151वीं गांधी जयंती पर विशेष
- प्रो. गिरीश्वर मिश्र
आज पूरे संसार में एक विकट
वैश्विक आपदा के चलते उदयोग और व्यवसाय की दुनिया के सारे कारोबार और समीकरण अस्त-व्यस्त होते जा रहे हैं. विकसित हों या अविकसित सभी तरह के देशों अर्थ व्यवस्था चरमरा रही है और उनकी रफ़्तार ढीली पड़ती जा रही है. ऐसे में यह प्रश्न सहज में उठता है कि आधुनिकता की परियोजना के तहत विश्वास जतलाते हुए प्रगति और विकास की जो राह चुनी गई थी वह किस सीमा तक सही थी या कि उसकी राह पर आगे भी चले चलना कितना ठीक होगा. बड़े पैमाने पर थोक भाव से उत्पादन और स्वचालित यंत्रों की सहायता से मानव श्रम के मूल्य का पुनर्निर्धारण हुआ और सामाजिक ताने बाने की तस्बीर ही बदलती गई .आज
वैश्विक आर्थिक संस्थाओं के तंत्र
जाल ने विकास का एक ढांचा, एक मान दंड तय किया और उसी के इर्द-गिर्द और कमोबेश उसी के अनुरूप आगे बढ़ते रहने के लक्ष्य तय किए गए और भौतिक जगत को विकास की परिधि मानते हुए उसी को पाने की दौड़ में सबको शामिल किया गया. उसकी सीमाओं को देखते हुए अब यह तब्दीली जरूर हुई है कि अब उसमें ‘टिकाऊ’ ( सस्टेनेबिल ) विशेषण भी जोड़ दिया गया है. ये सत्रह लक्ष्य सबके अच्छे और अधिक टिकाऊ विकास के लिए प्रस्तावित किए गए हैं. ये संयुक्त राष्ट्र संघ के 2030 के एजेंडा के अंतर्गत प्रस्तुत हुए हैं. उसकी साधारण सभा में जुलाई 2017 में इन पर मुहर लगाई थी.गरीबी
इनके अंतर्गत गरीबी उन्मूलन, भूख का उन्मूलन, अच्छा स्वास्थ्य और खुशहाली, गुनावातापूर्ण शिक्षा, शुद्ध जल और स्वच्छता, कम दाम पर शुद्ध ऊर्जा, अच्छा कार्य और आर्थिक बृद्धि,
उद्योग, नवाचार और आधार संरचना, असमानता में कमी, त्काऊ शहर और समुदाय , जिम्मेदार उपभोग और उत्पादन, जलवायु विषयक कारवाई, जल जीवन, धरती पर जीवन, श्हंती, न्याय, तथा सुदृढ़ संस्ताएं तथा लक्ष्यों के लिए प्रतिभागिता. इन सबके लिए 167 लक्ष्य तय किए गए हैं. उनके ज्ञापक भी पहचाने गए हैं ताकि प्रगति को मापा जा सके. कुछ लक्ष्य परिणाम हैं तो कुछ परिणामों तक पहुँचाने के लिए उपाय. वर्त्तमान महामारी ने सारी दुनिया में पीड़ा और दुःख में बढ़ोत्तरी की है और शिक्षा , स्वास्थ्य और जीवन स्तर में गिरावट स्वाभाविक है.उन्मूलन
महामारी ने चुनौतियों को बढ़ा दिया है जिनका असर आने वाले वर्षों में भी दिखेगा. अनुमान है की आधे बिलियन की जन संख्या गरीबी की रेखा के नीचे चली जायगी. शायद विकास की प्रक्रिया में
क्रांतिकारी बदलाव की जरूरत होगी. वैशिक स्टार पर छः में से एक आदमी ने नौकरी खोई है. यूनेस्को के अनुसार विकासशील देहों में 86 प्रतिशत प्राइमरी स्कूल के बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं. डिजिटल डिवाइड का असर है.सामाजिक संस्थाएं भी कमजोर हुई हैं. बनों का विनाश, वन्य पशुओं का व्यापार, रोग आदि का प्रभाव बढ़ा है. हरित अर्थ व्यवस्था और मनुष्य तथा इस धरती के बीच संतुलन आवश्यक है. प्रशासन में अनिश्चय से उबरना, सामाजिक सुरक्षा, आदि प्रमुख सवाल हैं.आज
आज सारी दुनिया महामारी से जूझ
रही है. सामान्य अवस्था की और वापसी संभव नहीं है. जिस तरह की जीवन शैली हमने अपनाई थी उसी के चलते हम आज वहां पहुंचे हैं जहां हैं. कोविड महामारी ने हमें उन मूल्यों की परीक्षा के लिए बाध्य कर दिया है जिनको लेकर हम चल रहे थे. आथिक, सामाजिक और पर्यावरणीय कारकों के बारे में पुनर्विचार जरूरी हो गया है.सारी
