पलायन का दर्द

  • पार्वती जोशी

ओगला में बस से उतरते ही पूरन और उसके साथी पैदल ही गाँव की ओर चल दिए. सुना है अब तो गाँव तक सड़क बन गई है. मार्ग में अनेक परिचित गाँव मिले; जिन्हें काटकर सड़क बनाई गई है . वे गाँव अब बिल्कुल उजड़ चुके हैं. वे गाँव वाले सरकार से अपने खेतों का मुआवज़ा लेने के लिए गाँव आए होंगे; उसके बाद किसी ने गाँव की सुध भी नहीं ली होगी. जो लोग गाँव छोड़कर नहीं जा पाए, दूर-दूर उनके खंडहर नुमा घर दिखाई दे रहे हैं.

ओगला, डीडीहाट.फोटो: गूगल से साभार

दूसरों को क्या दोष दें ,वे लोग भी तो आठ साल बाद गाँव लौट रहे हैं. अभी भी कहाँ लौट पाते, अगर करोना नाम की महामारी ने मुम्बई शहर को पूरी तरह से अपने चपेट में नहीं ले लिया होता. एक तरह से वे लोग जान बचाकर ही भागें हैं. पूरन सोच रहा है कि जिस स्कूल में उन्हें क्वॉरंटीन में रखा जाएगा,वहीं से तो कक्षा पाँच पास करके वह हरिद्वार भाग गया था. वहीं के गुरुकुल महाविद्यालय से पूर्व मध्यमा फिर उत्तर मध्यमा पास करके वह शास्त्री बन गया था. महाविद्यालय के प्राचार्य जी की पहचान मुम्बई के सिद्धिविनायक मंदिर के पुजारी जी से थी, उन्हीं के कहने पर वह मुंबई जाकर उस मंदिर के पुजारियों के दल में शामिल हो गया.

अच्छी आमदनी और रहने के लिए कमरा, अकेले आदमी को इससे अधिक और क्या चाहिए. उसके बाद से जब भी वह गाँव आया, किसी न किसी को वह नौकरी दिलाने के लिए अपने साथ ले गया. किसी को होटल में किसी को कपड़े की मिल में उसने नौकरी लगादी. किन्तु करोना वायरस का संक्रमण बढ़ते ही जब लॉकडाउन शुरू हुआ, तो मंदिर, होटल कल-कारख़ाने सब बंद हो गये. सब लोगों को रहने और खाने पीने और रहने की समस्या हो गई. उसके मंदिर के बड़े पुजारी जी ने भी सबसे कह दिया कि अब अपना इंतज़ाम खुद करो. मंदिर के पास इतना धन नहीं है कि इतने पंडितों को खाना खिला सकें.

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से उन्हें कोई आशा नहीं थी. वे पहले अपने राज्य के लोगों की मदद करेंगे, फिर दूसरे राज्यों से आए लोगों के बारे में सोचेंगे. वैसे भी महाराष्ट्र सरकार दूसरे राज्य के लोगों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करने के लिए बदनाम है. वो तो भला हो अपने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री का, जिन्होंने अपने राज्य के लोगों को घर बुलाने के लिए गाड़ियों का इंतज़ाम किया, तभी तो वे लोग यहाँ तक पहुँच पाए हैं.

अपने पुराने स्कूल में पहुँच कर उसे इतना सुकून मिला कि दूसरे ही दिन स्कूल के चौकीदार से कुटला माँगकर उसने स्कूल की क्यारियों की खुदाई शुरू कर दी. उसकी देखा देखी उसके साथी भी उसका हाथ बँटाने लगे. गुड़ाई करते करते वह सोचने लगा कि उसका घर तो अब खण्डहर हो चुका होगा, यहाँ से जाकर वह कहाँ रहेगा?

