कहानी
- एम. जोशी हिमानी
मैकलॉडगंज के साधना केन्द्र में बाहर घना अंधेरा छाया है. सौर ऊर्जा से जलने वाला बल्ब धीमी रोशनी से अंधेरे को दूर करने की असफल कोशिश कर रहा है. लीला नेगी साधना केन्द्र के बाहरी हिस्से में स्थित प्राकृतिक सिला पर इस हाड़ कंपाती सर्दी में बैठी है. वह दूर धौलागिरि की पहाड़ियों को देखने का असफल प्रयास कर रही है इतनी अंधेरी रात में पहाड़ियों को स्पष्ट दिखना असम्भव है परन्तु रोज-रोज इन पर्वतमालाओं को देखने की आदत के कारण वह उनकी बनावट, उनकी ऊँचाई, उन पर ढ़की बर्फ की चादर को स्पष्ट देख पा रही है. रोज ही वह इन पर्वत मालाओं को देखकर अपने अन्दर कुछ अच्छा सा महसूस करती है. बसन्त के बाद जब इन पर्वत मालाओं से बर्फ पिघलने लगती है तो पहाड़ियाँ बीच-बीच में से अपना अस्तित्व दिखाने का प्रयास करती दिखती हैं. तब वह सोचती है कि समय-समय पर वह भी इन पर्वत मालाओं की भांति अपना अस्तित्व, अपनी मौजूदगी दिखाने का प्रयास करती रही है परन्तु कुछ ही समय बाद बर्फ की मोटी-मोटी परते उसके अस्तित्व को ढ़क देती है.
लीला नेगी! ह्वाट आर यू डूइंग हियर? इट इज नाट ए सेफ प्लेस फॉर सिटिंग इन द नाइट. प्लीज गो टू धम्मा हॉल एण्ड डू मेडीटेशन… वह तुर्की धर्म सहायिका फुस-फुसाकर उसके समीप आकर कहती है तो उसकी तन्द्रा टूटती है. धर्म सहायिका उसे अच्छी नजरों से नहीं देखती है क्योंकि वह हर दिन यहां पर अंजाने में कोई-कोई न कोई अनुशासन तोड़ ही देती है. हड़बड़ी में किसी से टकरा जाती है, कभी मौन व्रत को भूलकर मुँह से आवाज निकाल कर बोलने लगती है. उनकी इन हरकतों से प्रत्येक साधक की साधना में व्यवधान पहुँचता है.
वह भी चुप-चाप अपने लिए आवंटित आसन पर बैठकर ध्यान लगाने का प्रयास करती है. कुछ ही दूर से सियारों के रोने की डरावनी आवाजें आ रही हैं उसे सिहरन होने लगती है जब वह बाहर बैठी थी अकेले में तब भी क्या ये डरावनी आवाजें आ रही थी अथवा वह अपने में निमग्न इन आवाजों को सुन नहीं पायी थी वह खुद से कहने लगती है.
शाम का सात बजा है परन्तु वहां पर पसरा सन्नटा रात के 12 बजने का एहसास करा रहा है. पूरे हॉल में 50 से अधिक स्त्री पुरूष ध्यानस्थ हैं. मात्र सांसों की आवाजों से उनके जीवित होने का प्रमाण मिल रहा है. वह भी चुप-चाप अपने लिए आवंटित आसन पर बैठकर ध्यान लगाने का प्रयास करती है. कुछ ही दूर से सियारों के रोने की डरावनी आवाजें आ रही हैं उसे सिहरन होने लगती है जब वह बाहर बैठी थी अकेले में तब भी क्या ये डरावनी आवाजें आ रही थी अथवा वह अपने में निमग्न इन आवाजों को सुन नहीं पायी थी वह खुद से कहने लगती है.
40 वर्षो के बाद वह सियारों के रोने की आवाज सुन रही थी सियारों के रोने की आवाज उसे बचपन की यादों में पहुँचा देती है बचपन में जब कभी गांव के बाहर सियार रोते तो गांव के कुत्ते भौंक-भौंक कर जवाबी कार्यवाही करते. दादी घर के अन्दर से हट-हट की आवाज कर सियारों को भगाने का असफल प्रयास करती तो हम सब बच्चे हंसने लगते. दादी बहुत भयभीत स्वर में कहती ‘‘गांव में कोई बीमार तो नहीं हैं? शायद कोई मौत होने वाली है.’’
दादी की बातों से मैं और अधिक भयभीत हो जाती. हम सारे दरवाजे खिड़कियाँ अच्छी तरह से बंद कर लेते थे. शहरो में तो हम रोज ही किसी न किसी को मरते देखते हैं, अर्थियाँ निकलते देखते हैं, कहीं कोई खौफ नहीं लगता परन्तु गांव में जब कोई मौत होती तो पूरा परिदृश्य बड़ा भयावना बना दिया जाता. हम सब बच्चों को 12 दिन तक शाम के 5 बजे के बाद बाहर नहीं निकलने दिया जाता था. दादी जैसे बड़े बूढ़े लोग हमें डराते जब तक पीपल पानी यानी तेरहवीं नहीं हो जाती मृतात्मा अपने भूत-प्रेत दोस्तों के साथ अपने घर तथा पूरे गांव में मंडराती रहती हैं. उनका साया बच्चे, बड़ों को भी अपना शिकार बना सकता है. तीन-चार दिनों तक तो हर घर के मुख्य दरवाजें के बाहर आग जला दी जाती थी क्योंकि भूत-प्रेत आग से दूर भागते है.
