नायक गोपाल सिंह धामी   

Gopal Singh Dhami

प्रकाश चन्द्र पुनेठा, सिलपाटा, पिथौरागढ़

उत्तराखंड के जिला पिथौरागढ़ में हमारे देश के दो पड़ोसी देशों की सीमाए मिलती हैं, उत्तर में तिब्बत के साथ और पूर्व में नेपाल के साथ। एक प्रकार से जिला पिथौरागढ़ अति संवेदनशील क्षेत्रों के अन्तर्गत आता है। हमारे देश भारत और पड़ौसी मित्र देश नेपाल के मध्य समाजिक तथा सांस्कृतिक दृष्टी से हम समान रुप से हैं, दोनों देशों की जनता के मध्य चाहे नेपाल से भारत या भारत से नेपाल आवागमन के लिए वीजा की आवश्यक नही है। नेपाल के साथ हमारे देश का मित्रवत व्यवहार है। सीमांत जिला पिथौरागढ़ और नेपाल के महाकाली अंचल के मध्य पूर्व से ही अति घनिष्ठ संबंध रहे है। मध्य में काली नदी दोनों देशों की सीमा रेखा है। काली नदी का उद्दगम स्थल जिला पिथोरागढ़ की धारचूला तहसील के कालापानी क्षेत्र में है।

काली नदी दो देशों भारत और नेपाल की अन्तर्राट्रीय सीमा रेखा है। काली नदी अन्तार्राट्रीय सीमा रेखा अवश्य है, लेकिन काली नदी के आर-पार की जनता के मध्य बोली-भाषा, रहन-सहन, संस्कृति, रीति-रिवाज और लोक त्यौहार-पर्व एक समान है।  इसलिए काली नदी के आर-पार दोनों देशों की आम जनता के मध्य रिश्तेदारी होना सामान्य बात है। सोर (पिथौरागढ़) की जलवायु स्वास्थवर्धक होने तथा अनाज उत्पादन के लिए उपजाऊँ भूमी होने के कारण  काली नदी पार यानी कि नेपाल से बहुत से लोग सुखी जीवन व उज्जवल भविष्य की आशा में यहाँ पिथौरागढ़ में आकर निवास करने लगे। नेपाल से रोजी-रोटी की तलाश में अनेक लोग काली पार करके इधर सोर में आए और यहाँ के होकर रह गए। सोर के अनेक गाँव, गाँव के नाम के अनुसार अपने पूर्व के इतिहास को बयाँ करते हैं।

पिथौरागढ़ से लगभग 25 किलोमीटर दूर एक गाँव है ‘कटियानी’।  कटियानी शब्द कुमाउनी बोली की उपबोली, श्योर्याली बोली के शब्द ‘कटकी’ का अप्रभंश है। कटकी का अर्थ है चुपचाप रहना या बिना शोर-गुल के शांति के साथ विश्राम करना। मिथक है कि काली नदी पार नेपाल में विरेचंन नाम के रजवार ने जब देखा कि काली नदी के आर-पार रहने वाले भोली-भाली  आम जनता के उपर आततायी लोगों द्वारा अत्याचार अधिक हो रहा है, उनके धर्मस्थलों को नष्ट व अपवित्र किया जा रहा है तो उसने महसूस किया कि आम जनता को आततायियों के अत्याचार से मुक्त कराने के लिए व धर्मस्थलो की रक्षा करने के लिए कुछ कदम उठाने होगें।

 विरेचंन ने जमीदारी त्यागकर अपने भड़जवानों का गठन कर काली नदी के किनारे जौलजीवी से लेकर पंचेश्वर तक स्थित धर्मस्थलों की रक्षा का संकल्प लिया। और प्रत्येक धर्मस्थल में अपने भड़ों को नियुक्त कर दिया और विरेचंन स्वयं तालेश्वर मंदिर के पुजारी भद्रदेव के गाँव भटेड़ी में धर्मस्थल की रक्षार्थ रहा। तभी अचानक पूरे क्षेत्र में भयानक रोग हैजा फैल गया। लोग हैजे के रोग से बचने के लिए सुरक्षित स्थानों में जाने लगे।