महात्मा गांधी का आर्थिक चिंतन मूलत: उनके मानव स्वभाव विषयक चिंतन का ही हिस्सा है. इस तरह सत्य और अहिंसा उनके विचारों की आधारभूमि है. उनके लिए जीवन अखंड है और आर्थिक,
राजनैतिक और सामाजिक पक्ष परस्पर सम्बंधित हैं. गांधी जी के विचारों को लेकर कई विचारकों ने एक प्रकार के गांधीवादी अर्थशास्त्र के बारे में भी प्रस्ताव किया है. इनके लिए गांधी जी द्वारा पूंजीवाद की आलोचना , स्वामित्व के प्रति उनके विचार और तकनीक के बारे में उनकी सोच को आधार बनाया गया है. इनमें मुख्य रूप से स्वदेशी , अस्तेय अपरिग्रह , शरीर श्रम, ट्रस्टीशिप , समानता, अहिंसा को सम्मिलित किया जाता है. वस्तुत: गांधी जी के लिए अर्थ व्यवस्था का महत्त्व भी सामाजिक मूल्यों की स्थापना के प्रयोजन को सिद्ध करने में प्रमाणित होता है. ऐसा करते हुए वह सभी के हित साधने के लिए उपयोगी हो जाती है.दुनिया
पूंजीवाद प्रकट रूप में लोभ,
शोषण और हिंसा से जुड़ा था और उसमें हिंसा भी हो रही थी. ‘हिन्द स्वराज’ में मुखर रूप से गांधी जी अंधाधुंध मशीनीकरण, नौकरशाही और केन्द्रीकरण का विरोध कर रहे थे जिसमें व्यक्ति लुप्त होता जाता है. उनकी सोच में मानव श्रम की सबके लिए महत्त्वपूर्ण उपस्थिति थी और वह समानता और नैतिकता के लिए आधार देती थी. उनका स्पष्ट मत था कि शोषण , दमन और सामाजिक वर्ग विभाजन के लिए शरीर श्रम के प्रति दृष्टिकोण ही महत्वपूर्ण है.पूंजीवाद
मात्र भौतिक संतुष्टि से मानव कल्याण संभव नहीं है क्योंकि उपभोग करने वाले की संतुष्टि कभी पूरी नहीं होगी और इससे प्रतिस्पर्धा , हिंसा और बेईमानी ही बढ़ेगी. बाजार और यदि वह अनियंत्रित हो जाय तो स्थिति और खराब होगी. गांधी जी कहते हैं कि ‘ वह अर्थ शास्त्र अनैतिक और इसलिए पाप युक्त है जो किसी व्यक्ति या राष्ट्र के नैतिक कल्याण
को क्षतिग्रस्त करता है.‘उनके विचार में सामाजिक न्याय और सबसे कमजोर आदमी को समेटते हुए सबकी भलाई की व्यवस्था होनी चाहिए. गांधी जी नैतिकता से कहीं भी किसी तरह का समझौता नहीं करना चाहते. उनके लिए नैतिक विकास और भौतिक विकास में कोई भेद या विरोध नहीं है क्योंकि मनुष्य वस्तु (मात्र) नहीं है . साथ ही वंचितों के कल्याण को सामाजिक न्याय से जोड़ते हुए गांधी जी नैतिकता की चिंता को और भी प्रखर रूप देते हैं.बाजार
उपभोक्ता को वस्तु मान लेने पर उपभोग के परिणाम की ओर से मुह मोड़ लिया जाता है और उपभोग वृत्ति को बढाने की कोशिश की जाती है. आज विज्ञापनों द्वारा कृत्रिम आवश्यकताएं पैदा करा कर भोग वृत्ति को बढ़ाया जाता है ताकि नफ़ा कमाया जा सके. गौर तलब है की मनुष्य को उपभोक्ता मात्र बनाते हुए प्राकृतिक संसाधनों
और और पारिस्थतिकी पर भी खतरा बढ़ रहा है. यहीं अपरिग्रह भी प्रासंगिक हो उठता है. गांधी जी तो एक कदम आगे बढ़ कर अपरिग्रह को अस्तेय से जोड़ देते हैं. उनके हिसाब से ‘यदि हमारे पास कोई ऎसी वस्तु है जिसकी हमें आवश्यकता नहीं है तो भले ही वह मूलत: चुराई गई न हो , पर चोरी की संपत्ति की श्रेणी में ही गिनी जायगी.समानता
वे कहते हैं की जो चीजें लाखों लोगों कोंउपलब्ध नहीं हैं उसका भोग करने से हम दृढ़ता से मना कर दें. इस तरह की मनोवृत्ति विकसित कर के हमें उसके अनुसार जीवन क्रम में बदलाव लाना होगा.