आज सियारों की इन भूतहा आवाजों को सुनकर उसे कोई डर नहीं लगता. उसके अन्दर इतनी अशान्ति है, इतनी आग है, इतनी अतृप्ति है कैसे वह ध्यानस्थ हो पाये. वह कनखियों से पूरे हाल में उपस्थित लोगों को देखती है. जुगनू जैसी रोशनी में सभी लोग देवताओं की तरह लग रहे थे किसी के शरीर में कोई हलचल नहीं. सब मेरूदण्ड सीधा किये, मुख पर असीम शान्ति लिये ध्यानमग्न थे. लीला सोचती हे दुनिया में सबसे ज्यादा अभागी वही है शायद. यहां पर भी वह मात्र आंख मूँदने का नाटक ही कर रही थी. आंखों से सबको देखकर भी तो वह यहाँ का अनुशासन तोड़ रही थी. अगले पल वह सोचती दुनिया के अलग-अलग देशों से आये यह सब लोग शायद पूरी तरह से सुखी और सन्तुष्ट हैं, इनके अन्दर की सभी कामनाएं पूर्ण हो चुकी है, अब इनका एक मात्र उद्देश्य रह गया है अपना अगला जन्म सुधारना. अगला जन्म भी नहीं निर्वाण प्राप्त कर मुक्त हो जाना…..
वह तो अपना यह जीवन भी नहीं सुधार पायी थी तो अन्य लोकों की कामना करना ही व्यर्थ था. लीला जैसे अतृप्त लोगों को कभी मुक्ति नहीं मिलती.
नौ बजे का घण्टा बजता है रात्रि विश्राम का समय हो गया था सारे साधक सर झुकाये बिना किसी का स्पर्श किये चुप-चाप अपने अपने आसनों से उठकर अपने-अपने कमरों की तरफ जाते हैं. लीला भी चुपचाप उनके पीछे-पीछे अपने कमरे की तरफ बढ़ती है.
रात्रि में साढ़े नौ बजे तक प्रत्येक कमरे की बत्तियाँ बुझ जाती हैं यह भी यहां के अनुशासन का एक अंग है. लीला की आंखों से नींद गायब है वह सोने का असफल प्रयास करती है. सुबह साढ़े चार बजे सभी को फिर धम्मा हाॅल में पहुँचना है. धर्म सहायिका अल्लसुबह चार बजे प्रत्येक दरवाजे पर आकर घण्टी बजा जाती है. वह संकेत होता है उठने का और फ्रेश होकर तैयार होने का. ध्यान लगे चाहे न लगे पर यदि यहां रहना है तो यहां के नियमों का सख्ती से पालन करना होगा. उसका सिर दुख रहा है. वह मन ही मन अलका को याद करती है. अलका पास में होती तो सिर दबाकर उसे अवश्य सुला देती. अलका के हाथो में पता नहीं कौन सा जादू था उसके स्पर्श मात्र से उसकी पीड़ा कम हो जाती थी. शायद किसी जन्म में वह उसकी माँ रही होगी. इस जन्म में बेटी बनकर आई है. माँ का स्पर्श ही किसी को इतनी शान्ति पहुँचा सकता है.
यहाँ भी तो उसे अलका ने ही तो भेजा था. माँ तुम बहुत दुःखी और बेचैन हो अब तुम्हे अपनी चित्त को शान्त करना चाहिए क्योंकि मनुष्य के चित्त की जैसी दशा होती है अन्त समय में अगला जन्म उसको वैसा ही मिलता है…. अट्ठाइस वर्ष की अलका एक सन्त की भांति उसे उपदेश दे रही थी. उपदेश ही नहीं उसे जीवन का सही मार्ग दिखा रही थी. माँ की बेचैनी उसके दुःखे से वह भी दुःखी थी. किसी ने सही कहा है ज्ञान तो इन्सान को किसी भी उम्र में मिल सकता है. यह तो ईश्वरीय देन है. कुछ को अस्सी वर्ष में भी जीवन की समझ नहीं आ पाती है और कुछ अट्ठारह वर्ष में परिपक्व होकर दूसरों के लिए प्रेरणा बन जाते है शायद यही पूर्व जन्म के संस्कार अथवा कर्म कहलाते हैं.
अनिल की दहाड़ उसे यहाँ के वातावरण में भी बचैन किये थी. जबकि वह जानती थी अनिल की प्रतिक्रिया का कारण वह स्वयं था. उसने स्वयं बच्चों की निगाह में अपना सम्मान खोया था. अनिल कठोर स्वर में बोल रहा था मुझे तुम्हें अब माँ कहने में भी शर्म आ रही है. तुम्हे अपनी उम्र का भी ख्याल नहीं रहा. बावन वर्ष की कोई विधवा औरत कैसे किसी के प्यार में पड़ सकती है? अब तुम्हारी वानप्रस्थ की उम्र है पर तुम तो किसी फिरंगी के मोह जाल में पड़कर हमें लुटा बैठी हो छिः छिः….
उसकी बहू प्रभा अपने पति पर ताने मार रही थी तुम तो अपने को बड़े संस्कारी खानदान का कहते थे. मेरी माँ का चूड़ीदार पैजामा पहनना, गाढ़ी लिपिस्टिक लगाना तुम्हे अखरता था. फैशनपरस्त होने के कारण तुम मेरी माँ पर तंज कसते थे ‘‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम’’ वह व्यंग से कहती अब देख लिया सफेद साड़ी पहनने वाली अपनी संस्कारी मां के संस्कारों को…..
कमरे के अन्दर से पति-पत्नी के जोर-जोर से चल रहे वाक्य युद्ध की आवाजें पूरे घर की छतों, दिवारों को बेध रही थीं.
