पेशवाओं की शान- हिमरू, संग पैठणी

मंजू दिल से… भाग-7

  • मंजू काला

कुछ समय पहले का वाक्या साझा करना चाहती हूँ, इजरायल की एक राज​नयिक ने अपनी कुल जमा दो साड़ियों की ‘पूंजी’ शेयर करते हुए बड़ी मासूमियत से पूछा था- because ‘मेरे पास बस ये दो साड़ियां हैं, कौन सी बेहतर है?’ यह सिर्फ साड़ी के प्रति उनकी मुहब्बत नहीं थी, बल्कि इस देश की परंपराओं को लेकर उनके जज़्बाती मन का बयान था. आपको नहीं लगता कि साड़ी महज़ पहनावा नहीं है? साड़ी जज़्बात है, जश्न है, याद है, पहचान है. हालांकि पिछले कई सालों से पश्चिमी संस्कृति को ज्यादा तवज्जो मिलने लगी है और इसका असर हम हिंदुस्तानी औरतों के पहनावे पर साफ दिखता है. पहनावा चुनते वक्त सुविधा वाला पहलू ज्यादा मायने रखने लगा है.

सलवार-कमीज़

पैंट, शर्ट, सलवार-कमीज़, स्कर्ट को because ज्यादा पसंद किया जा रहा है जबकि साड़ी खास अवसरों पर पहने जाने वाले परिधान के रूप में सिमटी है. बहरहाल, इस चुनौती से निपटने के लिए कुछ आधुनिक डिज़ाइनर साड़ी को लेकर नए प्रयोग करते दिख रहे हैं. कोई पैंट की तरह पहनी जाने वाली साड़ी पेश कर रहा है तो किसी ने पैराशूट नायलॉन का इस्तेमाल कर साड़ी में इनोवेशन की अजब-गजब मिसालें पेश की हैं.

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इन सभी बातों से यह भरोसा बढ़ रहा है because कि साड़ी के अस्तित्व को कोई खतरा नहीं है. 2016 में टैक्सटाइल मंत्री स्मृति ईरानी ने हाथ की बुनी एक सिल्क साड़ी में अपनी तस्वीर ट्वीट कर हैंडलूम हैशटैग ट्रेंड कराया. यह हमारी समृद्ध सांस्कृतिक पहचान को बुलंद करने वाला कैम्पेन था. इससे पहले हैशटैग के जरिए बेंगलुरू की दो स‍हेलियों ने 2015 में सालभर के दौरान 100 साड़ियां पहनने और अपनी स्टोरी साझा करने का करार किया.

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निश्चित ही इन अभियानों ने साड़ी की लोकप्रियता में इज़ाफा किया, नई पीढ़ी को साड़ियों की ओर ललचाया है. साथ ही, देशभर की उस बुनकरी परंपरा को भी महकाया जिसके एक सिरे पर पटोला, because बनारसी, पैंठणी, कांजीवरम जैसी परंपरा है जो हर समारोह की जान होती हैं तो महेश्वरी, गढ़वाल, चंदेरी, इक्क्ल, भागलपुरी, संबलपुरी, बंधनी की दीवानगी भी है. वस्त्र मंत्रालय की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक, हैंडलूम और एंब्रॉयडरी सेक्टर से करीब 1.1 करोड़ कारीगर जुड़े हैं और यह बड़ी संख्या में साड़‍ीयां बुनते हैं.. या शायद ख्वाब भी बुनते हैं.

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पैठण की कला 2000 साल से because ज्यादा पुरानी है, जो महान सातवाहन शासक शालिभवाना द्वारा अब पैठण और मराठवाड़ा में गोदावरी नदी द्वारा, औरंगाबाद से करीब 50 किमी दूर स्थित प्रतिष्ठित शहर में विकसित हुई है. बहुत पहले यह रेशम और ज़ारी के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय व्यापार केंद्र था. कहते हैं कि पेशवाओं को पैठणी वस्त्रों के लिए विशेष प्यार था.

