मृत्यु तक स्वयं से जूझती रही वह

त्याग: सत्य घटना पर आधारित कहानी

प्रभा पाण्डेय

आज से पन्द्रह-बीस साल पहले तक हमारे पहाड़ की महिलाओं की स्थिति बिल्कुल भी संतोषजनक नहीं थी क्योंकि मैंने अपने ही गांव में अनेक महिलाओं को इन परिस्थितियों की भेंट चढ़ते देखा. रामदेव नाम के एक व्यक्ति का सबसे बड़ा एक बेटा और चार छोटी बेटियां थी, बहुत कम पढ़ा-लिखा और स्वभाव से कुछ अहंकारी होने के because कारण रामदेव बेकार था. परन्तु समय ने उसे ऐसा सबक सिखाया कि उसने पण्डिताई का काम शुरू कर दिया.इस काम में उसे अधिकतर घर से बाहर रहना पड़ता. चारों तेज तर्रार बेटियां, तेज तर्रार माँ के साथ अपनी  थोड़ी बहुत पुश्तैनी खेती के साथ-साथ दूसरों के खेतों में मजदूरी कर  अपना गुजारा कर लेते थे जैसे-तैसे दो बड़ी बेटियों का विवाह भी हो गया.

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एक दिन रामदेव का छोटा भाई अपने बच्चों व पत्नी सहित पुश्तैनी घर आ गया. वह  भी भाबर क्षेत्र में रहकर पण्डिताई का काम करता, वह एक पैर से विकलांग था, उनके चार बेटे व तीन बेटियां थीं, उनकी आर्थिक स्थिति रामदेव से भी बुरी थी. रामदेव के परिजनों के लिए वह परिवार गले की हड्डी बन गया, परन्तु पुश्तैनी घर पर तो because सबका बराबर अधिकार होता है. छोटे से तीन कमरों के मकान में इतना बड़े परिवार का रहना मुमकिन भी नहीं था रामदेव की पत्नी अपने देवर-देवरानी को खूब खरी-खोटी सुनाती. पर देवरानी अपनी मजबूरी को समझकर चुप रहती. अंततःरामदेव ने पत्नी के कहने पर उन्हें अलग हिस्सा देकर छुटकारा पा लिया.

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रामदेव की पत्नी ने अपनी दोनों बेटियों की मदद से गांव में ही एक खाली पड़े मकान की लिपाई-पुताई करवा दी और चैन से रहने लगे परन्तु देवर का परिवार उन्हें सदा खटकता रहा.

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रामदेव अपने इकलौते, लाडले बेटे हरिया की शादी करने के बारे में सोच रहा था. बेटा आठवीं तक पढ़ा, बेकार, निठल्ला, झगड़ालू तो इतना कि कोई उससे बात तक नहीं करना चाहता, छोटी सी बात पर खून-खराबे पर उतर आता था. गांव की बहू-बेटियां तो उसका मुंह देखना भी पसंद नहीं करतीं थीं. उस परिवार में मां बेटा because और दोनों छोटी बेटियां समान स्वभाव वाले थे, हरिया चाहे जो कुछ भी करता, मां और दोनों बहनें उसकी हां पर हां मिलाती थी. कभी -कभी दो-चार महीनों के लिए दिल्ली आदि स्थानों पर जाकर घूम फिर कर वापस आ जाता. कभी वह कहता उसके शरीर में भगवती अवतार लेने लगी है और धीरे-धीरे वह इसी धंधे में रम गया. शीघ्र ही ऐसा समय आया जब गांव वाले उसकी कुटिलता को भांप गये और उसका विरोध करने लगे, ऐसी स्थिति में हरिया गांव छोड़कर लखनऊ भाग गया.

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साल भर बाद जब घर लौटा तो उसके माता-पिता लोगों को बताने लगे कि उनका हरिया अब लखनऊ में नौकरी करने लगा है, इसी नौकरी के नाम पर जल्दी ही उसकी शादी भाबर क्षेत्र में रहने वाले एक अमीर परिवार की सुंदर लेकिन अनपढ़ लड़की से करवा दी गई. ग़रीबी में दिन बिताने वालों के हाथ दहेज का कुछ because पैसा भी आ गया. रामदेव ने अपनी ओर से शादी बड़ी धूमधाम से की, गांव की बहू बेटियों ने उसके घर की देहरी और मंदिर की वेदी में एपण दिए, आंगन में सुंदर चौकी लिखवा दी, घर परिवार की महिलाओं ने सुंदर कपड़े, रंगवाली पिछौड़ा, पारंपरिक जेवर से सज-धज कर हरिया के ऊपर अक्षत और पानी फेरकर ससुराल के लिए बहू लाने हेतु विदा किया. मुझे आज भी याद है! हरिया की शादी में गांव की  बहू-बेटियों ने यह गाना गाया था-  27 अप्रैल को बात ऐसी हो गई रीता की शादी हरीश से हो गई…

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पहाड़ी क्षेत्र से अनभिज्ञ होने के because कारण नववधू रीता खेती-बाड़ी के कार्य को ठीक प्रकार से नहीं समझ पा रही थी और न हीं काम कर पा रही थी, पहाड़ी रास्तों पर बड़ी कठिनाई से चलती थी, ऐसी परिस्थिति में वह अपनी दोनों छोटी ननदों और अपनी सास की आंखों में खटकने लगी.