दो दिन से वह अपने कमरे से बाहर नहीं निकली थी. शर्म के मारे उसका पूरा चेहरा सूख गया था. अनिल के दफ्तर चले जाने के बाद अलका जबरदस्ती कमरा खुलवाकर उसके मुँह में थोड़ा खाना डाल गयी थी. उसने सारा इतिहास ही बदल दिया था. माँयें अपने बच्चों की नादानियों को छुपाने अथवा उनको सुधारने का प्रयास करती हैं. यहाँ तो बच्चों के आगे वह स्वयं शर्मनाक आचरण कर बैठी थी. कोई हत्यारा भी शायद इतने अपराधबोध से ग्रस्त नहीं होता होगा जितनी हीनता उसके अन्दर भर गयी थी.
‘‘माँ तुमने कुछ गलत नहीं किया है. भैय्या पुरूष है वह तुम्हारे एकाकीपन को नहीं समझ सका है. पुरूष मानसिकता उस पर हावी है. तुमने पूरा जीवन एकाकीपन में गुजारा है माँ. अपराधी तो वह है जिसने तुम्हें धोखा दिया तुम बहुत भोली और निर्दोष हो…..
अलका एक ममतामयी माँ की तरह लीला को समझाने का प्रयास कर रही थी. ‘‘माँ तुम्हें कुछ समय के लिए किसी एकान्त स्थान में चले जाना चाहिए. मैं तुम्हारा सारा इन्तिजाम कर देती हूँ. यहाँ पर भैय्या और भाभी तुम्हें छलनी कर देंगे.’’ अलका आँखों में आँसू भरकर बोली थी.
कहते हैं न किसी के साथ ईश्वर कितना भी बुरा करे परन्तु एक न एक ऐसी चीज वह हर इन्सान को अवश्य देता है जो उसके जीने का आलम्बन बनता है. अलका उसके लिए वही आलम्बन थी, जीने का मकसद थी.
‘‘परन्तु अक्कू अब मैं तुम्हारा विवाह काहे से करूंगी? मेरे पास अब कुछ नहीं बचा है बेटा. मैंने इस उम्र में अपने मन पर नियंत्रण खोकर अपनी शुचिता के साथ धन भी खो दिया है. वह धन मेरा कमाया नहीं था वह तेरे दादा ने तेरे लिए छोड़ा था….
वह झर-झर रो रही थी….
‘‘माँ अव्वल तो मुझे विवाह ही नहीं करना है और यदि कभी करने का मन हुआ भी तो ऐसे आदमी से करूंगी जो सवा सौ रूपये के खर्च पर मुझे अपना बनाये….
सदा की भांति अलका ने अपनी अव्यावहारिक एवं दार्शनिक बात दोहराई.
लीला चुप रही अब उसके पास बेटी की बात काटने के लिए कुछ नहीं बचा था.
चैथे ही दिन वह शरीर से मैकलॉडगंज पहुँच गयी थी परन्तु मन उसका राबर्ट द्वारा किये गये अविश्वसनीय छल के इर्द-गिर्द ही उलझा हुआ था. वह हैरान थी कि कैसे कोई दोस्ती फिर प्यार का वास्ता देकर किसी का धन हड़प सकता है. भले ही वह मात्र हाईस्कूल पास थी परन्तु अपने लिखने पढ़ने के शौक तथा जागरूकता के कारण कोई अन्दाजा नहीं लगा सकता था कि उसके पास बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ नहीं है. आज के दौर के सोशल मीडिया में भी वह बराबर अपनी उपस्थित दर्ज कराया करती थी. उसने अपनी इस आभासी दुनियां में बहुत सारे दोस्त बना लिये थे जिनसे न वह कभी मिली थी न मिलने की कोई सूरत थी. परन्तु ऐसा महसूस होता था जैसे वह बहुत सारे लोगों के साथ अपने सुख-दुख बांट रही है.
ऐसे ही सुख दुःख बांटते हुए इस आभासी बेरहम दुनियां में राबर्ट के मोहजाल में वह फंस गयी थी.
‘‘गुड मार्निंग हनी! हाउ आर यू? आई लव यू टू मच, आई काण्ट लिव विदाउट यू…. जैसे कितने जुमलों से वह रोज उससे चैटिंग करता. शुरूआत की झिझक तथा भय के बाद वह भी खुलती गयी थी. एक अंजान अनदेखे इंसान का वह रात के दो-दो, तीन-तीन बजे तक इंतजार करती क्यू कि यूरोप के समयानुसार वह तभी बात करने को खाली होता.
राबर्ट नामक उस सख्स के मोहजाल में वह अपने सारे व्रत-पूजा पाठ, ध्यान, गौ ग्रास देना सब अनियमित कर बैठी थी. किसी ने ठीक ही कहा है प्यार में पड़कर इंसान हया और विवेक सब खो बैठता है बड़ी उम्र का प्रेम तो और भी खतरनाक होता है. अपनी प्रोफाइल में राबर्ट ने स्वयं को विधुर और एक पुत्री का पिता दिखाया था जो बेलारूस में किसी कालेज में पढ़ रही थी.
एक दिन बातों ही बातों में उसने अपनी टूटी फूटी अंग्रेजी में पूछा था ‘‘तुम बहुत एडवांस सोसाइटी में रहते हो. तुम्हारे इर्द-गिर्द सौन्दर्य बिखरा पड़ा होगा. मैं एकदम सादा, कम शिक्षित स्त्री को तुमने क्यों पसन्द किया?……
क्या सुन्दर जवाब दिया था राबर्ट ने ‘‘मुझे खुद नहीं मालूम परंतु सब कुछ नैचुरली हुआ शायद तुम्हारा सफेद लिबास मुझे भा गया…..