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पैठणी साड़ी के बारे में तो आपने सुना ही होगा. because रेशम से बनी हुई यह साड़ी, भारत में सबसे बहुमूल्य साड़ियों के रूप में मानी जाती है. इस साड़ी का नाम महाराष्ट्र में स्थित औरंगाबाद के पैठण नगर के नाम से रखा गया है, जहाँ इन साड़ियों को हाथों से बनाया जाता है.

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पैठण की कला 2000 साल से ज्यादा पुरानी है, जो महान सातवाहन शासक शालिभवाना द्वारा अब पैठण और मराठवाड़ा में गोदावरी नदी द्वारा, औरंगाबाद से करीब 50 किमी दूर स्थित प्रतिष्ठित शहर में विकसित हुई है. बहुत पहले यह रेशम और ज़ारी के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय व्यापार केंद्र था.

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कहते हैं कि पेशवाओं को पैठणी वस्त्रों के लिए विशेष because प्यार था. 17 वीं शताब्दी के दौरान, मुगल बादशाह औरंगजेब ने पैठणी सिल्क बुनकरों को संरक्षित किया और नए आकृति को औरंगजेबी कहा जाता था. उन्होंने बुनकरों को अपनी अदालत को छोड़कर ‘जामदानियों’ को बुनाई करने के लिए निषिद्ध किया और बुनकरों को दंडित किया, जिन्होंने अपने आदेशों का उल्लंघन किया.

बाद में 19-20 वीं शताब्दी के दौरान, हैदराबाद because के निजाम ने पैठणी रेशम के बड़े मात्रा में निर्माण किये जाने का आदेश दिया! जिस तरह एक दक्षिण भारतीय दुल्हन, कांजीवरम साड़ी के बिना अधूरी होती है, ठीक वैसे ही पैठणी साड़ी मराठी दुल्हन के संचित खजाने का एक जरूरी हिस्सा होती है.

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चटख़ रंगों और ख़ूबसूरत बुनाई वाली पैठणी साड़ियों because के साथ समृद्ध परंपरा और इतिहास जुड़ा हुआ है. मराठा साम्राज्य में रानियों से प्रसिद्ध पैठणी का इतिहास हज़ारों साल पुराना है!

उत्तर महाराष्ट्र में गोदावरी के तट पर स्थित पैठण शहर का बड़ा ऐतिहासिक महत्व रहा है और ये कभी सत्ता का केंद्र हुआ करता था. ये दक्षिणापथ का एक महत्वपूर्ण स्थल हुआ करता था. so दक्षिणापथ वो मार्ग था जो मगध के बड़े नगरों को दक्षिण के बड़े नगरों से जोड़ता था. दूसरे ई.पू. और दूसरी शताब्दी के बीच ये दक्कन के महान शासकों सातवाहनों का प्रमुख केंद्र बन गया था. उस समय यहां के रेशम को और उसके व्यापार को शाही संरक्षण प्राप्त था और पैठणी रेशम की बहुत ज़्यादा मांग बढ़ भी गई थी!

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कहा जाता है कि यूनानी – रोमन दुनिया में इसकी but इतनी मांग थी कि रोमन व्यापारी इसके लिये पश्चिमी तट पर कल्याण के पुराने बंदरगाह पर कई दिनों और हफ़्तों तक इंतज़ार करते थे. एक समय में रोम में भारतीय रेशम की मांग इतनी बढ़ गई थी कि रोम के व्यापारी इसे बराबरी वज़न के सोने के बदले में ख़रीदते थे. पुरातत्त्ववेत्तों से पैठण में खुदाई के दौरान सातवाहन साम्राज्य के समय की रेशम बुनने की सुईयां जैसी चीज़े मिली हैं.

क़रीब दूसरी शताब्दी के आसपास, व्यापारिक केंद्र के so रुप में पैठण का महत्व कम हो गया क्योंकि एक तो रोम के साथ व्यापार बहुत घट गया था और जैसा कि माना जाता है, सातवाहनों ने पैठण को छोड़कर दक्षिण में अपनी राजधानी बना ली था जिसे मौजूदा समय में हम आंध्र प्रदेश के अमरावती के नाम से जानते हैं.