 विरेचंन और उसके भड़ हैजा रोग से सुरक्षित रहने के लिए दूर सेना के कटकयानी (विश्राम स्थल) में रहने लगे। तब से लोग उस स्थान को कटकयानी कहने लगे, जो बाद में ‘कटियानी’ नाम में परिवर्तित हो गया और बाद में कटियानी नाम से एक गाँव ही बस गया। कटियानी गाँव में धामी जाती के क्षत्रीय रहते हैं। कटियानी गाँव के धामी कहते है कि उनके पूर्वज ’चंद कुवर’ थे। ‘धामी’ उपनाम उनको सम्मान स्वरुप एक पदवी दी गयी थी। बाद में कटियानी गाँव के निवासियों के संबंध स्थानीय क्षत्रीय जाती के लोगों से होने लगे।

सन् 1939 में कटियानी गाँव में एक समृद्ध किसान जय सिंह धामी की धर्म पत्नी की कोख से एक सुन्दर स्वस्थ शिशु का जन्म हुआ। शिशु का जन्म उत्सव बड़े धम-धाम से मनाया गया और नाम गोपाल सिंह धामी रखा गया। जय सिंह धामी 200 नाली भूमी के स्वामी थे और उनके छाने (पालतू पशुओं को रखने का स्थान) में पशु धन की कमी न थी। खेतों में मेहनत करके अच्छी मात्रा में अनाज उत्पन्न होता था तथा दूध-दही-घी की कमी नही थी। पहाड़ में सोर का क्षेत्र कृषी व पशु धन में समृद्ध था। स्थानीय संसाधनों से सरलता से, बिना अधिक कष्ट किए, रहने के लिए मकान बन जाता था। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में शून्य था।

जैसा कि सर्वविदित है पूर्व में हमारे देश में गुरुकुल शिक्षा पद्धति थी। गोपाल सिंह की आयु अध्यन करने लायक हुई तो उसको शिक्षित करने के लिए परिवार वालों ने एक गुरु (शिक्षक) पूर्णानंद पाण्डे को नियुक्त किया। गुरु पूर्णानंद पाण्डे ने गोपाल सिंह को कक्षा पाँच तक की शिक्षा दी। परिवार के पास जमींदारी का कार्य अधिक होने के कारण गोपाल सिंह अधिक शिक्षा प्राप्त नही कर पाए। अतः गोपाल सिंह अपने परिवार के साथ जमींदारी में हाथ बटाँने लगे। उमर बड़ने के साथ गोपाल सिंह का शरीर भी बड़ने लगा और युवा अवस्था आते ही गोपाल सिंह का शरीर सुंन्दर और बलिष्ठ बन गया।

अंग्रेजों के शासन काल में और स्वतंत्रता के पश्चात् हमारे देश भारत में पचास और साठ के दशक में सेना में भर्ती करने के लिए सैन्य कर्मियो का दल गाँव-कस्बों में जाता था, स्वस्थ तथा अच्छी कद काठी के युवकों को सेना में भर्ती कर लिया जाता था। इसी प्रक्रिया के तहत् कटियानी गाँव के गोपाल सिंह सन् 1961 में सेना की कुमाऊं रेजिमेंट में भर्ती हो गए। सेना में प्रशिक्षण प्राप्त के लिए गोपाल सिंह को कुमाऊं रेजिमेंट सैन्टर रानीखेत भेजा गया। लगभग नौ माह का सैन्य प्रशिक्षण पूरा करने के पश्चात्  गोपाल सिंह को 6 कुमाऊं रेजिमेंट में स्थानान्तरण कर दिया गया।

6 कुमाऊं रेजिमेंट उत्तर-पूर्व में अरुणाचंल प्रदेश में चीन सीमा के निकट सीमा की रखवाली के लिए तैनात थी। 6 कुमाऊं रेजिमेंट का सीमा में रखवाली क्षेत्र विस्तृत था, वह उस सीमा क्षेत्र में अनेक स्थानों में तैनात थी। सबसे संवेदनशील सीमा क्षेत्र ओलांग में था। गोपाल सिंह को अरुणाचंल प्रदेश का क्षेत्र अपने पहाड़ का जैसा लगा था। अरुणाचंल प्रदेश की जलवायु, कृषी उत्पादन और प्रकृति हमारे उत्तराखण्ड के समान हैं। गोपाल सिंह रेजिमेंट में अथक परिश्रम और ईमानदारी के साथ अपने सैनिक कार्यो को लगन से करते थे। गोपाल सिंह के अन्दर कुछ कर दिखाने का जज्बा भरा हुआ था।