वह अतीत में चली गयी थी, अल्मोड़ा के पटाल बाजार में जब वह नैन सिंह नेगी की बहू तथा भगवान सिंह नेगी की दुल्हन बनकर आई थी तो सारी औरते उसकी तारीफ में बोली थी- ‘‘बंदूक की नाल जैसी छरहरी है भगवान की दुल्हैनी….. तब शायद उनके पास औरत की छरहरी काया की उपमा देने के लिए शब्द ज्ञान ही नहीं था, दो बच्चों की मां बनकर बाईस वर्ष की उम्र में जब वह विधवा हुई थी तब भी वह औरतें कह रही थीं- ‘‘आज भी वह बंदूक की नॉल जैसी ही दिखती है. सफेद धोती में और कम उम्र लग रही है…. कुछ औरते आपस में फुंस-फसा रही थीं.
वह बंदूक की नॉल थी अथवा खुकरी की धार उसे नहीं मालुम परन्तु वह अपने भगवान के दिल में कोई निशान नहीं लगा पायी थी. पिता ने जिसे भगवान समझकर बेटी दी थी वह शैतान से कम न था.
बचपन से ही उनके माँ बाप उन्हें उनका धर्म सिखाते थे कि यदि बेटी दस वर्ष की हो जाये तो फिर वह मां-बाप का घर संभालने के लायक हो जाती है. दस-बारह वर्ष की लड़कियाँ घोर जंगल में लकड़ियाँ काटने जाती. ऊँचे-ऊँचे पेड़ों पर चढ़कर पशुओं का चारा तथा जलावन इकट्ठा करतीं परन्तु उसी गांव में चैकीदार की राजकुमारी लीला सामन्त बड़े-बड़े फूलों वाली फ्रॉक एवं सलवार पहनकर हाथ में पाठी पकड़कर इठ्लाती गांव के बाहर स्थित प्राइमरी स्कूल में ठसके के साथ पढ़ने के लिए जाती.
लीला और पीछे अतीत में पहुँच जाती है. सोर घाटी के प्राइमरी स्कूल के चैकीदार की बेटी लीला अपने मां-बाप के लिए किसी राजकुमारी से कम नहीं थी. उसकी हम उम्र लड़कियों ने कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा था. बचपन से ही उनके माँ बाप उन्हें उनका धर्म सिखाते थे कि यदि बेटी दस वर्ष की हो जाये तो फिर वह मां-बाप का घर संभालने के लायक हो जाती है. दस-बारह वर्ष की लड़कियाँ घोर जंगल में लकड़ियाँ काटने जाती. ऊँचे-ऊँचे पेड़ों पर चढ़कर पशुओं का चारा तथा जलावन इकट्ठा करतीं परन्तु उसी गांव में चैकीदार की राजकुमारी लीला सामन्त बड़े-बड़े फूलों वाली फ्रॉक एवं सलवार पहनकर हाथ में पाठी पकड़कर इठ्लाती गांव के बाहर स्थित प्राइमरी स्कूल में ठसके के साथ पढ़ने के लिए जाती.
गांव के बड़े बुजुर्ग शेर सिंह सामन्त की खिल्ली उड़ाते- शेरवा की बेटी कलेक्टर बनने वाली है…. सबके सब खी-खी करके खीसें निपोरते.
स्कूल के रस्ते में खेतों में काम करती औरते उसका नाम बिगाड़कर पूंछती- अरे लिलुली पढ़ लिखकर क्या तू इन्दिरा गांधी बनने वाली है?…. उन दिनों इन्दिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं. उन अनपढ़ औरतों को उनके अलावा और किसी कामयाब औरत का नाम पता नहीं था. इन्दिरा गांधी उनके लिए व्यक्ति न होकर कोई पदवी थी.
वह भागकर घर आती माँ-बाबू के पास आकर सारी बातें बताती और जिद करती वह कल से स्कूल नहीं जायेगी वह भी कल से जंगल जायेगी घास काटने…. बाबू जी कहते बेटा मैंने तेरी आंखे खोलनी है तुझे अपने पैरों पर खड़ा करना है…..
वह उन बातों का अर्थ कभी नहीं समझ पायी क्योंकि हाईस्कूल करने के बाद भी न तो उसकी आँखे पूरी तरह खुल पायी और न वह अपने पैरों पर ही खड़ी हो पायी. वे सब बातें उसकी जीवन में मात्र मुहावरा बनकर रह गयीं.
रिश्ता आने के एक माह बाद ही वह भगवान सिंह नेगी की दुल्हन बनकर अल्मोड़ा आ गयी थी. पिथौरागढ़ में अल्मोड़ियों की बारात आना उस समय बड़ी ही शान तथा इलाके में चर्चा का विषय बन गयी थी. शेर सिंह सामान्त की छाती चैड़ी हो गयी थी. वह उन लोगों को करारा जवाब उनके मुंह पर दे रहा था जो उसकी बेटी के स्कूल जाने पर उसका मजाक उड़ाते थे.
हाईस्कूल पास करने का लीला को तात्कालिक फायदा यह जरूर मिला कि सोर घाटी के उस पिछड़े गांव में जहाँ लड़कियों के रिश्ते दस-बीस किलोमीटर के दायरे से ही आते थे, उसका रिश्ता उसके पिता के स्कूल के एक मास्टर साहब के माध्यम से अल्मोड़ा के पटाल बाजार से आया. अल्मोड़ा जैसे आधुनिक शहर के पटाल बाजार जैसे रईसों के इलाके से लड़की का रिश्ता आये तो फिर लड़के के बारे में जानकारी प्राप्त करना खीर की थाली में लात मारने जैसा था.
रिश्ता आने के एक माह बाद ही वह भगवान सिंह नेगी की दुल्हन बनकर अल्मोड़ा आ गयी थी. पिथौरागढ़ में अल्मोड़ियों की बारात आना उस समय बड़ी ही शान तथा इलाके में चर्चा का विषय बन गयी थी. शेर सिंह सामान्त की छाती चैड़ी हो गयी थी. वह उन लोगों को करारा जवाब उनके मुंह पर दे रहा था जो उसकी बेटी के स्कूल जाने पर उसका मजाक उड़ाते थे.
