मेरे पांव में चमचाते शहर की बेड़ियां

ललित फुलारा युवा पत्रकार हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं। इस लेख के माध्यम से वह पहाड़ से खाली होते गांवों की पीड़ा को बयां कर रहे हैं।

शहर हमें अपनी जड़ों से काट देता है. मोहपाश में जकड़ लेता है. मेरे पांव में चमचाते शहर की बेड़ियां हैं. आंगन विरान पड़ा है. वो आंगन जिसमें पग पैजनिया थिरकती थीं. जिसकी धूल-मिट्टी बदन पर लिपटी रहती थी. जहां ओखली थी. बड़े-बड़े पत्थर पुरखों का इतिहास बयां करते थे. किवाड़ की दो पाटें खुली रहती थी. गेरुए रंग पर सफेद ऐपण, निष्पक्षता, निर्मलता और सादगी की परंपरा को समेटे हुई थी.

कुछ इस तहर विरान पड़े हैं पहाड़ के गांव (सभी फोटो गूगलबाबा से)

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त्रिभुजाकार छतों पर जिंदगी के संघर्ष, उतार-चढ़ाव और सफलता में धैर्य और विनम्रता की सीख छिपी थी. पर अब सब कुछ विरान है. गांव खाली पड़ा है. आप चाहे तो उत्तराखंड के 1668 भुतहा गांवों में मेरे गांव को भी शामिल कर सकते हैं. पलायन के आंकड़ें रोज़गार पैदा करते तो मैं अपने पांवों की बेड़ियों को काट देता और बबूल के पेड़ पर अमरबेल की तरह लिपटी शहरी असंवेदनशीलता से दूर छिटक जाता. पर कैसे? कौन-सी सरकारी नीति की बदौलत?

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मेरा राज्य 18 साल का हो गया और मुझे पलायन किए एक दशक. पहले शिक्षा के लिए राज्य के भीतर पलायन और उसके बाद रोज़गार के लिए राज्य से बाहर पलायन. अब स्मृतियों में ही वो भरा-पूरा गांव है, जहां मेरा बचपन बिता. कितनी चहल-पहल हुआ करती थी. जिन रास्तों पर अब लंबी-लंबी घासें उग आई हैं, वो रास्ते कितने साफ हुआ करते थे. जिन खेतों में बंदरों और सुअरों का राज है, उनमें फसल लहलाती थी. जिन किवाड़ों पर बड़े-बड़े ताले लटके हुए हैं, वो बाट चलते लोगों को चाहा (चाय) के लिए आमंत्रित करते थे और जिंदगी के संघर्ष को बयां करती विशाल छतें ढह गई हैं. स्मृतियां लंबी हैं और गांव में नाम मात्र के जन. कुछ बुढ़ीं, मुरझाये चेहरे वाली औरतों के गोठ से धुआं अब भी उठ रहा है क्योंकि इन्हें अपने गाय-बकरियों के संग रहना है और गौं में ही मरना है. असल मायने में ये ही बुजुर्ग पहाड़ के रखवाले, प्रेमी हैं। बाकि आंकड़ें, लेख और नीतियां हैं, जो चीड़ के घने जंगलों के नीचे की तलहटी में बसे गांवों से कोसो दूर एसी वाले कमरों में बनते हैं, लिखे जाते हैं।

शहर से अगर सरकारें गांव की तरफ देखेंगी तो पलायन होगा ही, क्योंकि जनता तब शहर की तरफ देखेगी। क्या वजह है कि लोगों में तराई के दूर-दराज के गांवों को छोड़कर भाभर की तरफ, शहरी इलाकों में बसने की होड़ मची हुई है। क्योंकि राज्य बनने के बाद से ही सरकारों ने कभी भी बेसिक शिक्षा और स्वास्थ्य की तरफ कोई ध्यान ही नहीं दिया।

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पिछले 10 सालों में पहाड़ के 3.83 लाख से ज्यादा लोगों ने गांव छोड़ा है. इनमें से 50 फीसदी ने रोजगार के लिए पलायन किया है. 2009 से लेकर 2017 के बीच 700 से ज्यादा गांव खाली हुई हैं. ये आंकड़े किसी एनजीओ के नहीं बल्कि हाल ही में माननीय मुख्यमंत्री की उपस्थिति में सरकारी विभाग ने जारी किए हैं. ग्रामीण विकास एवं पलायन आयोग के अध्यक्ष एसएस नेगी इस बात से खुश हैं कि पलायन करने वालो में 70 फीसदी लोग राज्य के बाहर नहीं गए, बल्कि उन्होंने उत्तराखंड के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में पलायन किया है. और वो हिस्सा कहीं वो तो नहीं जो हमेशा से ही पहाड़ी गांवों की उपेक्षा करता है, जहां ठेठ पहाड़ी भी शहरी मिजाज वाला हो जाता है.