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रीता के शरीर में अब because इतनी शक्ति नहीं थी कि वह और संतानों  को जन्म दे, शारीरिक अक्षमता के साथ-साथ ही रीता मानसिक रूप से भी आहत हो चुकी थी. एक तो संतानों की मृत्यु का बहुत गम था दूसरा सास-ससुर पति तथा ननदों का दुर्व्यवहार असहनीय होता जा रहा था.

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परंतु 1 वर्ष के बाद ही रीता ने एक बेटे को जन्म दिया हरिया जो कि नौकरी करने लखनऊ चला गया था, उसे भी बुला लिया गया. हरिया की माँ ने पूरे गांव में मिठाई बंटवा दी, शगुन आखर देने वाली गिदारियों को बुलाया, उनसे  शगुन गीत गवाए. जिस दिन हरिया घर पहुंचा उसी दिन हरिया का नवजात बेटा मर गया. because बेचारे छठी भी नहीं मना सके.  समय बीतता गया. 1 वर्ष बाद रीता ने एक बेटी को जन्म दिया, हरिया के परिजन पहले बच्चे का गम भूलने का प्रयास कर ही रहे थे कि चार-पांच दिनों बाद बेटी की भी मृत्यु हो गई, अब हरिया ने लखनऊ जाना छोड़ दिया वह घर पर ही रहने लगा.  रीता के प्रति परिजनों का व्यवहार बदलने लगा. प्रत्येक वर्ष वह संतान के रूप में कभी बेटा या बेटी को जन्म देती पर कोई जीवित नहीं बचा. सात वर्षो तक ऐसा ही चलता रहा.

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रीता के शरीर में अब इतनी शक्ति नहीं थी कि वह और संतानों  को जन्म दे, शारीरिक अक्षमता के साथ-साथ ही रीता मानसिक रूप से भी आहत हो चुकी थी. एक तो संतानों की मृत्यु का because बहुत गम था दूसरा सास-ससुर पति तथा ननदों का दुर्व्यवहार असहनीय होता जा रहा था. शारीरिक दुर्बलता के कारण वह कृषि कार्यों को भी नहीं कर पा रही थी उसके पास न तो संतान रही न ही शरीर रहा, उसे गठिया रोग ने जकड़ लिया वह ठीक से चल भी नहीं पाती थी परंतु परिजन उसकी इस परेशानी को ना देखते हुए उसे बहुत सी बातें सुनाते.सास की शब्दावली तो इतनी तीखी,और बेरहम हो गई कि सुनने वाले का कलेजा मुंह को आ जाता. अस्पताल और दवा जैसे शब्द तो उसके लिए थे ही नहीं.

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इसी बीच रीता की दोनों छोटी ननदों की शादी भी हो गई, लेकिन उसका जीवन कठिन होता गया. पति ने तो रीता से सारे रिश्ते तोड़ लिए, वह रीता की ओर भूल कर भी देखना नहीं चाहता. उसकी सेवा में पल भर देर हो जाए तो जहरीले सांप की तरह फुंफकार कर कहता- तू हमारी नौकरानी है इसलिए गुलाम की तरह रह. because ससुरालियों की सेवा करना ही उसने अपना धर्म-कर्म बना लिया था. बिस्तर पर पड़ा रामदेव रीता के प्रति कुछ सहिष्णु था, कभी-कभी रीता के पक्ष में बोल देता. लेकिन रीता कभी किसी से कोई शिकायत नहीं करती, उसके लिए सही गलत, अच्छा-बुरा सब समान हो गया था. चुप रहने को ही उसने अपना ब्रह्मास्त्र  बना लिया था, गांव वाले तो सब कुछ देखते-सुनते थे पर कर क्या सकते? कोई कहता – ये रीता को तो अपने मायके चले जाना चाहिए, यहां कोई अपना जैसा है ही नहीं. कोई कहता रीता के मायके वाले सम्पन्न हैं उन्हें रीता को वापस बुला लेना चाहिए.