‘‘तुम लोगों ने अपनी बेटियों को घास काटना ही सिखाया अब वह जिन्दगी भर घास ही काटेंगी…. मैंने लीला को पढ़ा लिखाकर उसकी जिन्दगी बना दी. अब वह अल्मोड़ा के पटाल बाजार में रानी बनकर रहेगी…. शेर सिंह बेटी का ब्याह कर इतरा गया था.
सत्रह वर्ष की कमसिन उम्र में दुल्हन के रूप में अपना रूप देखकर वह स्वयं लजा गयी थी. दो तोले की भारी नथ, चार तोले की सोने की पहुँची, गले में भारी रानी हार के बोझ से वह दबी जा रही थी. ऊपर से सनील का गोटा लगा लंहगा उसके ऊपर ढाई गज का पिछौड़ा….
पूरे सोर घाटी में वर्षो तक उसके गहनों और कपड़ों की घर-घर चर्चा होती रही थी तथा लड़कियाँ उसके भाग्य पर रस्क कर रहीं थीं. बहुतों ने अपनी लड़कियों का जंगल जाना बंद कराकर स्कूल में उनका नाम लिखा दिया था ताकि पढ़ लिखकर ऐसे ही स्वर्गलोक जैसे घरों से उनकी बेटियों का भी रिश्ता आये.
उस जमाने में जब तक घर में मेहमान रहते थे तब तक सुहागरात जैसी कोई रस्म करना निर्लज्जता की निशानी मानी जाती थी. विवाह के पांच दिन तक न उसने अपने भगवान की शक्ल देखी थी और न उसकी आवाज सुनी थी. हरदम वह औरतों से ही घिरी रहती तथा कल्पनाओं से भी परे जो उसने गहने कपड़े पाये थे वह उन्हीं में मग्न रहती थी. सच तो यह था कि उस बालिका वधू को यह भी नहीं मालूम था कि विवाह के बाद पति के साथ रात भर रहना होता है. पांचवे दिन जब कथा भी हो गई सारे मेहमान राजी-खुशी विदा हो गये तब उस रात को उसकी चचेरी जेठानी-ननदों ने उसे तैयार कर एक कमरे में बिठाया था. भगवान को पकड़कर जबर्दस्ती कमरे में धकेला गया था. पूरा कमरा रम की दुर्गन्ध से भर गया था. इस तरह की दुर्गन्ध से वह परिचित थी जब गांव में असम राइफल्स का उसका ताऊ का लड़का छुट्टी आता तब उनके घर से रोज ऐसी ही महक आती थी जिससे उसका जी मिचलाता था और वह दान सिंह दद्दा के छुट्टी अवधि में शाम के वक्त कभी ताऊ के घर की तरफ नहीं जाती थी.
लम्बा चैड़ा सुन्दर काया का भगवान उसके बिस्तर पर पसर गया था. उसका हाथ खींचकर अपने पास ले जाकर बोला था बड़ी बेहयाई से- ‘‘सुन कभी मुझसे टोकाटोकी न करना. अल्मोड़ा में कई अप्सरायें मेरे पीछे पड़ी थीं, पर मैंने बाप के कहने पर तुझसे सादी की क्योंकि यहां की लौडियों के नखरे बहुत हैं मैंने सुना है तू गरीब घर की है. ज्यादा नखरा नहीं करेगी. गहने कपड़े पहन और खुश रह…… और उसने उसे अस्त व्यस्त कर दिया था उसे तोड़ मरोड़ कर रख दिया था.
उफ दारू के नशे में मनाई गई उस पहली रात के ठीक नौ महीने बाद ही अनिल उसकी गोद में था. उसके ठीक सवा साल बाद अलका.
इतने जल्दी जल्दी बच्चे पैदा होने के कारण वह एक बार के बाद कभी मायके नहीं जा पाई थी. पिता के देहान्त पर भी नहीं. परन्तु उसे अहसास था पिता ने अपनी अंतिम सांस असीम शांति तथा गर्व के साथ ली होगी. वह अपनी बेटी के भाग्य पर इतराये होंगे. माँ कहती थी उन्होंने उस पण्डित को कई बार फटकार लगाई थी जिसने बताया था कि लीला की जन्म कुण्डली के सातवें घर में गुरू चाण्डाल योग है जो दाम्पत्य के तथा वैवाहिक सुख के लिए अच्छा नहीं होता है. वे बोले थे ‘‘पंडित कृष्णानन्द जी अब पोथी-पतड़ा बनाना बंद कर दो. अब लोगों को डराना बंद कर दो. तुम्हारे डराने के कारण ही मैंने अपनी लीला को स्कूल डाला. विवाह ठीक नहीं होगा तो मेरी बेटी अपने पैरों पर खड़े होकर जियेगी. तुम्हारी पण्डिताई, तुम्हारी गणना बेकार गयी. मेरी बेटी पटाल बाजार में राज सुख भोग रही है. छोटी उमर में पूत खिला रही है…..
नैन सिंह नेगी अपनी इकलौती बहू से कभी सीधी नजरें नहीं मिला पाये थे. अपने शराबी बेटे के लिए एक गरीब घर की बेटी को ठगकर जिस तरह वह अपने घर लाये थे उसका पश्चाताप कहीं न कहीं उनके चेहरे पर साफ दिखता था. सूखी दारू ने भगवान को जल्द ही रोगी बना दिया था. वह पीकर ऊधम कभी नहीं मचाता था यह उसके साथ ईश्वर ने बहुत बड़ी नेकी की थी परन्तु जी भर पी लेने के बाद वह फिर किसी काम के लायक नहीं रह जाता था. नैन सिंह ने अपना वंश बचाने के लिए चितई गोलज्यू, जागेश्वर धाम, हाट कालिका, दूनागिरी, नैना देवी मंदिर न जाने कितने मंदिरों में हाजिरी लगायी थी, अर्जियाँ चढ़ाई थी. जागेश्वर धाम में लीला से रात भर जागरण करवाया था परन्तु लीला का सप्तम् गृह का दुर्योग इतना तगड़ा था कि उसने मात्र बाईस वर्ष की उम्र में लीला का विधवा बना दिया.