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सन 1292 में इतालवी यात्री और व्यापारी because मार्को पोलो दक्कन आया था और तब उसे उपहार में एक हिमरु शॉल दी गई थी. उसने अपने संस्मरण में लिखा है, “ये मकड़ी के जाले की तरह महीन है और किसी भी देश का राजा और रानी इसे पहनकर फ़ख़्र मेहसूस करेंगे.”

बहरहाल, इसके बावजूद 8वीं और 12वीं शताब्दी because के बीच राष्ट्रकूट और यादवों के शासनकाल में एक तीर्थ स्थान के रुप में पैठण का महत्व बना रहा. उस समय यहां मंदिरों में उत्कृष्ट रेशम के कपड़े का चढ़ावा चढ़ाया जाता था. समय के साथ पैठण रेशम शहर का पर्याय बन गया और अमीरों तथा सभ्रांत घरों की पहली पसंद हो गया. 18वीं सदी में पेशवाओं के समय पैठणी साड़ियों की बहुत मांग थी.

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पैठणी बुनाई में कई तरह के प्रभाव नज़र आते हैं. उदाहरण के लिये पल्लू पर बेलबूटे वाला ज़री का काम फ़ारसी कपड़ों पर की because जाने वाली बेलबूटों की बुनाई से प्रभावित था जिसे आज हम कुयारी या मैंगो (आम) रुपांकन के रुप में जानते हैं. ईरानी रुपांकन और तकनीक औरंगाबाद में लगभग 14वीं शताब्दी में आई थी. ये वो समय था जब सन 1327 में दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद तुग़लक़ ने दिल्ली को छोड़कर देवगिरी को अपनी राजधानी बना लिया था. तुग़लक़ के इस फ़ैसले की वजह से हज़ारों लोगों को because दिल्ली छोड़कर देवगिरी आना पड़ा जिसमें मुसलमान बुनकर भी शामिल थे. सात साल बाद तुग़लक देवगिरी छोड़कर चला गया लेकिन मुस्लिम बुनकर यही बस गए. इन्हीं बुनकरों ने विशेष बुनाई की शुरुआत की थी जिसे ‘हिमरु’ कहते हैं.

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कहा जाता है कि हिमरु बुनाई की because तकनीक ईरान से आई थी जो कम्ख़्वाब की नक़ल थी. ईरान में शाही घरानों के लिये कपड़ों पर कम्ख़्वाब, सोने और चांदी की बुनाई से की जाती थी. सन 1292 में इतालवी यात्री और व्यापारी मार्को पोलो दक्कन आया था और तब उसे उपहार में एक हिमरु शॉल दी गई थी. उसने अपने संस्मरण में लिखा है, “ये मकड़ी के जाले की तरह महीन है और किसी भी देश का राजा और रानी इसे पहनकर फ़ख़्र मेहसूस करेंगे.”

पैठणी बुनाई में बेलबूटे और मदिरा जैसे हिमरु because के लोकप्रिय रुपांकनों का समावेश किया गया. औरंगाबाद के बुनकरों ने जहां हिमरु बुनाई की तकनीक को अपनाया वहीं इसमें स्थानीय चीज़ों को भी जोड़ा. बाद के समय में मराठा महिलाएं पैठणी साड़ियों के साथ हिमरु शॉल ओढ़ती थीं.

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18वीं शताब्दी में पुणे के पेशवाओं ने so पैठणी में नये सिरे से जान फूंक दी. पैठणी नाम ही पेशवा के समय पड़ा था. मराठा साम्राज्य के फैलने के साथ पुणे में अमीर लोगों का आना शुरु हो गया और मराठा महिलाओं में पैठणी साड़ियों की मांग बढ़ने लगी. सोने और चांदी की ज़रीदारी but वाली पैठणी साड़ियां पहनना शान की बात हो गई थी. चूंकि पैठणी साड़ियों की मांग बहुत होने लगी थी और बुनकरों की संख्या कम थी इसलिये मराठा महिलाओं को इन साड़ियों के लिये महीनों इंतज़ार करना पड़ता था.

