गीता जयंती: सनातन धर्म का नवनीत है गीता

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गीता जयंती (3 दिसम्बर) पर विशेष

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

महाभारत की कथा के अनुसार गीता की उत्पत्ति कलियुग से 30 वर्ष पहले कुरुक्षेत्र की धर्मभूमि में भगवान् कृष्ण के श्रीमुख से हुई थी. कौरव और पांडवों के युद्ध के समय अपने स्वधर्म और कर्त्तव्य पथ से विमुख अर्जुन को कुरुक्षेत्र की रणभूमि में भगवान् कृष्ण ने जो ज्ञान दिया था उसे ही गीता का ज्ञान कहा जाता है. इसलिए गीता जंयती के अवसर पर गीता का कालजयी चिंतन सनातन हिन्दू धर्म में आस्था रखने वाले समस्त देशवासियों के लिए आज भी प्रासंगिक है.

गीता को हिंदू धर्म के अनुसार सबसे पवित्र ग्रंथ माना जाता है,जिसके 18 अध्यायों में से पहले 6 अध्यायों में कर्मयोग, मध्य के 6 अध्‍यायों में ज्ञानयोग और अंतिम 6 अध्‍यायों में भक्तियोग का उपदेश दिया गया है.

सनातन धर्म के नवनीत स्वरूप इस गीताग्रंथ के अठारह अध्यायों में जो संचित ज्ञान है,वह मनुष्यमात्र के लिए आज भी  उपयोगी है. गीताज्ञान के माध्यम से भगवान कृष्ण ने जहां एक ओर अर्जुन को गीता का ज्ञान देकर क्षत्रियोचित कर्म हेतु प्रेरित किया तो दूसरी ओर एक युगप्रवर्तक धर्म प्रवक्ता के रूप में धर्म के नाम पर पुरातन काल से चली आ रही अंधरूढ़ियों का निराकरण करते हुए धर्म संस्था के सहज, सरल और लोकोपयोगी स्वरूप की अवधारणा को भी सामने रखा. द्वापर युग में कंस के अत्याचार और आतंक से मुक्ति दिलाने तथा धर्म की पुनर्स्थापना के लिए ही विष्णु के आठवें अवतार के रूप में भगवान् कृष्ण ने जन्म लिया था. गीता में भगवान् कृष्ण का कथन है कि “जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है तो मैं धर्म की स्थापना के लिए हर युग में अवतार लेता हूं-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत.
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्.
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥” गीता‚ 4.7-8

गीता के परिप्रेक्ष्य में अवतार की अवधारणा यहां सज्जन के संरक्षण और दुर्जन के विनाश से जुड़ी है,तो वहीं आधुनिक संदर्भ में ‘धर्म’ से तात्पर्य समाज व्यवस्था को युगानुसारी मानवीय मूल्यों की दृष्टि से पुनर्स्थापित करना है. भारत में ‘धर्म’ शब्द मजहब या ‘रिलीजन’ का पर्यायवाची नहीं अपितु समूची समाज व्यवस्था का वाचक शब्द है,जिसमें राजनैतिक व्यवस्था भी सम्मिलित है. वैसे भी ‘हिन्दू धर्म’ किसी पन्थ विशेष या किसी व्यक्ति विशेष द्वारा प्रवर्तित धर्म नहीं बल्कि ऋषिप्रज्ञा से प्रेरित समग्र ब्रह्माण्ड का प्रकृतिनिष्ठ धर्म है. इसे ‘सनातन धर्म’ कहने का भी यही तात्पर्य है कि यह धर्म मनुष्य और प्रकृति,जड़ और चेतन, संसार और परमार्थ के मध्य सामंजस्य प्रस्तुत करते हुए मनुष्य को ऊपर उठाने का प्रयास करता है,सांसारिक अभ्युदय के साथ-साथ मोक्ष की ओर भी उन्मुख करता है. व्यक्ति सापेक्ष, काल सापेक्ष तथा देश.सापेक्ष धर्मों में जो समय समय पर विसंगतियां और मतभेद उत्पन्न होते हैं, गीता के कालजयी  ने उनका सदा विखण्डन किया है और धर्म को एक ऐसे सर्वसहमत तत्त्व के रूप में प्रस्तुत किया है जो सर्वथा अविरोधी है. महाभारत का कथन है कि वह धर्म ही नहीं जो किसी अन्य धर्म के विरुद्ध जाता हो या वैर भावना रखता हो –

धर्मो यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुधर्मतः.
अविरोधी तु यो धर्मः स धर्मो मुनिसत्तम ..”