पूरन ये सोच ही रहा था कि उसके कानों में मंदिर की घंटी की आवाज़ पड़ी. वे सभी लोग वहीं रुक गये. देखा तो सड़क के किनारे मंदिर का बड़ा सा गेट बना है, जिसमें सफ़ेद और लाल रंग के अनेक निशान बँधे हुए हैं, साथ ही बड़ा सा घंटा बँधा है, वहीं से सीधे सीढ़ियाँ मंदिर तक बनी हैं. मंदिर पर दृष्टि गई, तो वह पहचाना हुआ लगा, जब गेट पर बड़े अक्षरों में देपातल मंदिर लिखा हुआ देखा, तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा,कि यहाँ भी अब इतना बदलाव आ चुका है. अपने गाँव के ईष्टदेवी का मंदिर, जहाँ जाने के लिए पहले गाड़ के चिकने पत्थरों पर पाँव रखकर बड़ी कठिनाई से जाना पड़ता था, वहीं के लिए इतना सीधा रास्ता. अपनी ईष्टदेवी के दर्शन करने का मन था किन्तु वे लोग दूसरे राज्यों से आए थे, इसलिए उन्हें वहाँ जाने की इजाज़त नहीं थी. सड़क से ही देवी माँ को प्रणाम कर वे लोग स्कूल को चल दिए. वहाँ पहुँचते ही उन्होंने देखा कि उनके गाँव की तरफ़ वाले गेट के पास उनके रिश्तेदार और मित्रगण उनके लिए हाथ हिला रहे थे. कुछ लोग उनके लिए खाना भी लाए थे. उन लोगों में अपने प्रिय नान कका और काखी को न देखकर पूरन का मन उदास हो गया. ईजा-बाबू के मरने के बाद वे दोनों ही तो उसके अपने थे. नहीं तो ठुलदा लोगों ने तो कभी उसकी सुध भी नहीं ली. वैसे भी उन दोनों ने उसे अपने ईजा-बाबू से ज़्यादा प्यार दिया था. अपने बेटे दिनेश से उसे कभी कम नहीं समझा.

सांकेतिक फोटो. गूगल से साभार

अपने पुराने स्कूल में पहुँच कर उसे इतना सुकून मिला कि दूसरे ही दिन स्कूल के चौकीदार से कुटला माँगकर उसने स्कूल की क्यारियों की खुदाई शुरू कर दी. उसकी देखा देखी उसके साथी भी उसका हाथ बँटाने लगे. गुड़ाई करते करते वह सोचने लगा कि उसका घर तो अब खण्डहर हो चुका होगा, यहाँ से जाकर वह कहाँ रहेगा? उसे अपने बारे में कुछ तो सोचना ही पड़ेगा. ये वायरस पता नहीं कब तक रहेगा. फिर सोचने लगा कि अब तो गाँव तक सड़क बन चुकी है, सड़क के किनारे की अपनी ज़मीन पर वह एक ढाबा खोल लेगा. उसके बहुत से साथी मुम्बई के होटलों में काम कर चुके हैं. उन लोगों से मुम्बई की भेल पूरी और बटाटा बड़ा बनवाएगा. भेलपूरी के नाम पर उसे कुछ पुरानी बात याद आ गई. और वह स्वयं ही हँस पड़ा. तभी किशोर ने पूछा कि क्या हुआ पूरन दा? अकेले क्यों हँस रहे हो? अरे कुछ नहीं, एक पुरानी बात याद करके हँसी आ गई, जब भेलपूरी की दुकान में काम करते हुए पंकज ने कहा था कि क्या बात है पूरन दा! यहाँ वाले अपने लिए चटपटी भेल बनाने के लिए क्यों कहते हैं? उसकी बात सुनकर उन कठिन परिस्थितियों में भी सबकी हँसी छूट गई.

चलते-चलते सोचने लगा कि अब वह गाँव छोड़कर कहीं नहीं जाएगा. कका-काखी की देखभाल करेगा, उससे जितना हो सकेगा, वह खेत भी कमायेगा, खर्चा चलाने के लिए सड़क के किनारे की अपनी ज़मीन पर अपने साथियों के साथ एक ढाबा भी खोलेगा. अपनी ईष्टदेवी के मंदिर में जाकर पूजा पाठ में पंडित जी की मदद भी करेगा. मन में यही दृढ़ संकल्प लेकर उसके क़दम तेज़ी से गाँव की ओर बढ़ने लगे.