यहाँ पर यह याद रखना चाहिए की गांधी जी रोटी, कपड़ा , मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के बाद अपरिग्रह की बात करते हैं. इनकी पूर्ति करते हुए कृत्रिम मांगों से खुद को अलग करना चाहिए. इस तरह वे स्वेच्छा से त्याग की बात करते हैं. वे जीने के लिए खाने के पक्ष में हैं न कि खाने के लिए जीने के पक्ष में. श्रम से अर्जित फल का आनंद ही श्रेष्ठ है. तब यह पता चल जायगा की भोग की श्रेणी में कितनी व्यर्थ की चीजें भी हम सम्मिलित कर रखे हैं.आर्थिक
गांधी जी आर्थिक समानता चाहते थे
जिसमें बराबर धन रखने की बात नहीं थी बल्कि हर एक व्यक्ति के पास उसकी जरूरत के अनुसार धन होना चाहिए. अर्थ व्यवस्था में उत्पादक के रूप में सबकी सामान भागीदारी होनी चाहिए.गांधी
उपर्युक्त पृष्ठभूमि में गांधी जी उत्पादन की प्रक्रिया पर विचार करते हुए बड़ी मशीनों का विरोध करते हैं क्योंकि उससे मानव श्रम विस्थापित होता है और इसकी कोई सीमा नहीं है. आज जिस शेष तरह डिजिटल युग में सारी प्रक्रियाए बदल रही हैं और रोबोट मनुष्य की जगह ले रहे हैं स्थितियां चिंताजनक हो रही हैं. मशीन के माध्यम से मनुष्य
का मशीनीकरण जारी है. अंतत: धन का लोभ ही मशीनों के प्रति हमारे आकर्षण का कारण है. मानवीय मूल्यों की गरिमा गांधी जी के लिए सर्वोपरि थी. इसी को ध्यान में रख कर ही प्रौद्योगिकी और नवाचार होने चाहिए. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि अधिकांश वैज्ञानिक और तकनीकी आविष्कारों का फायदा बड़े घराने उठाते हैं और कई गुना लाभ उठाते हैं.गांधी
चरखा और खादी
इस दृष्टि से एक बड़ा और व्यापक प्रयोग था जो स्वदेशी और विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियों को रेखांकित करता था. भारत की ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को सुदृढ़ करना इसका प्रमुख उद्देश्य था. जब उत्पादन और उपभोग दोनों को स्थानीयकृत कर दिया गया तो उत्पादन में लोभ पर नियंत्रण स्थापित होता है.
