‘हस्त’ नक्षत्र में ही क्यों होता है कूर्माचल के सामवेदी ब्राह्मणों का ‘उपाकर्म’?

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  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

जन्माष्टमी की भांति इस बार हरतालिका का पर्व भी दो दिन मनाया जा रहा है, 21 अगस्त को और 22 अगस्त को. वैसे कलेंडर और पंचांगों में हरतालिका तीज (हरताई) इस बार 21अगस्त की बताई गई है और 22 अगस्त को सामवेदी ब्राह्मणों का ‘उपाकर्म’ पर्व बताया गया है.वर्त्तमान समय में ‘उपाकर्म’ का अर्थ है यज्ञोपवीत धारण और रक्षासूत्र बन्धन का धार्मिक अनुष्ठान. प्रायः देखा गया है कि हरतालिका तीज और हस्त नक्षत्र एक ही तिथि को आते हैं. किन्तु इस बार ग्रह नक्षत्रों की कुछ विचित्र स्थिति चल रही है. तिथि और नक्षत्र एक दूसरे से अलग हो रहे हैं.यही कारण है कि इस बार जन्माष्टमी की तिथि को रोहिणी नक्षत्र का संयोग नहीं मिल पाया.वैसा ही कुछ हरतालिका और हस्त नक्षत्र को लेकर भी इस साल हो रहा है.दोनों अलग अलग दिन आ रहे हैं.हरतालिका 21 अगस्त को है किंतु हस्त नक्षत्र में उपाकर्म का प्रातःकालीन मुहूर्त 22 अगस्त को पड़ रहा है.

बताना चाहुंगा कि 21 अगस्त को महिलाओं द्वारा हरतालिका तीज का व्रत और उपवास लेना तो शास्त्रसम्मत है. किंतु सामवेदी  ब्राह्मणों के लिए इस दिन प्रातःकाल फाल्गुनी नक्षत्र में उपाकर्म संस्कार नहीं किया जा सकता है, उसे अगले दिन 22 अगस्त को प्रातःकाल हस्त नक्षत्र में करना ही शास्त्रसम्मत माना जाएगा. क्योंकि हस्त नक्षत्र 21 अगस्त को रात्रि 9:29 बजे से शुरू होकर 22 अगस्त को रात्रि 7:11 बजे तक रहेगा.

मैंने इस सम्बंध में अपने गांव के कुल पुरोहित श्री कैलाश चंद्र जोशी जी, ग्राम तकुल्टी से जानकारी ली तो उन्होंने भी बताया कि इस बार पहाड़ में भी सामवेदी ब्राह्मण तिवारी समुदाय के द्वारा जनेऊ धारण का हरताली (हरताई) का पर्व 22 अगस्त को ही मनाया जाएगा, क्योंकि सूर्योदयकालीन हस्त नक्षत्र का योग उसी दिन आ रहा है, 21 अगस्त को नहीं.

बताना चाहुंगा कि 21 अगस्त को महिलाओं द्वारा हरतालिका तीज का व्रत और उपवास लेना तो शास्त्रसम्मत है. किंतु सामवेदी  ब्राह्मणों के लिए इस दिन प्रातःकाल फाल्गुनी नक्षत्र में उपाकर्म संस्कार नहीं किया जा सकता है, उसे अगले दिन 22 अगस्त को प्रातःकाल हस्त नक्षत्र में करना ही शास्त्रसम्मत माना जाएगा. क्योंकि हस्त नक्षत्र 21 अगस्त को रात्रि 9:29 बजे से शुरू होकर 22 अगस्त को रात्रि 7:11 बजे तक रहेगा. पंचांगों के अनुसार इस दिन हस्त नक्षत्र रात्रि 7.05 बजे तक है इसलिए सामवेदी तिवारी ब्राह्मण समुदाय द्वारा 22 अगस्त को ही प्रातःकाल हस्त नक्षत्र में यज्ञोपवीत धारण किया जाना चाहिए और उसी दिन बहनों द्वारा भाइयों को रक्षासूत्र भी बांधा जा सकता  है.