नैन सिंह जवान बेटे का शोक बर्दाश्त नहीं कर पाये थे. वर्ष भर के अन्दर वह भी चल बसे थे. ससुर की मृत्यु के दिन उसे सही मायने में अपनी दुनिया उजड़ने का एहसास हुआ था. वह बिल्कुल लाचार, असहाय हो गयी थी, एक बार किसी मेले में अपनी सहेलियों के साथ उसने भैरव पंडित को अपना हाथ दिखाया था, वह बोला था तुझे पूरा जीवन एकाकी बिताना पड़ेगा, किसी पुरूष के साथ का कोई सुख तुझे कभी नहीं मिला पायेगा…. आज उसे लग रहा था भैरव पण्डित ने कितनी सही गणना की थी उसके बारे में. पुरूष के रूप में अब कोई रिश्ता उसके जीवन में नहीं रह गया था.
बाईस वर्ष में ही वह पचास वर्ष की औरत की तरह परिपक्व बन गयी थी कितने ही रिश्ते दोबारा शादी के लिए लोगों ने उसे सुझाएं थे. दो-दो, चार-चार बच्चों वाले न जाने कितने विधुरों के प्रस्तावों को उसने दुत्कार दिया था. ‘‘मैंने अपने नादान बच्चों को नहीं पालना है सौतेले पिता और भाई बहनों के साथ…..
दूसरा विवाह न करके ऐसा भी नहीं था कि उसके सारे सपने मर गये थे या उसने अपने को रिश्तेदारों, नातेदारों, मोहल्लेदारों के बीच बहुत सुरक्षित पाया था. इसीलिए अपने को साजों-सिंगार से दूर रखकर उसने सफेद बाना अपना लिया था जबकि उसकी परम्परा में सफेद वस्त्र पहनने की कोई बाध्यता नहीं थी.
प्रकृति का दिया हुआ रूप सफेद वस्त्र भी नहीं ढ़क पाये थे. प्रदूषण रहित वातावरण तथा मैल रहित मन ने उसके चेहरे की कमनीयता तथा कांति को इतने दुःखों के बावजूद मलिन नहीं होने दिया था.
जीवन यापन में ससुर का जोड़ा हुआ धन धीरे-धीरे खत्म हो गया था. अनिल और अलका अल्मोड़ा के उच्चस्तरीय राजकीय विद्यालयों में पढ़कर अपनी लगन से दिल्ली में ठीक-ठाक नौकरी पा गये थे. अनिल ने अपनी जीवन साथी खुद ढ़ूढ़ ली थी. माँ को केवल सूचित किया था. बड़ा झटका लगा था उस दिन उसे जब अनिल ने यह सूचना दी थी. उसने तो मालदार जी की सुशील एवं गुणवन्ती लड़की मन ही मन उसके लिए चुन रखी थी. किसी पंजाबी लड़की को बहू के रूप में स्वीकार करना उसके लिए कठिन था. अनिल के विवाह का खर्च उठाने के लिए अनिल की इच्छानुसार उसने पटाल बाजार का पुस्तैनी मकान मात्र तीस लाख रुपये में बेच दिया था. वैसे भी अनिल को दिल्ली में रहने के बाद अल्मोड़ा के जर्जर हो रहे मकान से कोई मोह नहीं रह गया था. वह कई बार कह चुका था माँ इस मकान को बेचकर दिल्ली में फ्लैट ले लेते हैं तुम हमारे साथ रहो. वह मैदानों की गर्मी में बिल्कुल नहीं सड़ना चाहती थी और न तो फ्लैटों के दमघोंटू वातावरण में रहना उसे मंजूर था. इस पटाल बाजार में उसने पूरा जीवन गुजार दिया था. शाम के वक्त सांई मंदिर में जाकर घंटों हिमालय के पंचाचुली, नंदा देवी आदि शिखरों को निहारना उसकी दिनचर्या में शामिल था इन उतुंग शिखरों ने उसे कभी अवसाद में नहीं आने दिया था न कभी उसे उम्र बढ़ने का एहसास होने दिया था.
मालदार सेठ ने उसका पुश्तैनी घर खरीदकर एक कमरे का सेट बिना किराये के हमेशा के लिए उसे रहने के लिए दे दिया था. उसे और क्या चाहिए था न टैक्स भरने का झंझट, न पानी का बिल देने की चिंता. उसकी अपनी भूमि भी उससे नहीं छूटने पायी थी.
ससुर द्वारा दिये गये गहनों का उसने दोनों बच्चों के हिसाब से बंटवारा कर दिया था. तथा पन्द्रह लाख रुपये उसने अनिल को दे दिये थे. अनिल संतुष्ट नहीं था परन्तु उसने साफ-साफ बता दिया था कि अलका का विवाह दस लाख से कम में नहीं हो पायेगा. पांच लाख रुपये उसने अपने बुढ़ापे के खर्चों तथा दान, तीर्थाटन आदि के लिए रख लिये थे.
वह कोई दान तीर्थाटन तो नहीं कर पायी थी परन्तु राबर्ट ने मैकलॉडगंज के इस तीर्थ स्थल पर अवश्य पहुँचा दिया था. वह मन ही मन बुदबुदाती है राबर्ट तुम्हें यहाँ अवश्य आना चाहिए यहां आकर तुम्हें पता चलेगा कि तुमने किस तरह से अपने कर्म बिगाड़ लिये हैं. तुम्हें इसका परिणाम अनन्त जन्मों तक भोगना पड़ेगा. शाम को चलने वाले प्रवचनों को सुनकर उसका दिमाग उमड़-घुमड़ करने लगता है. राबर्ट तुमने मेरे पुरखों के पैसों को बड़ी सफाई के साथ मुझसे लूटा है….