गांधी
महात्मा गांधी जी तकनीक और नवाचार का स्वागत करे थे परन्तु मानवीय दृष्टि से उनकी उपयोगिता पर सदैव ध्यान देते थे. बहुत बड़ी और शक्तिशाली प्रौद्योगिकी स्वयं इतनी प्रबल होती है कि शेष चीजें उसी पर निर्भर करने लगती हैं. आज परमाणु अस्त्र शस्त्र जिस तरह से हाबी हो रहे हैं और मनुष्य और प्रकृति दोनों का संतुलन बिगाड़ रहे हैं
यह किसी से छिपा नहीं है. साध्य और साधन में निकटता है और साधन की पवित्रता और औचित्य भी महत्वपूर्ण होता है. अहिंसक और न्यायपूर्ण प्रौद्योगिकी पर ही अहिंसक और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण संभव है. आज की अर्थ व्यवस्ठा में रोजगारहीन विकास हो रहा है. स्वदेशी और शरीर श्रम के मूल्य को सामने लाते हुए गांधी जी व्यापक समाज के हित की सोच रहे थे. स्वदेशी का आशय था कि स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति स्थानीय प्रौद्योगिकी और संसाधनों द्वारा होनी चाहिए.गांधी
चरखा और खादी इस दृष्टि से एक बड़ा और व्यापक
प्रयोग था जो स्वदेशी और विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियों को रेखांकित करता था. भारत की ग्रामीण अर्थ व्यवस्था को सुदृढ़ करना इसका प्रमुख उद्देश्य था. जब उत्पादन और उपभोग दोनों को स्थानीयकृत कर दिया गया तो उत्पादन में लोभ पर नियंत्रण स्थापित होता है.सोच
वस्तुत: महात्मा गांधी परिसीमित और सामाजिक रूप से नियमित औद्योगिकीकरण चाहते थे जो असीमित न हो. ऐसे में जन भागीदारी भी हो सकेगी और निजी स्वतंत्रता के साथ सामाजिक दायित्व की भी जगह
थी. उनकी सोच जनता द्वारा व्यापक पैमाने पर उत्पादन में भागीदारी थी ताकि रोजगार मिल सके. इस अर्थ में बड़ी प्रौद्योगिकी पर आधृत बड़े उद्योग मनुष्यता के शत्रु सरीखे हैं. पूंजीवादी व्यवस्था मनुष्यहीन यांत्रिकता की और ले जाती है जिसमें उत्पादन, वितरण , कीमत तय करने आदि में मनुष्य का कोई ख्याल नहीं रखा जाता है. सृजनात्मकता और सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से भी मशीन का उपयोग विनाशकारी सिद्ध होगा.ट्रस्टीशिप परोपकार और स्वहित
दोनों को अवसर देता है. गांधी जी यज्ञ के विचार, गीता के अनासक्ति योग और ईशावास्योपनिषद में प्रस्तुत ईश्वर की सर्वमयता की अवधारणा से अपना पक्ष विकसित करते हैं. गांधी जी सामाजिक न्याय के लिए भी न्यासिता को महत्वपूर्ण मानते हैं. उनका विचार था की हर व्यक्ति समाज के संसाधनों की बदौलत ही सब कुछ प्राप्त करता है.
उनकी आर्थिक सोच का एक प्रमुख पक्ष स्वामित्व के सवाल से भी टकराता है. वह पूंजीपति लोगों को न्यासी या ट्रस्टी बनाने का प्रस्ताव रखते हैं क्योंकि वे स्वामित्व पूरे समाज का मानते
हैं. इस तरह गांधी जी श्रम और पूंजी के बीच सहयोग और पारस्परिकता का मार्ग ढूँढ़ते हैं. इसके पीछे गांधी जी की यह सोच थी कि जब तक सामाजिक , आर्थिक और राजनैतिक जीवन से हिंसा को समूल नष्ट नहीं किया जायगा तक हिंसा बनी रहेगी और स्वामित्व हिंसा का एक बड़ा कारण है. स्वामित्व व्यक्ति और प्रकृति पर विशेषाधिकार प्रदान करता है और सारे नियमों को अतिक्रांत करता है. ऐसे में शोषण, स्वार्थ और परिग्रह (कब्जा करना) की ही प्रबलता रहेगी . उत्पादन का स्वरूप सामाजिक आवश्यकता के द्वारा निर्धारित होगा.अहिंसा
ट्रस्टीशिप परोपकार और स्वहित दोनों को अवसर देता है. गांधी जी यज्ञ के विचार, गीता के अनासक्ति योग और ईशावास्योपनिषद में प्रस्तुत ईश्वर की सर्वमयता की अवधारणा से अपना पक्ष विकसित