सीमा में देश रक्षा में तैनात सभी सैनिकों को .303 राॅइफल और पाँच-पाँच राॅउंड मिले हुए थे। प्रत्येक जवान को आदेश था कि अपनी राॅइफल और राॅउंडों को अपनी आत्म रक्षा और देश हीत में चैबिस पहर अपने पास रखेगा। इसलिए कि पता नही कब शत्रु देश के सैनिक हमारे देश की सीमा का अतिक्रमण कर हमारे उपर जानलेवा हमला करके हमारे देश में विध्वंसक कार्यवाही करे। अतः देश विरोधी कार्यवाही से सुरक्षित रहते हुए प्रत्येक सैनिक अपने पास हथियार रखता था। 6 कुमाऊं रेजिमेंट का  प्रत्येक सैनिक चाहे वह निद्रा की अवस्था में हो तो बगल में राॅइफल होती थी, बैठा हो, खाना खाॅ रहा हो, नित्य कर्म से निवृत हो रहा हो या कोई भी कार्य कर रहा हो उसके कंधे में राइफल और पोच में पाँच राॅउंड रहते थे।

सन् 1962 में चीन के साथ युद्ध में

20 अक्टूबर सन् 1962 के दिन चीन ने हमला कर दिया। चीन के सेना के पास बहुत अच्छी क्षमता वाले स्वचलित हथियार थे और 6 कुमाऊं रेजिमेंट के एक सैनिक को दस चीनी सैनिक घेर कर अपनी गिरफ्त में ले रहे थे। लेकिन 6 कुमाऊं रेजिमेंट के सैनिक कम संख्या में होते हुए भी चीनी सेना का प्रतिरोध कर रहे थे। हमारे सैनिकों के पास मात्र पाँच राउंड थे, वह पाँच राॅउंड आरंभ के दस मिनट के अंदर समाप्त हो गए थे। उसके बाद  हमारे सैनिकों के पास मात्र राॅइफल थी, लेकिन गोलियाँ नही थी। अतः राॅइफल को अब हमारे सैनिक डंडे की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। गोला-बारुद, फ्योल डंप और अन्य भंडारों को स्वयं आग दी गई थी। जब चीनी सैनिकों का प्रतिरोध करने के लिए कुछ साधन नहीं बचा तो चीनी सैनिकों से दूर, हमारे बहुँत से सैनिक रात के अंधेरे का लाभ लेकर पहाड़ के बीहड़ जंगल में छुप गए।

चीनी सेना के सैनिक आधुनिक स्वचलित हथियारों से लैंस थे, फिर भी वह भारत की 6 कुमाऊं रेजिमेंट के निहत्थे जवानों के उपर घबराते हुए गोली चला रहे थे। भारत के वीर जवान घायल अवस्था में भी चीनियों को अपने हाथों की गिरफ्त लेना चाह रहे थे और चीनी सिपाही हथियार होते हुए भी घबराकर दूर हट रहे थे।   

चीनी सेना की गोलीयों से बचने के लिए बहुत से सैनिक रात के अंधरे में पहाड़ के बीहड़ जंगल की ओर चले तो गए, लेकिन जायें तो कहाँ जायें! औलांग के बगल में ब्रह्मपुत्र नदी बहती थी, सैनिकों को मालुम था कि यह नदी चीन से आती है और आसम राज्य की ओर बहती है, अतः ब्रह्मपुत्र नदी को देखते हुए 6 कुमाऊं रेजिमेंट के बचे हुए सैनिक नदी की बहती धारा की दिशा में जाने लगे। अरुणाचंल प्रदेश के जंगल वाले विशाल पहाड़ों को चीरती ब्रह्मपुत्र नदी की बहती धारा की दिशा में जाने के प्रयास में अनेक जवान पहाड़ से फिसलकर गिरते हुए ब्रह्ममपुत्र नदी में समा गए।

अपने साथियों को इस प्रकार ब्रह्मपुत्र नदी गिरते हुए देखकर जवान बहुत दुखी हो जाते थे। विशाल चट्टानों वाले पहाड़ी क्षेत्र व बियावान जंगल में किस को अपना दुःख प्रकृट करें! न खाने कुछ था, न पहनने को कुछ! बस मजबूरी थी कि वह ब्रह्मपुत्र नदी की बहती दिशा को देखते हुए उस ओर चलते रहने की। रास्ते में जंगल में वृक्षों में लगे जंगली फल दिखे तो उनको खाॅ लिया, हरी मुलायम घास दिखी तो उसको खाॅ लिया। बिना अन्न-पानी के बहुत दुख और कष्ट में जंगलों में भटके इन सैनिकों के दिन गुजर रहे थे। लगभग एक माह के पश्चात् 21 नवंबर 1962 के दिन जब चीन ने एक तरफा युद्ध विराम की घोषणा की तब इन सैनिकों की सुध ली गई। भूख प्यास से ब्याकुल इन सैनिकों के लिए हवाई जहाज के द्वारा जंगल में भोजन के पैकेट गिराए गए। जंगल में भारी संकट और कष्ट में घिरे इन सैनिकों के मध्य गोपाल सिंह धामी भी थे।