स्कूल की साफ़-सफ़ाई के बाद उन लोगों ने थोड़ा-थोड़ा पैसा मिलाकर स्कूल की रंगाई पुताई भी कर डाली. अब स्कूल बिलकुल नया लग रहा था. उन्हें लगा, मानो उन्होंने स्कूल को गुरुदक्षिणा दे डाली हो. इस काम से उन लोगों को बहुत सुकून मिला. क्वॉरंटीन पूरा होने पर किशोर और पंकज ने उसे अपने घर चलने के लिए कहा, वह इस पर विचार कर ही रहा था कि स्कूल के गेट पर गाँव वालों के साथ नान कका को देखकर उसकी आँखों में आँसू आ गए.

इतने दिन मिलने के लिए न आने की उलाहना देने पर वे बोले, अरे बेटा! तू मुम्बई जैसे महानगर से आ रहा है, तेरे लिए घर को ठीक-ठाक करने में ही इतने दिन लग गए. अब घर चल कर तू देखेगा कि हम चार भाइयों की गाँव के बीच वाली पट्टी, जो दूर से चमकती थी, अब कैसी खण्डहर हो चुकी है. भवानीराम को बुलाकर हमारे वाले किनारे के हिस्से को किसी तरह हम दोनों प्राणियों के रहने लायक़ बनाया है. तुम्हारा घर तो पूरी तरह टूट चुका है, लेकिन ददा जिसमें सोते थे, वह पटखाट अभी भी ठीक है, उसे मैंने तेरे लिए अपने चाख में डलवा दिया है. फिर कका अपने मन की व्यथा मिटाने के लिए उसे बताने लगे कि तेरी सभी बहनों की शादी करने के बाद हम दोनों तो सब छोड़ छाड़ कर उस कुल कलंक के पास देहरादून चले ही गये थे, किन्तु तू तो अपना ही है, तुझसे अब क्या छुपाऊँ, ख़ैर घर जाकर अपनी काखी का टूटा हाथ देखकर तू सब समझ ही जाएगा. ये समझ ले कि वह हमारे लिए मर गया और हम उसके लिए. अकेले दिन कट ही रहे थे कि तू हमारा सहारा बनने आ गया. अब तू कहीं मत जाना. परिवार के सब लोग तो पिथौरागढ़, हल्द्वानी या देहरादून बस गये हैं, अब तू ही इस ज़मीन की देखभाल कर. नहीं तो पुरखों की थाती यूँ ही बंजर हो जायेगी. भरापुरा ये गाँव इस तरह उजाड़ हो जाएगा, कभी किसी ने सोचा था? वह तो भला हो जीवन का, जिसने सेना में भर्ती हो कर गाँव के पाँच छ: और लड़कों को भी भर्ती होने में मदद की, इस उजड़े गाँव के बीच बीच में तू जो नये घर देख रहा है ना, ये उन्हीं सैनिकों के घर हैं जिन्होंने देश की सीमाओं पर पहरेदारी करने के लिए अपने परिवारों को गाँव में रखा है. उन लोगों की वजह से गाँव थोड़ा रहने लायक़ बना है. अच्छा अब जल्दी-जल्दी चल आज तेरी काखी ने तेरे लिए तेरी पसंद का चमसूर का टपक्या और पल्यो-भात पकाया है. खाने से अधिक काखी से मिलने के लिए उसके कदम तेज हो गये. चलते-चलते सोचने लगा कि अब वह गाँव छोड़कर कहीं नहीं जाएगा. कका-काखी की देखभाल करेगा, उससे जितना हो सकेगा, वह खेत भी कमायेगा, खर्चा चलाने के लिए सड़क के किनारे की अपनी ज़मीन पर अपने साथियों के साथ एक ढाबा भी खोलेगा. अपनी ईष्टदेवी के मंदिर में जाकर पूजा पाठ में पंडित जी की मदद भी करेगा. मन में यही दृढ़ संकल्प लेकर उसके क़दम तेज़ी से गाँव की ओर बढ़ने लगे.

(लेखिका नैनीताल के प्रतिष्ठित स्कूल, सेंट मैरीज कॉलेज से हिंदी अध्यापक के पद से सेवानिवृत्त हैं. कई कहानियां राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित.)

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