करते हैं. गांधी जी सामाजिक न्याय के लिए भी न्यासिता को महत्वपूर्ण मानते हैं. उनका विचार था की हर व्यक्ति समाज के संसाधनों की बदौलत ही सब कुछ प्राप्त करता है. दूसरी और उससे मिलने वाले लाभ को व्यक्तिगत बना डालता है. वैयक्तिक स्वामित्व की अवधारणा हिंसा ही पैदा करती है. सामाजिक रूप से पूंजी निर्माण और उस पर सामाजिक नियंत्रण एक महत्वपूर्ण संकल्पना थी. वे पूंजीपतियों के ह्रदय परिवर्तन की संभावना भी देख रहे थे जिससे समाज में नैतिक उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त होगा.और
पूंजी पतियों में परिवर्तन न होने की स्थिति में श्रमिकों द्वारा असहयोग, सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह का रास्ता अपनाया जा सकेगा. यहाँ यह याद रखने की बात है की श्रम भी पूंजी है इसलिए श्रमिक
भी न्यासी हो जाता है. उसका न्यासित्व उसके अधिकार और कर्तव्यों की पूर्ति द्वारा पूरा होता है. न्यासिता के सिद्धांत का प्रयोग अरविंद मफत लाल, बजाज इलेक्ट्रीकल्स तथा भीलवाड़ा फेब्रिक्स आदि में किया भी गया है. इसके अच्छे परिणाम भी मिले हैं . तथापि अनेक अर्थशास्त्रियों ने इसे भ्रमात्मक और यथास्थितिवादी , पूंजीवादी और बुर्जुआ वर्ग का पक्षधर भी कहा गया है.सत्य
वस्तुतः सत्य और अहिंसा के आधार पर टिके न्यासिता
के विचार पूंजीवादी और मार्क्सवादी दोनों ही विचारधाराओं से अलग है और मनुष्य जीवन के व्यापक आयाम में स्थापित है., सत्ता और उस पर एकाधिकार को यह चुनौती देता है. श्रम , पूंजी और समाज के अंतर्संबंधों पर नैतिक दृष्टि से विचार करते हे गांधी जी एक व्यावहारिक आदर्शवादी चिन्तक के रूप में उपस्थित होते हैं. वे समाज को एक जीवंत इकाई के रूप में ग्रहण करते हैं . सर्वत्र ईश्वर की उपस्थति मानते हुए वे मनुष्य और मानवेतर जगत के लिए सामान अधिकार की बात करते हैं. वे पर्यावरण के अनुकूल जीवन शैली अपनाने पर बल देते रहे.वर्तमान जीवन का सबसे तीव्र अनुभव तकनालजी से आ रहा है जो देश और काल की सीमाओं को ढहाती जा रही थी और सामर्थ्य के अहंकार को पुष्ट कर रही है. बाहरी दुनिया की हलचल
को क्षण-क्षण पहुंचाती मीडिया घर-घर के सूचना और संचार के दबाव पैदा कर रही है . इन सूचनाओं में उपयोग, अनुपयोगी और दुरुपयोगी हर तरह की सूचना रहती है . इनकी प्रस्तुति का बाजार में बिकाऊ माल की तर्ज पर परोसा जाता है. विज्ञापन, प्रचार, और मनोरंजन के बीच सार्थक संवाद की गुंजाइश घटती जा रही है. ये सभी इतने रंग बिरंगे और भावनाओं के साथ प्रभावी ढंग से जुड़े होते हैं कि दर्शक का मन मोह लेते हैं. भौतिक प्रगति के नाम पर इतना कुछ इतनी तेजी से घटित हो रहा है कि बदलते दृश्य से हर कोई चमत्कृत हुए बिना नहीं रहता.यात्रा
इस यात्रा का कारवां इस कदर तेजी से
आगे बढता जा रहा है कि उसके ओर-छोर का कुछ पता ही नहीं रहता . परिवर्तन इस दुनिया का स्थायी भाव हो रहा है . रुक कर या कुछ ठहर कर सोचने-समझने की फुर्सत ही नहीं मिलती है. पल-पल बदलते वस्तु जगत में चीजें लगातार बासी होती जाती हैं और हम नित्य नए की तलाश में भटकते रह्ते हैं.सब
यह सब करते हुए हम वस्तुओं वाली हमसे जुदा पर वास्तविक सी लगने वाली दुनिया में इस तरह खो जाते हैं कि उसके अस्थायित्व का अहसास खत्म हो जाता है. हम खुद को भी उन्ही वस्तुओं में गिनने लगते हैं , उन्हीं वस्तुओं की पहचान के सहारे अपनी भी पहचान बनाने लगते हैं. बाहर की ओर हम इतने उन्मुख हो जाते हैं कि हम अपने स्वरूप और जीवन की वास्तविकता जो संभावनाओं से भरी होती है उसकी कल्पना करने से भी कतराते हैं.
अपनी
अपनी यानी अपने आत्म की अनुभूति ही विलुप्त होने लगती है. इसकी जगह जो बाहर की दुनिया है यानी दृश्य है उसे ही हम सर्वस्व मान बैठते हैं. जैसा विचार बनता है वैसा ही संसार दिखता है.