गोपाल सिंह धामी सन् 1962 के युद्ध में अनेक कष्टों को सहते हुए अपने को जीवित अवस्था में रख पाए, इस बात के लिए वह अपने उपर ईष्टदेव की कृपा व अपने माता-पिता का आशिर्वाद मानते थे। भारतीय सेना में एक कहावत है कि,

 एक बार भारत के किसी जरनल ने युद्ध में घायल एक जवान से पूछा, “कैसे हो?”

तो जवान ने उत्तर दिया, “साहब, अगर जिन्दा रहे तो दुश्मन से फिर लड़ंगे।”

गोपाल सिंह धामी सन् 1962 के चीन के साथ युद्ध में शायद इसलिए जीवित रहे कि वह देश की और अधिक सेवा कर सकें। 6 कुमांऊ रेजिमेंट पुनः संगठित होकर, चीन के इस प्रकार के आक्रमण का समना करने के लिए अपने सैनिकों को ओर अधिक परिश्रम के साथ युद्ध का प्रशिक्षण देने लगी। गोपाल सिंह धामी ने युद्ध में जिजीविषा को धैर्य के साथ सहन किया था। वह अब एक कुशल सैंनिक बन चुके थे।

अंग्रेजों से सन् 1947 में हमारे देश को स्वतंत्रता मिली, लेकिन इसके साथ ही देश को दो टुकड़ों में बाँट दिया गया। एक हमारा देश भारत तो दूसरा देश पाकिस्तान। स्वतंत्रता के पश्चात् पाकिस्तान हमारे देश के लिए एक नाशूर बन गया। क्योकि पाकिस्तान का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ था और हमारे देश भारत का निर्माण एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के सिद्धांत  पर हुआ था। लेकिन पाकिस्तान के नेताओं के अन्दर हमारे देश भारत के प्रति द्वेष की भावना बुरी तरह भरी हुई थी। अक्टूबर सन् 1947 में पाकिस्तानी सेना ने कबाइलियों के वेष में कश्मीर में हमला किया था। तब हमारे देश की सेना ने उनको पिछे वापस मार भगाया था। लेकिन पाकिस्तान ने 1965 में फिर अपनी कूटनीति के चलते हमारे देश के उपर आक्रमण कर दिया था।

5 अगस्त सन् 1965 के दिन पाकिस्तान ने ‘आपरेशन जिब्राल्टर’ के नाम से कश्मीरियों की वेष-भूषा में कश्मीर के अन्दर लगभग 30,000 अपने सैनिकों की घुसपैठ करा दी। पाकिस्तान ने सोचा कि शायद कश्मीर की जनता पाकिस्तान में विलय की चाह में भारत के विरुद्ध विद्रोह कर देगी और भारत का संचार तंत्र तथा परिवहन  व्यवस्था भंग हो जाएगी। लेकिन हुआ उल्टा, कश्मीर के निवासियों ने भारतीय सेना को इस घुसपैठ के बारे में जानकारी दी। भारत की सेना ने घुसपैठियों की पहचान कर उनके दुस्साहस को विफल करना आरंभ किया। 15 अगस्त के दिन हमारे देश की सेना ने पाकिस्तान की सीमा पार कर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के अन्दर 8 किलोमीटर तक हाजी पीर पर कब्जा कर लिया था। घुसपैठियों का रास्ता रोक दिया था।

पाकिस्तान का यह अभियान बुरी तरह असफल हो गया था। पाकिस्तान को लगा कि अब पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर का मुख्य शहर मुज्जफराबाद भारत के कब्जे में जाने वाला है। इस दबाव  को कम करने के लिए पाकिस्तान ने एक नया अभियान आपरेशन ग्रैंड स्लैम  शुरु कर दिया।