गीता में कृष्ण इसी पुरातन सनातन धर्म, समाज व्यवस्था और राजनीति को पाखंड, आडम्बरों और अंध रूढ़ियों से मुक्त करने की बात कर रहे हैं. इतिहास साक्षी है कि प्रकृतिनिष्ठ मानवतावादी मूल्यों से युक्त वैदिक धर्म कालांतर में हिंसाप्रधान यज्ञों‚शुष्क कर्मकांडों तथा पौरोहित्यवाद की गिरफ्त में आ गया था और इस कारण वैदिक धर्म अपनी लोकप्रियता खोता जा रहा था. तब द्वापर युग के ऐसे ही संक्रमण काल में भगवान् कृष्ण का आविर्भाव हुआ और उन्होंने अहिंसामूलक सहज भागवत धर्म की नई चेतना जगाकर पुरातन वैदिक धर्म का कायाकल्प करते हुए उसकी पुनर्स्थापना की. कृष्ण ने वैदिक धर्म के तटस्थ मूल्यों के साथ छेड़छाड़ किए बिना अंधरूढ़ियों की खर पतवार को काट-छांट कर धर्म को एक ऐसे नवनीत के रूप में प्रस्तुत किया जिसके कारण वह ज्यादा से ज्यादा लोकप्रिय हो सका.

मानव मूल्यों की अपेक्षा से भारत के संदर्भ में गीता आज भी प्रासंगिक है. गीता कभी पुरानी नहीं होती बल्कि टीका टिप्पणियों, व्याख्या, प्रवचनों से यह सदा नवीन ही बनी रहती है. धर्म, राजनीति और समाज का कोई ऐसा पक्ष नहीं और कोई ऐसा पल नहीं जो गीताज्ञान की अपेक्षा नहीं रखता. इसलिए गीता हर समय प्रत्येक पल और प्रत्येक परिस्थिति में हमारा मार्गदर्शन करती है. गीता के बारे में एक सूक्ति प्रचलित है-

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैःशास्त्रविस्तरै:.
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता..”

अर्थात् गीता को सुगीता किया जाना चाहिए. गीता को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भाव सहित उस पर विचार विमर्श द्वारा ही हम गीता को ‘सुगीता’ बना सकते हैं. क्योंकि गीता स्वयं पद्मनाभ भगवान् विष्णु के मुखारविंद से निकली हुई वाणी है.

अपने कर्त्तव्य से विमुख अर्जुन को भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता के अठारह अध्यायों में जो ज्ञान दिया है वह ज्ञान आज भी मनुष्यमात्र के लिए बहुत कल्याणकारी उपयोगी ज्ञान है और संकटकालीन परिस्थितियों में भी मनुष्य का मार्गदर्शन करता है. धर्मसंकट जैसे कठिन दौर में भी एकमात्र सहायक मित्र, गुरु या शुभचिंतक कोई है तो वह गीता का ज्ञान ही है.

गीता का कालजयी चिंतन मनुष्य को सदैव निर्भीक हो कर अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध लड़ने की नई ऊर्जा प्रदान करती है. गीता हर युग में धृतराष्ट्रों और दुर्योधनों को सबक सिखाती हुई व्यक्ति तथा राष्ट्र को अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा भी देती आई है.

मगर विडम्बना यह है कि आज हमारे पास कोई कृष्ण जैसा धर्मगुरु नहीं, जो सत्ता के मोहजाल से जकड़े धृतराष्ट्रों, दुर्योधनों और अर्जुनों को स्व-राजधर्म निभाने का गीता ज्ञान सुना सके. पर हम इस दृष्टि से  सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास आज भी राष्ट्ररक्षा की कवच स्वरूप गीता का ज्ञान है.

दरअसल,गीता का परम लक्ष्य है मानवमात्र का कल्याण करना और उसे एक पंचभौतिक शरीर से भिन्न अजर अमर आत्मा की अनुभूति कराना. भगवद्गीता अपने दिव्य ज्ञान द्वारा मनुष्य के तमाम भ्रम-भेदों,आन्तरिक क्लेशों और मानसिक तनावों को मिटाकर एक सरल और सहज मार्ग से उसका पथ-प्रदर्शन करती है,उसे स्वधर्म का पाठ पढ़ाकर एक अच्छा नेता, शिक्षक,पत्रकार,व्यवसायी और नागरिक बनाती है. गीता के वचनामृत का आचमन करने मात्र से मनुष्य की निराशा, हताशा आशा में बदल जाती है और इसकी शिक्षाओं पर आचरण करने से उसे भोग व मोक्ष दोनों की ही एक साथ प्राप्ति होती है.समता,सरलता,स्नेह,शांति आदि सात्त्विक गुणों को विकसित कर अधर्म और अन्याय से संघर्ष करने का सामर्थ्य देने वाला भगवद्गीता का कालजयी चिंतन प्रत्येक युग में प्रासंगिक है.

आइए! आज गीता जयंती के पावन अवसर पर गीताज्ञान की पावन गंगा से अपने मन मस्तिष्क में बसे अज्ञान के मालिन्य का प्रक्षालन करें, उसे निर्मल बनाएं. हम सभी इस गीता के सार को अपने आचरण में उतार कर अपने जीवन को सफल बना सकते हैं और गीता के कालजयी चिंतन से अपने राष्ट्र को एक नई पराक्रमशाली ऊर्जा से जोड़ सकते हैं.

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