खाली समय में उसे अच्छा साहित्य पढ़ना चाहिए. अमृता प्रीतम, इस्मत चुगतई, कृष्णा सोबती, शिवानी आदि कितनी ही महिला कथाकारों तथा गुलशन नंदा आदि रोमांटिक लेखकों के उपन्यास पढ़ने की उसे लत लगा दी थी शर्मा मास्टर ने. लत ही क्या धीरे-धीरे कहानियों के नायक शर्मा मास्टर के रूप में उसे आकर्षित करने लगे थे. उसका सौम्य एवं शांत चेहरा उसे चैन नहीं लेने देता था.
वह खुद भी कितने अहमक थी वह सोचती. कोई अंजान, अनदेखा उससे फोन पर मीठी-मीठी बाते करता रहा और वह उसमें घुलकर अपने संस्कार बिगाड़ती रही. अपने पूरे जीवन की तपस्या को उसने मात्र दो माह में खण्ड-खण्ड कर दिया था.
राबर्ट कहता हनी! मैं जल्द तुमसे मिलना चाहता हूँ. आई काण्ट लिव विदाउट यू…. माई डॉक्टर आल्सो लाइक यू…..
लीला ने इतने मीठे संबोधन कभी अपने जीवन में नहीं सुने थे. विधाता ने उसके जीवन में रोमांस का अध्याय ही नहीं लिखा था न ही उसने किसी कहानी उपन्यास में किसी भारतीय नायक को अपनी नायिका के लिए ऐसा सम्बोधन करते हुए पढ़ा था. वह सिर से पांव तक सिहरन से भर जाती. अपने अतीत में घटी एक घटना कुछ देर के लिए उसका जी कसैला भी कर जाती थी. अनिल को ट्यूशन पढ़ाने शर्मा मास्टर वर्षो तक घर पर आते थे उनके आने से उसे सुखद अहसास होता था. एक तरह से कुछ संबल सा मिलता था. बच्चों की उपस्थित में लीला धीरे-धीरे उनसे छोटे-छोटे बाहरी काम भी कराने लगी थी. बातों बातों में उन्होंने लीला को सलाह दी थी. खाली समय में उसे अच्छा साहित्य पढ़ना चाहिए. अमृता प्रीतम, इस्मत चुगतई, कृष्णा सोबती, शिवानी आदि कितनी ही महिला कथाकारों तथा गुलशन नंदा आदि रोमांटिक लेखकों के उपन्यास पढ़ने की उसे लत लगा दी थी शर्मा मास्टर ने. लत ही क्या धीरे-धीरे कहानियों के नायक शर्मा मास्टर के रूप में उसे आकर्षित करने लगे थे. उसका सौम्य एवं शांत चेहरा उसे चैन नहीं लेने देता था. वह भगवान के बुझे हुए, अशांत, चिड़चिड़े व्यक्तित्व से उसकी तुलना करने लगती तो उसकी पीड़ा टनों बढ़ जाती. उससे निकलना उसके लिए दुस्सह हो जाता था.
उन दोनों के बीच का आकर्षण पत्रों के आदान-प्रदान का रूप ले चुका था. पत्र बड़ी चतुरता से उपन्यासों के कवर में छुपाकर पास किये जाते थे ताकि किसी बच्चें की निगाह उन पर न पड़े. अनिल ने इण्टर कर लिया. दो वर्ष कैसे बीत गये रोमान्स से भरे हुए उसे पता ही नहीं चला. वह उदास हो गयी थी अब शर्मा जी का घर आने का कोई बहाना नहीं रहा जायेगा. वैसे भी छोटे शहरों में सब लोग एक दूसरे पर निगाह रखते हैं. उस खतरे से भी बचने की जरूरत थी.
लीला इस आकर्षण को रिश्ते का रूप देना चाहती थी. उसने अपने दिल की बात स्पष्ट पत्र में लिख दी थी. शर्मा एक सप्ताह तक गायब रहे फिर अनिल पेपरों के बारे में जानने के बारे में उन्होंने पहले की भांति पत्र पास किया था. पत्र में लिखा था ‘‘लीला मेरी पत्नी बहुत बीमार है उसे हमारे सम्बन्धों का आभास हो गया है. वह एक साध्वी स्त्री है इस झटके को वह बर्दाश्त नहीं कर पायी है. मुझे माफ कर दो लीला. तुम्हारें बच्चें अब बड़े हो गये हैं तुम्हें इनमें अपने को व्यस्त रखना चाहिए…..
पानी से निकाल कर रेत में फेक दी गयी मछली की तरह तड़फ कर रह गयी थी वह. अब जिम्मेदारी निभाने की बारी आयी तो उसे अपनी पत्नी साध्वी नजर आने लगी…..
परन्तु बहुत जोर लगाकर उसने नदी किनारे से स्वयं को जीवन के महासागर में पुनः धकेल दिया था. आज राबर्ट ने उसे पुनः नदी किनारे की जलती हुई रेत में लाकर पटक दिया था. उसका फोन आया था वह इण्डिया आकर तुरन्त उससे विवाह करना चाहता है उसे भी एक जीवन साथी की बहुत जरूरत है उसकी किशोरी बेटी को एक माँ की जरूरत है जो लीला पूरा कर सकती है. वह पूरी तैयारी करके इण्डिया आ रहा है. उसने उसके लिए भारी-भारी सोने, डायमण्ड के नेकलेस, चूड़ियाँ, अंगूठियाँ, मंहगे-मंहगे हैण्ड बैग्स, जूते तथा और भी बहुत से मंहगे सामानों की लिस्ट भेजी थी जो उसने उसके लिए बकायदा खरीद लिये थे. उसने कहा था उसे इण्डिया आने में थोड़ा वक्त लगेगा तब तक लीला को सारी तैयारियाँ करनी थी अपने बच्चों को राजी करना था.