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2011 की जनगणना में भुतहा गांवों की संख्या 968 थी. अब यह 1668 हो गई है. सबसे ज्यादा पलायन रुद्रप्रयाग, टिहरी, पौड़ी, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा जिलों के गांवों में हुआ है. इसलिए ही मैंने कहा आप पलायन में मेरे गांव को भी शामिल कर सकते हैं क्योंकि वो भी अल्मोड़ा जिले में ही आता है और मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि पूरी तरह से खाली होने के बाद भी इस रिपोर्ट में उसका नाम नहीं होगा, क्योंकि वहां तक कोई सरकारी मुलाजिम शायद ही गया होगा होगा।

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दिल्ली विश्वविद्यालय में एडाक पर अध्यापक प्रकाश उप्रेती कहते हैं, ‘शहर से अगर सरकारें गांव की तरफ देखेंगी तो पलायन होगा ही, क्योंकि जनता तब शहर की तरफ देखेगी। क्या वजह है कि लोगों में तराई के दूर-दराज के गांवों को छोड़कर भाभर की तरफ, शहरी इलाकों में बसने की होड़ मची हुई है। क्योंकि राज्य बनने के बाद से ही सरकारों ने कभी भी बेसिक शिक्षा और स्वास्थ्य की तरफ कोई ध्यान ही नहीं दिया। सरकार के पास नीति की बजाय हर चार-पांच साल में एक आयोग होता है और यह आयोग सिर्फ आंकड़ें देता है, समाधान कभी नहीं देता। पलायन का मूल कारण ही रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं और सरकारों की जनविरोधी नीतियां हैं.

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जब गांव में रहने वाले लोग शहरों के लुभावने किस्से सुनते हैं तो उनके मन में भी शहरों की तरफ जाने के सपने पलने लगते हैं। बस यही से पलायन का ख्याल जन्म लेता है और एक दिन वो पलायन कर जाते हैं।

प्रकाश ये भी मानते हैं कि राजधानी अगर गैरसैंण होती तो क्या पता शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में कुछ बदलाव होता, क्योंकि गैरसैंण में अगर मंत्री बैठता तो दूर-दराज के गांवो में मास्टर और अस्पतालों में सिएमओ जरूर बैठता। प्रकाश कहते हैं, मैं जिस गांव से आता हूं वहां से 27 किलोमीटर दूर इंटरकॉलेज है और डिग्री कॉलेज के लिए रामनगर आना पड़ता है। रोजगार की तो पूछो मत, खेती थी जो अब बंजर भूमि में तब्दील हो रही है और चंद लोग बचे हैं जो अब भी खफ रहे हैं।

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हर फिक्र से बेरपवाह बचपन (फोटो गुगलबाबा से)

वहीं, शोधार्थी छात्रा अंकिता पंवार पलायन को दूसरे नजरिए से देखती है। वो पहाड़ों से पलायन की एक बड़ी वजह रोजगार, शिक्षा के साथ ही एक प्रवृत्ति को भी मानती हैं। अंकिता कहती हैं, मामला सिर्फ इतना नही है। शहरो के प्रति आकर्षण औऱ ग्रामीण और पहाड़ी जीवन के प्रति हेय दृष्टि भी हमें शहरों की ओर खींचती है। सबसे बड़ी बात जो मैंने मुनिरका में रहते हुए महसूस की, कि खुली और ताजी हवा में सांस लेने वाले मेरे गाँव के लोग इन बंद गलियों में कैसे जिंदा रह पाते हैं?  प्राकृतिक स्रोत का पानी, पीने वाले लोगों को जब पानी खरीद के पीना पड़ता है तो कैसा लगता होगा?

अंकिता कहती हैं, गांव जाने पर लोग शहर की ज़िंदगी के लुभावने अनुभव तो शेयर करते हैं, लेकिन कभी यह नहीं बताते कि उनकी जिंदगी कैसे कट रही है. मॉल और सड़कों की बात होती है लेकिन हवा-पानी की बात कोई नहीं करता. अंकिता कहती है जब गांव में रहने वाले लोग शहरों के लुभावने किस्से सुनते हैं तो उनके मन में भी शहरों की तरफ जाने के सपने पलने लगते हैं। बस यही से पलायन का ख्याल जन्म लेता है और एक दिन वो पलायन कर जाते हैं।  इस तरह मेरे जैसे ही लाखों लोग हैं, जिनके पांव में चमचाते शहर की बेड़ियां हैं, गांव खाली और आंगन विरान है।

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