इस अर्थ में दृष्टि और सृष्टि के बीच साम्य खड़ा हो जाता है. पर आज की भौतिकतावादी जिंदगी में द्रष्टा यानी देखने वाला दृश्य में ही समाता जाता है, वह उसी के साथ एकाकार हो जाता है. द्रष्टा और दृश्य का संयोग बहुत सारी मुश्किलों को पैदा करता है. योग की शब्दावली में इस स्थिति को योग शास्त्र में ‘अस्मिता’ नामक क्लेश के रूप में पहचाना गया है. वैसे दोनों ही भिन्न प्रकार की चीजें हैं. द्रष्टा ( पुरुष ) चेतन है और दृश्य (प्रकृति) जड़ है.अपनी
परंतु अविद्या के कारण दोनों का संयोग होता है जो हर तरह से हानिकारक होता है.
अविद्या को सबसे बड़ा क्लेश माना गया है. अविद्या का मतलब है अस्थायी और नष्ट होने वाले ( अनित्य) को स्थायी और नित्य मान बैठना. जो अनित्य है, अपवित्र है, दुख स्वरूप है, अनात्म है उसमें उसके स्वभाव के विपरीत नित्य , पवित्र , सुख और आत्मभाव अनुभव करना ही अविद्या है. आज बाहर की दुनिया की चकाचौध से भरी कृत्रिम जिंदगी में अपने को जोड़ने की प्रवृत्ति अनर्गल महत्वाकांक्षाओं को जन्म देती रहती है जिनके पीछे आदमी निरन्तर भागता जा रहा है.अशांत /h3>
अशांत होती जिंदगी में ऐसी स्थिति में योग और ध्यान ही सहायक हैं जो अपने वास्तविक स्वरूप तक की अंतर्यात्रा संभव कर सकते हैं. उसी से अपने और अपने से जुड़ने वाली तमाम चीजों (उपाधियों) के बीच भेद करना आ सकेगा. इस विवेक के आने पर ही भ्रम दूर होगा और अपना वास्तविक स्वरूप समझ में आ सकेगा. तभी शांति मिलेगी और सुख भी.
बाहर की दुनिया में उलझने से लोभ, मोह, क्रोध और भय जैसी भावनाएं ही पैदा होती हैं और नकारात्मकता बढती जाती है. क्रोध का जन्म तब होता है जब पहले यानी अतीत की इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती है. फिर जब वस्तुओं को देखते हैं उनके साथ संग होता है तो इच्छा का अंकुर फूटता है , वह इच्छा हमारी अपनी सत्ता से जुड़ जाती है और इच्छा की पूर्ति न होना अस्तित्व के संकट का प्रश्न हो जाता है.अपनी
ऐसे में मन में बड़ी उथल-पुथल मचती है. बढती प्रतिस्पर्धा के दौर में अकेलापन बढने लगता है. ऐसे में भरोसा और सहयोग न मिलने पर निराशा बढने लगती है. विचलित होता आदमी अपने रास्ते में व्यवधान के आने से जो मन खिन्न होता है तो उसकी अभिव्यक्ति आक्रोश के रूप में होती है जो यदि बाहर की दुनिया में नहीं व्यक्त हो पाता है तो स्वयं अपनी ओर मुड़ जाती है जिसकी परिणति आत्म हत्या तक का रूप ले लेती है. चेतना की यह विकृति व्यक्ति समाज और पर्यावरण सभी को आघात पहुंचा रही है.
किया
कोरोना की महामारी ने जहां सबके जीवन को त्रस्त किया है वहीं उसने हमारे जीवन के यथार्थ के ऊपर छाए भ्रम भी दूर किए हैं जिनको लेकर हम सभी बड़े आश्वस्त हो रहे थे. विज्ञान और प्रौद्यौगिकी के सहारे हमने प्रकृति पर विजय का अभियान चलाया और यह भुला दिया कि मनुष्य और प्रकृति के बीच परस्पर निर्भरता और पूरकता का सम्बन्ध है. परिणाम यह हुआ कि हमारी जीवन पद्धति प्रकृति के अनुकूल नहीं रही और हमने प्रकृति को साधन मान कर उसका अधिकाधिक उपयोग करना शुरू कर दिया. फल यह हुआ कि जल, जमीन और जंगल के प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण शुरू हुआ, उनके प्रदूषण का आरम्भ हुआ. धीरे-धीरे अन्न, फल, दूध, पानी और सब्जी आदि सभी प्रकार के सामान्यत: उपलब्ध आहार में स्थाई रूप से विष का प्रवेश पक्का हो गया.