यह सारी जिम्मेदारी उसने अलका को दी थी कि वह अनिल को तैयार करे. उसकी नजर में भारतीय पुरूष बड़े दगाबाज होते हैं. अब वह राबर्ट जैसे प्रेमी को खोना नहीं चाहती थी. अलका ने बहुत समझाया था- ‘‘माँ तुम्हे क्या हो गया है? तुम तो हमारा आदर्श थीं. माँ हम अपने दोस्तों को क्या बतायेंगे कि हमारी माँ एक अंग्रेज से विवाह करने जा रही हैं……
प्रेम में अपनी लज्जा गंवा चुकी लीला पर कोई असर नहीं हुआ था राबर्ट का फोन आया था दिल्ली इंटरनेशनल एयरपोर्ट से. पूरे शरीर में उसे झनझनाहट होने लगी थी. उसकी अंग्रेजी बड़ी कमजोर है उसे नये जमाने के तौर-तरीके नहीं आते हैं कैसे सामंजस्य बिठायेंगी वह राबर्ट के साथ. जबकि अपनी इन शंकाओं का समाधान वह राबर्ट से पहले ही पा चुकी थी- डोंट वरी हनी इट्स डजन मैटर. वी लव इच अदर इट्स इनफ…..
राबर्ट कांपती आवाज में बोल रहा था हनी मैं बड़ी प्राब्लम में पड़ गया हूँ मेरा क्रेडिट कार्ड यहां पर काम नहीं कर रहा है जो करोड़ों का सामान मैं तुम्हारे लिये ला रहा हूँ उसकी कस्टम ड्यूटी अब मैं कसे चुकाऊँ. कस्टम वालों ने मुझे एयरपोर्ट पर रोक लिया है…..
उसके बाद एक के बाद एक कभी राबर्ट के कभी कस्टम वालों के फोन उसके पास आते जल्द पैसा भेजिये अन्यथा हम इसे जेल भेज देंगे.
लीला सहम कर रह गयी थी क्या आज भी उसकी कुण्डली में बैठे ग्रह सक्रिय हो गये हैं? आज तो वह पूरी तरह से आवरण हीन हो चुकी है अपने बच्चों के आगे. राबर्ट बेचारा उसकी खातिर सात समुन्दर पार से आ रहा है और उसकी किस्मत से वह मासूम बड़ी कठिनाई झेल रहा है. डेढ़ दिन के अन्दर लीला ने पन्द्रह के पन्द्रह लाख राबर्ट द्वारा दिये गये विभिन्न बैंक एकाउन्टों में ट्रांसफर कर दिये थे. राबर्ट करोड़ों का सामान उसके लिए ला रहा था. वह करोड़ों की हैसियत उसे देगा. यह पन्द्रह लाख यदि उसके प्रेम को बचा लेते है तो उसका जीवन एवं धन सार्थक हो जायेंगे.
वह अभी तक उसके लिए भयभीत थी तथा एक दुःस्वप्न के साथ जी रही थी कि राबर्ट किसी जेल में सड़ रहा होगा. उसका धन भी उसके किसी काम न आया. अलका माँ को समझा-समझा कर हार चुकी थी- ‘‘माँ राबर्ट नाम का कोई व्यक्ति तुम्हारे जीवन में कभी नहीं था तुम बहुत बड़ी ठगी का शिकार हुई हो…. परन्तु लीला इस सत्य को मानने को कदापि तैयार नहीं है.
आखिरी बार जब उसने राबर्ट को बोला था अब मेरा सारा एकाउन्ट खाली हो गया मेरे पास कुछ नहीं बचा है तुम इन लोगों की फीस चुका कर जल्दी आओं मैं तुम्हारा इंतजार कर रही हूँ. उसके बाद हमेशा-हमेशा के लिए वह फोन बन्द हो गया था.
वह अभी तक उसके लिए भयभीत थी तथा एक दुःस्वप्न के साथ जी रही थी कि राबर्ट किसी जेल में सड़ रहा होगा. उसका धन भी उसके किसी काम न आया. अलका माँ को समझा-समझा कर हार चुकी थी- ‘‘माँ राबर्ट नाम का कोई व्यक्ति तुम्हारे जीवन में कभी नहीं था तुम बहुत बड़ी ठगी का शिकार हुई हो…. परन्तु लीला इस सत्य को मानने को कदापि तैयार नहीं है.
‘‘भवतु सब्ब मंगलम्’’ यानी सबका मंगल हो. सागर की गर्जना की तरह हॉल में गुरू जी की गंभीर वाणी गूंज रही है. लीला राबर्ट की मंगल कामना करते हुए ध्यान लगाने का असफल प्रयास कर रही है. दूर अंधरे में सियारों के रोने की आवाजें वातावरण में चीत्कार कर रहीं हैं.
(लेखिका पूर्व संपादक/पूर्व सहायक निदेशक— सूचना एवं जन संपर्क विभाग, उ.प्र., लखनऊ. देश की विभिन्न नामचीन पत्र/पत्रिकाओं में समय-समय पर अनेक कहानियाँ/कवितायें प्रकाशित. कहानी संग्रह-‘पिनड्राप साइलेंस’ व ‘ट्यूलिप के फूल’, उपन्यास-‘हंसा आएगी जरूर’, कविता संग्रह-‘कसक’ प्रकाशित)
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