानन्द के अखबार ’हिन्दू’ में कार्य किया, फिर ’धर्म राज्य’ पत्र में कार्य किया. वे वर्धा भी गये और राष्ट्र भाषा प्रचार कार्यालय में काम करने लगे. इसी दौरान श्री देव सुमन काका कालेलकर, श्री बा०वि० पराड़कर, लक्ष्मीधर बाजपेई आदि के सम्पर्क में आये. वहां से इलाहाबाद आकर ’राष्ट्र मत’ नामक समाचार पत्र में सहकारी सम्पादक के रुप में काम करने लगे.

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जनता की सक्रिय रूप से सेवा करने के उद्देश्य से 1937 में इन्होंने दिल्ली में ’गढ़देश -सेवा- संघ” की स्थापना की जो बाद में ’हिमालय सेवा संघ’ के नाम से विख्यात हुआ. 1938  में जब वह so गढ़वाल भ्रमण पर गये और जिला राजनैतिक सम्मेलन, श्रीनगर में सम्मिलित हुये तो इसी अवसर पर वे पूरी तरह से सार्वजनिक जीवन में आ गये और उन्होंने जवाहर लाल नेहरु जी को गढ़वाल राज्य की दुर्दशा से परिचित करया और यहीं उन्होंने गढ़वाल राज्य की एकता का नारा भी बुलन्द किया.

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23 जनवरी, 1939 को देहरादून में so टिहरी राज्य प्रजा मण्डल  की  स्थापना हुई, जिसमें देव सुमन संयोजक मन्त्री चुने गये.इसी माह में जब जवाहर लाल नेहरु की अध्यक्षता में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद  का लुधियाना अधिवेशन हुआ तो उन्होंने टिहरी और अन्य हिमालयी रियासतों की समस्या को राष्ट्रीय स्तर पर उठाया.

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‘हिमालय सेवा संघ’ के द्वारा उन्होंने हिमालय प्रांतीय देशी राज्य प्रजा परिषद  का गठन किया और उसके द्वारा so पर्वतीय राज्यों में जागृति और चेतना लाने का काम किया. इस बीच लैंसडाउन से प्रकाशित ’कर्मभूमि’ पत्रिका के सम्पादन मंडल में शामिल होकर उन्होंने कई क्रातिकारी विचारपूर्ण लेख लिखे.

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अगस्त 1942 में जब भारत छोड़ो आन्दोलन प्रारम्भ हुआ तो टिहरी आते समय इन्हें 29 अगस्त, 1942  को देवप्रयाग में ही गिरफ्तार कर लिया गया और 10 दिन मुनि की रेती जेल so में रखने के बाद 6 सितम्बर को देहरादून जेल भेज दिया गया. ढ़ाई महीने देहरादून जेल में रखने के बाद इन्हें आगरा सेन्ट्रल जेल भेज दिया गया, जहां ये 15 महीने नजरबन्द रखे गये. इस बीच टिहरी रियासत की जनता लगातार लामबंद होती रही और रियासत उनका उत्पीड़न करती रही. टिहरी रियासत के जुल्मों के संबंध में इस दौरान  जवाहर लाल नेहरु ने कहा था कि  ‘टिहरी राज्य के कैदखाने दुनिया भर में मशहूर रहेंगे, लेकिन इससे दुनिया में रियासत की कोई इज्जत नहीं बढ़ सकती.’

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19 नवम्बर, 1942 को देव सुमन आगरा so जेल से रिहा हुए और फिर  टिहरी की जनता के अधिकारों को लेकर अपनी आवाज बुलन्द करने लगे. इनके शब्द थे कि-

 “मैं अपने शरीर के कण-कण को नष्ट हो so जाने दूंगा लेकिन टिहरी के नागरिक अधिकारों को कुचलने नहीं दूंगा.”

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इस बीच इन्होंने दरबार और प्रजामण्डल के बीच सम्मानजनक समझौता कराने का संधि प्रस्ताव भी भेजा, लेकिन दरबारियों ने उसे खारिज कर दिया. 27 दिसम्बर, 1942  को इन्हें चम्बाखाल में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और 30 दिसम्बर को टिहरी जेल भिजवा दिया गया जहां पर उन्हें काफी प्रताड़ना दी गई. वहां उन्हें इस तरह so का खाना दिया जाता था जो खाने लायक नहीं होता था जिससे तंग आकर उन्होंने अनशन शुरू कर दिया. उन्होंने 84 दिन तक लगातार अनशन किया जिसके बाद 25 जुलाई 1944 को  इस क्रातिकारी अमर शहीद का शव ही बाहर आ सका. मैं इस लेख में दी गई तथ्यात्मक जानकारी हेतु ‘मेरापहाड.काम’ का विशेष आभारी हूं.

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अपनी जननी और जन्मभूमि so के प्रति ऐसी अपार श्रद्धा तथा बलिदान की भावना रखने वाले उत्तराखंड के इस महान् स्वतंत्रता सेनानी, अमर शहीद श्री देव सुमन जी को उनकी 77वीं पुण्यतिथि के अवसर पर शत शत नमन!

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(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, so 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)

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