पक्का
गांधी जी के ‘ग्राम स्वराज’ का विचार भुला कर औद्योगिकीकरण और शहरीकरण को ही विकास का अकेला मार्ग चुनते हुए हमने गावों और खेती किसानी की उपेक्षा शुरू कर दी.
गाँव उजड़ने लगे और वहाँ से युवा वर्ग का पलायन शुरू हुआ. शहरों में उनकी खपत मजदूर के रूप में हुई. श्रमजीवी के श्रम का मूल्य कम आंके जाने के कारण मजदूरों की जीवन- दशा दयनीय बनती रही और उसका लाभ उद्योगपतियों को मिलता रहा.
दूसरी
दूसरी ओर विषमुक्त या “आर्गनिकली”
उत्पादित आहार ( यानी प्राकृतिक या गैर मिलावटी!) मंहगा और विलासिता का विषय हो गया. इन सबका स्वाभाविक परिणाम हुआ कि शरीर की जीवनी शक्ति और प्रतिरक्षा तंत्र दुर्बल होता गया.गांधी
सामाजिक स्तर पर भी देश की यात्रा विषमता से भरी रही. गांधी जी के ‘ग्राम स्वराज’ का विचार भुला कर औद्योगिकीकरण और शहरीकरण को ही विकास का अकेला मार्ग चुनते हुए हमने गावों और खेती किसानी की उपेक्षा शुरू कर दी. गाँव उजड़ने लगे और वहाँ से युवा वर्ग का पलायन शुरू हुआ. शहरों में उनकी खपत मजदूर के रूप में हुई.
श्रमजीवी के श्रम का मूल्य कम आंके जाने के कारण मजदूरों की जीवन- दशा दयनीय बनती रही और उसका लाभ उद्योगपतियों को मिलता रहा. वे मलिन बस्तियों में जीवन यापन करने के लिए बाध्य रहे. इस असामान्यता को भी हमने विकास की अनिवार्य कीमत मान लिया. बाजार तंत्र के हाबी होने और उपभोग करने की बढती प्रवृत्ति ने नगरों की व्यवस्था को भी असंतुलित किया.महामारी
करोना की महामारी ने यह महसूस करा दिया कि वैश्विक आपदा के साथ मुकाबला करने के लिये स्थानीय तैयारी आवश्यक है. विचार, व्यवहार और मानसिकता में अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को पुन: स्थापित करना पड़ेगा. प्रधानमंत्री जी ने स्थानीय के महत्व को रेखांकित किया है और आत्म निर्भर बनने के लिए आह्वान किया है.
आशा है ग्राम स्वराज के स्वप्न को आकार देने का प्रयास नीति और उसके क्रियान्वयन में स्थान पा सकेगा.
उदारीकरण और निजीकरण के साथ
वैश्वीकरण ने विदेशीकरण को भी बढाया और विचार , फैशन तथा तकनीकी आदि के क्षेत्रों में विदेश की ओर ही उन्मुख बनते गए. हमारी शिक्षा प्रणाली भी पाश्चात्य देशों पर ही टिकी रही. इन सबके बीच आत्म निर्भरता , स्वावलंबन और स्वदेशी के विचारों को बाधक मान कर परे धकेल दिया गया.करोना
करोना की महामारी ने यह महसूस करा दिया कि वैश्विक आपदा के साथ मुकाबला करने के लिये स्थानीय तैयारी आवश्यक है. विचार, व्यवहार और मानसिकता में अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को पुन: स्थापित करना पड़ेगा. प्रधानमंत्री जी ने स्थानीय के महत्व को रेखांकित किया है और आत्म निर्भर बनने के लिए आह्वान किया है.
आशा है ग्राम स्वराज के स्वप्न को आकार देने का प्रयास नीति और उसके क्रियान्वयन में स्थान पा सकेगा. इसी प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में भी देश और यहाँ की संस्कृति के लिए प्रासंगिकता पर ध्यान दिया जायगा. जड़ों की उपेक्षा कर वृक्ष स्वस्थ नहीं रह सकता है .(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा हैं.)