1 सितंबर 1965 के दिन पाकिस्तान ने ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम के तहत सामरिक दृष्टी से जम्मू-कश्मीर के महत्वपूर्ण शहर अखनूर के ऊपर आक्रमण कर दिया। पाकिस्तान का उद्देश्य अखनूर में हमला कर जम्मू-कश्मीर का भारत से संपर्क तोड़ दिया जाय और संचार तंत्र तथा परिवहन व्यवस्था को विफल कर दिया जाय। हमारा देश इस आक्रमण के लिए तैयार नही था। पाकिस्तान के पास अमेरिका से आयात किए गए आधुनिक पैटन टैंक थे। पैटन टैंक उस समय विश्व के सर्वोत्तम टैंक माने जाते थे। लेकिन हमारे देश भारत की सेना ने पाकिस्तान की सेना को अपनी विरता से धूल चटा दी। भारत की सेना ने पंजाब में नया मोर्चा खोलकर पाकिस्तान को पराजित कर दिया। खेमकरण सैक्टर में असल उत्तर के युद्ध में 4 ग्रनेडियर के वीर सैनिक अब्दुल हमीद ने पाकिस्तान के पैटन टैंकों का कब्रिस्तान बना दिया था।

पाकिस्तान की बहुत अधिक हानि के साथ पराजय हुई। पाकिस्तान को पराजय का स्वाद चखाने वाली सेना की रेजिमेंटों में एक रेजिमेंट 6 कुमाऊं रेजिमेंट भी थी। गोपाल सिंह धामी 6 कुमाऊं रेजिमेंट के एक अहम अंग थे। गोपाल सिंह धामी को युद्ध क्षेत्र में जहाँ भी, जिस कार्य को करने का उत्तरदायित्व दिया गया, वह उन्होंने बखूबी पूरा किया। गोपाल सिंह धामी अपनी रेजिमेंट के साथ इच्छोगिल नहर पार कर लाहौर के निकट पहुँच गए थे, लाहौर का हवाई अड्डा हमारी भारतीय सेना के निशाने में आ गया था। पाकिस्तान के इरादों को भारतीय सेना ने विफल कर दिया था। जवानों का मनोबल बड़ाने के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादुर शात्री जवानों के मध्य युद्ध के मोर्चे में पहुँचे थे।

स्वतंत्रता के पश्चात् पाकिस्तान हमारे देश भारत के साथ दो युद्ध अक्टूबर, सन 1947 तथा सितंबर, सन् 1965 में लड़ चुका था। दोनों युद्धों में पाकिस्तान पराजित हुआ। लेकिन पाकिस्तान ने सन् 1971 में हमारे देश भारत के उपर पुनः आक्रमण कर दिया। पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान में बंग्लादेश) में उस समय पाकिस्तानी शासन के विरुद्ध अपनी स्वतंत्रता के लिए हिंसक आंदोलन चल रहा था। पूर्वी पाकिस्तान की मुक्तिवाहिनी स्वतंत्रता के लिए हिसंक आंदोलन कर रही थी।

सन् 1971 में गोपाल सिंह धामी की 6 कुमाऊं रेजिमेंट हैदराबाद में थी। पाकिस्तान के साथ युद्ध की संभावना को देखते हुए 6 कुमाऊं रेजिमेंट को जम्मू-कश्मीर के पाकिस्तानी सीमा के निकट सांभा में भेज दिया गया। एक रेजिमेंट का अपने पूरे हथियारों, गोला-बारुद, वाहनों, तथा आवश्यकता की संपूर्ण भंडारण के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान में जाना अति कठीन व अति संवेदनशील कार्य होता है। दूर हैदराबाद से जम्मू-कश्मीर के सांभा में एक रेजिमेंट का अपनी पूरी तैयारी के साथ जाना एक गंभीर विषय था।

सांभा में पाकिस्तान की सीमा के निक्ट पहुंचते ही 6 कुमाऊं रेजिमेंट ने परिश्रम करके अपनी सुरक्षा पंक्ति को मजबूत कर लिया था। अचानक ही पाकिस्तान ने 3 दिसंबर सन् 1971 को पूर्वी सीमा में हमारे देश भारत के विरुद्ध युद्ध का मोर्चा खोल दिया। भारत की सेना ने पाकिस्तान की सेना का मुँहतोड़ उत्तर दिया। यह युद्ध मुख्य रुप से पूर्वी सीमा में लड़ा गया था। भारत की सेना ने स्वतंत्रता के संघर्ष कर रही मुक्तिवाहिनी का समर्थन किया। भारत की सेना ने 13 दिन के इस युद्ध में पाकिस्तान को पराजित कर उनके 93,000 हजार सैनिकों का आत्मसमर्पण करवाया।  भारत की सेना द्वारा पाकिस्तानी सेना के 93,000 सैंनिकों का कराया गया आत्मसमर्पण एक विश्व कीर्तिमान है।