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पेशवाओं के शासन के दौरान so पैठण बुनाई अपने चर्मोत्कर्ष पर थी. बुनकर साड़ियों के अलावा पुरुषों के लिये स्टोल (ओढ़नी) भी बनाने लगे थे जो वे धोती के साथ पहनते थे. कहा जाता है कि सन 1761 से लेकर सन 1772 तक शासन करने वाले पेशवा माधवराव पैठण रेशम पर इतने मोहित हो गए थे कि उन्होंने लाल, हरे, नारंगी, अनार और गुलाबी रंग में असावली रुपांकन (अंगूर की लताएं) के पैठण दुपट्टों की उपलब्ध करने का आदेश दिया था. but पेशवा की पसंद की वजह से उस समय असावली और आकृति (बादाम के आकार वाले फूल) रुपांकन वाले पैठण दुपट्टे बहुत लोकप्रिय हो गए थे. पेशवा-शासन के दौरान पैठणी के बॉर्डर और पल्लू पर सोने और तांबे की ज़रदारी होने लगी थी. बहुत जल्द पैठणी महाराष्ट्र का सांस्कृतिक पहनावा बन गया.

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पैठणी की बढ़ती मांग की वजह से आज पुणे से 211 कि.मी. दूर येवला जैसे स्थानों में गढ्डों के करधों की जगह जैकर्ड करधों ने ले ली है. यहां सस्ते और अधिक संख्या में पैठणी बनाई जाती है. but येवला में पैठणी का उत्पादन 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में शुरु हुआ था क्योंकि पैठणी की मांग बढ़ गई थी. बाद में यहां सस्ते क़िस्म के पैठणी का भी उत्पादन होने लगा. आज भी यहां जैकर्ड  करधे पर भारी so मात्रा में पैठणी का उत्पादन होता है. जल्दी उत्पादन के लिये जैकर्ड तकनीक के ज़रिये जटिल डिज़ाइनों की बुनाई की जाती है. इससे मेहनत और समय की तो बचत हो गई लेकिन पैठणी की गुणता भी प्रभावित हुई है!

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पैठानी महज़ रंगों की छटा नहीं है so बल्कि रुपांकनों की बौछार भी है. हुमा परिंदे, बांगडीमोर, तोता-मैना, अनारबेल और बहिश्ती परिंदा (स्वर्ग का पक्षी) के अलावा असावली में बेल और फूलों जैसे रुपांकनो पर मुग़ल और ईरान का प्रभाव दिखाई पड़ता .. है!

मोरबांगड़ी- मराठी का ये शब्द चूड़ी because और मोर को मिलाकर बनाया गया है. मोरबांगड़ी रुपांकन में चूड़ी के आकार में या चूड़ी के अंदर मोर की डिज़ाइन बनाई जाती है. इस रुपांकन में अमूमन चूड़ी होती है जिसके अंदर एक कमल का फूल होता है और चार दिशाओं में चूड़ी पर चार but मोर बैठे होते हैं. हिंदू दंतकथा के अनुसार ये चार मोर भगवान विष्णु के चार हाथ माने जाते हैं. कहा जाता है कि मध्य में जो नाभी कमल है वो फूल भगवान विष्णु के पेट से निकला था. ये सबसे पुराने रुपांकनों में से एक है और इसे पैठणी साड़ी के पल्लू पर बनाया जाता है.

तोता मैना- तोता और मैना पक्षियों को because रुमानी रुप में दर्शाया जाता है जिनके आसपास बेलबूटे बने होते हैं. इन रुपांकनों में गहरे हरे और लाल रंग का प्रयोग किया जाता है. पैठणी साड़ियों के बॉर्डर और पल्लू पर भी तोता बनाया जाता है जिसे मुनिया रुपांकन कहते हैं.

कमल पुष्प रुपांकनकमल पुष्प रुपांकन

कमल पुष्प- कमल पुष्प becauseरुपांकन औरंगाबाद में अजंता की गुफाओं की भित्ति चित्रों पर बौद्ध पेंटिंग से काफ़ी मिलते जुलते हैं. बौद्ध प्रतिमा‍ विज्ञान में ये पुनर्जन्म को दर्शाता है.