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जब कभी रीता के मायके से बुलावा आता तो हरिया स्वयं चला जाता. मायके वाले अपनी बेटी के नाम पर जो कुछ देते, वफादार दामाद बनकर ले आता, रीता को मायके के रुपए पैसों से भी कोई लेना देना नहीं होता. शायद वह ससुरालियों के व्यवहार के बारे में मायके वालों को नहीं बताना चाहती हो.  बीमार रामदेव भी संसार छोड़ गया. because अब रीता की सास और पति उसके लिए एक ओर कुंआ, एक ओर खाई के समान थे. मां-बेटे राजमाता और राजकुमार की तरह बैठे रहते, शेर-शेरनी की तरह रीता पर दहाड़ते, रीता पहले तो लंगड़ाते हुए काम करती थी गालियों को अनसुना कर देती थी अब वह बहरी और एक हाथ से लूली भी हो गई , फिर भी बिना शिकायत के दोनों की सेवा करती.

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चाय -नाश्ता बनाने से पहले आंखें सिकोड़कर घड़ी में देखा तो रात के 2 बजे थे, उसने दुधारू गाय-भैंसों का दूध निकाल कर गरम किया, जानवरों के दिन भर के लिए चारे की because व्यवस्था की, घर आंगन में झाड़ू लगाया, सास से डरते हुए पूछा कि दिन के खाने में उसके लिए क्या बनाकर रख दे. ये सारे काम पूरे कर वह तैयार होकर बैठी तो उसकी आंख लग गई. लेकिन पति ने एक लात मारकर उसे चलने का हुक्म दिया.

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एक बार ग्रामप्रधान ने कहा, यार हरीश! सरकार ने शौचालय बनाने के लिए हरेक परिवार को 2500रु की सहायता राशि के रूप में देने की योजना बनाई है. ये रू. तेरी पत्नी के because नाम से ही मिलेंगे, तू कुछ कागज बनवाकर कल ही चला जा.  हरिया ने अपनी मां को प्रधान की कही बात बताई, तो सास ने रीता को आदेश देते हुए कहा-अरे ओ करमजली तू कल हरीश के साथ ब्लौक जाएगी कुछ काम है,सुबह 6बजे से पहले तक घर का काम हो जाना चाहिए.

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रीता बेचारी देर रात तक कुछ काम निपटाने के बाद जैसे ही सोने लगी वैसे ही सास की गाली-गलौज शुरू हो गयी- कुंभकरण जैसी नींद है इस हरामखोर की, एक घूंट चाय भी नहीं है हम मां-बेटे के नसीब में, जिस घर में ऐसी खोटी बहू होगी उस घर में सुख कैसे होगा ये औलादखोर हमारे पल्ले पड़ गई, सुवरनी का पेट भी कैसे भरें हम, because आदि-आदि. सास की बातें तो रीता सुन नहीं सकती थी फिर भी अपनी चुप्पी का ब्रह्मास्त्र लिए काम में जुट गई. चाय -नाश्ता बनाने से पहले आंखें सिकोड़कर घड़ी में देखा तो रात के 2 बजे थे, उसने दुधारू गाय-भैंसों का दूध निकाल कर गरम किया, जानवरों के दिन भर के लिए चारे की व्यवस्था की, घर आंगन में झाड़ू लगाया, सास से डरते हुए पूछा कि दिन के खाने में उसके लिए क्या बनाकर रख दे. ये सारे काम पूरे कर वह तैयार होकर बैठी तो उसकी आंख लग गई. लेकिन पति ने एक लात मारकर उसे चलने का हुक्म दिया.

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दिन भर की भूखी- प्यासी रात को घर के भीतर भी न पहुंच पायी सास शेरनी बनकर दहाड़ने लगी- मेरा हरीश आज दिन भर भूखा होगा, सुबह नाश्ता भी थोड़ा ही किया, because इस कुलक्षिणी ने जबरदस्ती कुछ बनाकर रास्ते के लिए भी रखना था, वह तो नियम धरम वाला हुआ, बाहर का खाना भी खाता ही नहीं है. ऐसी बहू से तो मेरा बेटा बिना शादी के सुखी था, इसने मेरे बेटे का जीवन बर्बाद कर दिया.

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आगे-आगे हरिया चलता पीछे से लंगड़ाती हुई because रीता चलती, उसकी एक सहेली ने उसे जाते हुए देख हाथ के इशारे से कहां जा रही है पूछा तो रीता ने भी अनभिज्ञता का इशारा कर दिया.

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अगले दिन रीता की सहेलियों ने थोड़ा मजाक के लहजे से पूछा-क्यों रीता कल हरिया के साथ घूमने कहां गयी थी? इतना कहते ही रीता की आंखों से जैसे गंगा -यमुना बहनें लगीं, बोली- because शायद ब्लौक में मेरे नाम से रुपए मिल रहे थे  क्योंकि किसी कागज में मेरे अंगूठे का निशान लगा. जैसे ही उस आदमी ने मेरे हाथ में रुपए दिए इसने झपट लिए तब मैं समझी कि ये रुपए मेरे नाम से लिए होंगे. 40कि.मी. आना औंर40कि.मी.जाना,  पैदल चलाकर ले गया मुझ लूली-लंगडी को. खाना तो दूर, कहीं एक बूंद चाय तक नहीं पूछी, खुद तो दुकानों में घुस-घुस कर अपनी पसंद की चीजें  खा रहा था, कहीं थोड़ा पानी पीने को रुकना चाहती तो यह और तेजी से दौड़ने लगता. गाड़ी में न जाकर ऐसे कठिन रास्तों से ले गया जहां मैं थोड़ी असावधानी से ही भटक सकती थी.