गोपाल सिंह धामी अपनी 6 कुमाऊं रेजिमेंट के साथ देश की पश्चिमी सीमा, सांभा सैक्टर में युद्ध के मोर्चे में शत्रु के विरुद्ध डठकर मुकाबला करते हुए, शत्रु के नापाक इरादों को विफल कर, सन् 1971 के युद्ध में पाकिस्तान के विरुद्ध अपने देश को विजय श्री दिलवायी। गोपाल सिंह धामी लगभग 20 वर्ष सेना में सेवा करने के पश्चात् सन् 1978 में सेवामुक्त हा,े अपने घर पैंशन आ गए।

घर पेंशन आने के पश्चात् गोपाल सिंह धामी समाज के उत्थान व कल्याण के लिए क्रियाशील रहते थे। जब गोपाल सिंह धामी पेंशन आए थे, उन दिनों उत्तर प्रदेश से अलग राज्य के लिए ‘उत्तराखण्ड राज्य बनाओ’ आदोलन चल रहा था। उत्तराखण्ड क्रान्ति दल पूरे कुमाउ और गढ़वाल में पृथक ‘उत्तराखण्ड राज्य बनाओ’ के लिए आन्दोलन की अगुआई कर रहा था। गोपाल सिंह धामी ‘उत्तराखण्ड क्रान्ति दल’ में सम्मिलित हो, पृथक ‘उत्तराखण्ड राज्य बनाओ’ आदोलन में कूद गए। उत्तराखण्ड क्रान्ति दल के सक्रिय सदस्य रहते हुए उत्तर प्रदेश से पृथक राज्य उत्तराखण्ड राज्य बनाने के लिए वह आन्दोलन करते रहे। गोपाल सिंह धामी अपने देश भारत के लिए तीन युद्ध लड़ चुके थे, तीनों युद्ध वीरता और साहस के साथ शत्रुओं के विरुद्ध लड़ चुके थे। घर पैंशन आकर वह अब वह ‘उत्तराखण्ड राज्य बनाओ’ के लिए आन्दोलन कर रहे थे।

अपने जीवन की चैथी पारी में भी गोपाल सिंह धामी सफल हो गए थे। उनके सपनों का राज्य, उत्तराखण्ड राज्य बन चुका था। अपने जीवन में वसूलों से चलने वाले दृढ़ सकंल्प वाले गोपाल सिंह धामी की 14 सितंबर सन् 2022 को मृत्यु हो गयी।

 स्वर्गीय गोपाल सिंह धामी के बारे में यह संस्मरण लेखक को उनके पुत्र श्री विजेन्द्र सिंह धामी (एडवोकेट) व डा. चन्द्र बल्लब जोशी (पिथौरागढ़ के प्रसिद्ध रंगकर्मी व शिक्षक) के द्वारा प्राप्त हुए। श्री विजेन्द्र सिंह धामी स्वयं एक राज्य आंदोलनकारी रहे है। स्वर्गीय गोपाल सिंह धामी व उनके पुत्र श्री विजेन्द्र सिंह धामी ने राज्य आंदोलन के दौरान अनेक मंच सांझा किए थे। डा. चन्द्र बल्लब जोशी ने स्वयं बताया कि, “एक बार स्वर्गीय गोपाल सिंह धामी ने ”पलभा“ और “उदयमान“ दो शब्दों के अर्थ मेरे से पूछे, तो मैं अचंभित रह गया था, क्योकि इन शब्दों के अर्थ बताने में हिन्दी के उच्चशिक्षित विद्यार्थी भी असहाय हो जाते हैं। स्वर्गीय गोपाल सिंह धामी एक वीर सैनिक व राज्य आंदोलनकारी होने के साथ विलक्षण प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे।                                                  

(लेखक सेना के सूबेदार पद से सेवानिवृत्त हैं. एक कुमाउनी काव्य संग्रह बाखली व हिंदी कहानी संग्रह गलोबंध, सैनिक जीवन पर आधारित ‘सिलपाटा से सियाचिन तक’ प्रकाशित. कई राष्ट्रीय पत्र—पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख प्रकाशित.)

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