कोयरी- आम के फल because के आकार का ये रुपांकन पैठणी साड़ियों में तब से बना चला आ रहा है जब पैठण में मराठाओं का सम्राज्य हुआ करता था. इस पर ईरान के बेलबूटों की बुनाई का भी प्रभाव दिखाई देता है.

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आकृति रुपांकन- बादाम के ज्यामितीय आकार और फूलों के रुपांकन सातवाहन शासकों के समय के हैं. चूंकि ये बहुत सुंदर और सादे होते हैं इसलिये आप इन्हें लगभग हर पैठणी साड़ी के पल्लू या फिर बॉर्डर में पाएंगे.

असावली रुपांकन- असावली रुपांकन में बेलबूटे और फूल होते हैं. पेशवा के शासनकाल में बेल लताओं और गुलदानों के साथ फूलों का ये रुपांकन बहुत लोकप्रिय था. इस पैटर्न में मुग़ल प्रभाव भी देखा जा सकता है. मज़े की बात ये है कि सन 1996 में ब्रिटिश एयरवेज़ ने अपने हवाई जहाज़ों पर असावली रुपांकनों का इस्तेमाल किया था.

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नारली- 19वीं शताब्दी तbecause क पैठणी साड़ियों के बॉर्डर पर श्रीफल यानी नारियल का रुपांकन बहुत होता था. हिंदू संस्कृति में ये रुपांकन स्वार्थहीन सेवा, उपयोगिता, समृद्धि और संपन्नता का प्रीतक माना जाता है.

कलश पाकली- पत्तियों का रुप, रुई फूल, कपास की कलिया – औरंगाबाद की प्राकृतिक प्रेरणा लेकर बुनकर अन्य रुपांकनों के रुपांकन बनाते थे.

सन 1818 में मराठा साम्राज्य के पतन का because पैठणी उत्पादन पर बहुत असर पड़ा था और ये कला लगभग विलुप्त होने की कगार पर जा पहुंची गई थी. उस समय पैठणी के दक्ष बुनकरों के बमुश्किल चार-पांच परिवार ही बचे रह गए थे. ऐसे में नये बुनकरों को ये कला सिखाने की ज़रुरत मेहसूस की गई.

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19वीं शताब्दी के ख़त्म होते होते महाराष्ट्र because लघु उद्योग विकास निगम (MSSIDC) और भारत सरकार ने पैठणी के पुनरुत्थान की दिशा में काम करना शुरु किया. सन 1978 में MSSIDC ने बुनकरों के लिये नये प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए. इन केंद्रों में प्रशिक्षित बुनकर नये लोगोंको प्रशिक्षण देते थे जो दरअसल बुनकर बिरादरी से नहीं थे.सन 1986 में MSSIDC ने पैठण और येवली में मराठी पैठण केंद्रों की स्थापना की. इस निगम ने इस कला की because तरफ़ लोगों को आकर्षित करने के लिये वेतन और कच्चे माल का भी इंतज़ाम किया. आज क़रीब दो हज़ार लोगों को इस कला में पारंगत किया जा चुका है और ये लोग इस क्षेत्र में अपना ख़ुद का कारोबार कर रहे हैं.

आज ये दोनों केंद्र पैठण साड़ियों के उत्पादन और व्यापार का केंद्र बन चुके हैं. चूंकि पैठण साड़ी बुनने में बहुत समय लगता है इसलिये यहां हर साल 150 से 200 तक ही पैठणी साड़ियां बन पाती हैं!

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हालंकि पैठणी की विरासत को फिर ज़िंदा because करने की कोशिशें कुछ हद तक सफल रही हैं लेकिन इस पारंपरिक हुनर पर ख़तरे के बादल मंडरा रहे हैं क्योंकि युवा पीढ़ि के बहुत कम लोग इसमें दिलचस्पी दिखा रहे हैं. महाराष्ट्र की इस समृद्ध और ऐतिहासिक कला को आज उसी because पहचान की ज़रुरत है जो प्राचीन रोमन से लेकर पेशवा के समय साम्राज्य में इसको प्राप्त थी..!

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(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण,because पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्‍पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्‍यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)

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