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दिन भर की भूखी- प्यासी रात को घर के भीतर भी न पहुंच पायी सास शेरनी बनकर दहाड़ने लगी- मेरा हरीश आज दिन भर भूखा होगा, सुबह नाश्ता भी थोड़ा ही किया, इस because कुलक्षिणी ने जबरदस्ती कुछ बनाकर रास्ते के लिए भी रखना था, वह तो नियम धरम वाला हुआ, बाहर का खाना भी खाता ही नहीं है. ऐसी बहू से तो मेरा बेटा बिना शादी के सुखी था, इसने मेरे बेटे का जीवन बर्बाद कर दिया. जब तक उसे नींद नहीं आई तब तक वह अपनी भड़ास निकालती रही.

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शारीरिक रूप से पहले के मुकाबले कुछ स्वस्थ लगने लगी थी. सास- ससुर, पति और ननदों ने युवावस्था में जिसका तिरस्कार किया था वह आज वृद्धावस्था में अपने सौतेले बच्चों because और सौतन का सहारा बनी हुई है ऐसा लगता है चुप रहने के ब्रह्मास्त्र ने उसे विजयी बना दिया. हरिया सात जन्मों तक रीता का ऋणी रहेगा, क्योंकि उसकी संतानें अभी भी रीता की छत्र-छाया में पल रही हैं.

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समय बीतता गया, हरिया ने बहिनों और मां के कहने  पर एक गरीब लड़की से दूसरी शादी कर ली, पति की दूसरी शादी से रीता प्रसन्न होकर लोगों से कहने लगी थी-आज मेरे सिर का एक बोझ उतर गया. हरिया ने अब पंण्डिताई शुरू कर दी, दूसरी शादी के लगातार तीन सालों तक उसकी तीन बेटियां हो गई. जिस उम्र में पोते-पोतियां because खिलाने के दिन थे उस उम्र में हरिया की संतानें पैदा हो रही थी.उसकी उम्र भी पचपन पार कर चुकी थीं वह बीमार रहने लगा, उससे पंण्डिताई का काम भी नहीं होता, पारिवारिक बोझ के कारण दवा की व्यवस्था भी नहीं हो पाई. उसी बीच हरिया की मां भी चल बसी. परंतु हरिया संभवतया जिस पुत्र के जन्म की प्रतीक्षा में था वह अभी पैदा नहीं हो पाया.

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1 वर्ष के अंतराल बाद हरिया की दूसरी पत्नी ने दो जुड़वा पुत्रों को जन्म दिया. इधर रीता की जिम्मेदारियां बढ़ गई. बड़ी होने के नाते उसे जच्चा व दोनों जुड़वां बच्चों  का विशेष ध्यान रखना पड़ता था, because बीमार हरिया की देख देख करना उसके लिए और भी कठिन था. क्योंकि हरिया का स्वभाव रीता के प्रति अभी भी क्रूर था. इतना त्याग तो हरिया के माता-पिता ने भी हरिया के लिए नहीं किया, बेटों के जन्म के 2 माह पश्चात ही हरिया इस दुनिया को छोड़ कर चला गया.

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रीता अपने मायके से आने वाले सारे धन से घर का खर्च चलाती. घर के आंगन में बैठी रीता अपनी पांच सौतेली संतानों को इस प्रकार खिलाती जैसे कोई दादी मां अपने पोते-पोतियो को खिलाती है. शारीरिक रूप से पहले के मुकाबले कुछ स्वस्थ लगने लगी थी. सास- ससुर, पति और ननदों ने युवावस्था में जिसका तिरस्कार किया था because वह आज वृद्धावस्था में अपने सौतेले बच्चों और सौतन का सहारा बनी हुई है ऐसा लगता है चुप रहने के ब्रह्मास्त्र ने उसे विजयी बना दिया. हरिया सात जन्मों तक रीता का ऋणी रहेगा, क्योंकि उसकी संतानें अभी भी रीता की छत्र-छाया में पल रही हैं. वास्तव में यह सच्ची कहानी एक महिला के आत्म-संघर्ष की है, जो मृत्यु तक स्वयं से जूझती रहेगी.

(लेखिका शि​क्षिका हैं एवं उत्तराखंड के टनकपुर, चंपावत से हैं)

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