पुरातन काल से ही परम्परा चली आई है कि कुमाऊं में तिवारी, तिवाड़ी, तेवारी, तेवाड़ी, त्रिपाठी, त्रिवेदी आदि उपनामों से प्रचलित सामवेदी ब्राह्मण ‘हस्त’ नक्षत्र में ही ‘हरताली’ तीज पर जनेऊ धारण करते हैं. परम्परागत मान्यता के अनुसार पहाड़ के अलावा अन्य प्रांतों जैसे उत्तरप्रदेश,बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि प्रान्तों में भी गौतम गोत्र के अधिकांश तिवारी, त्रिवेदी, त्रिपाठी सामवेदी ब्राह्मणों की श्रेणी में आते हैं और इस समुदाय के ब्राह्मणों का ‘उपाकर्म’ पर्व भी भाद्रपद मास के ‘हस्त’ नक्षत्र में ही मनाया जाता है. हालांकि गोत्रभेद और प्रांतभेद के कारण कुछ अपवाद भी देखने में आते हैं.

जोयूं ग्राम के सभी तिवारी बंधु हरताली के दिन हस्त नक्षत्र के शुभयोग में ही यज्ञोपवीत धारण करते हैं. हरताली के दिन प्रातःकाल यज्ञोपवीत धारण किया जाता है और उसके बाद बहनें अपने भाइयों को रक्षासूत्र बांधती हैं तथा उनके सौभाग्यशाली जीवन एवं दीर्घायुष्य की कामना करती हैं. हमारे गांव जोयूं तथा पार्श्ववर्ती क्षेत्र के गौतम गोत्र के समस्त तिवारी ब्राह्मण सदियों से श्रावण पूर्णिमा के बदले भाद्रपद मास की तृतीया ‘हरताली तीज’ के अवसर पर आने वाले ‘हस्त’ नक्षत्र में ही यज्ञोपवीत धारण और रक्षाबंधन का पर्व मनाते आते आए हैं.

पहाड़ की ‘हरताई’ ‘हरतालिका’ तीज का ही स्थानीय रूप है. परन्तु पहाड़ की ‘हरताली’ या ‘हरताई’ के बारे में खास बात यह है कि इस दिन ‘हस्त ‘नक्षत्र होना आवश्यक है और मल मास तिथि आदि का इसमें कोई विचार नहीं किया जाता, सिर्फ नक्षत्र की सूर्योदय व्यापनी स्थिति देखी जाती है. इसलिए शास्त्रीय ‘सामगानामुपाकर्म’ हरताली भाद्रपद शुक्ल तृतीया हस्त नक्षत्र से युक्त तिथि को ही होना शास्त्रसम्मत मानी गई है.

हालांकि इस संबंध में पहले मुझे भी इस बात की विशेष जानकारी नहीं थी कि तिवारी समुदाय के लोग श्रावणी पूर्णिमा को छोड़कर हरतालिका तीज के अवसर पर जनेऊ संस्कार और रक्षाबंधन का त्योहार क्यों मनाते हैं? हमारे पहाड़ में अंध विश्वास और अपने देश की शास्त्रीय परम्पराओं के प्रति अज्ञानता के कारण तिवारी समुदाय के ब्राह्मणों का मजाक भी उड़ाया जाता है कि उनकी जनेऊ स्याव उठाकर ले गया था इसलिए ये तिवारी लोग श्रावण पूर्णिमा के दिन जनेऊ धारण नहीं करके हरतालिका को जनेऊ बदलते हैं. इस स्याववादी मानसिकता वाले बुद्धिजीवियों की इतिहास चेतना के सन्दर्भ में जब मैंने अपनी इस जिज्ञासा को कुछ आगे बढाया और ‘श्रावणी पूर्णिमा’ तथा ‘हस्त नक्षत्र’ में यज्ञोपवीत धारण के संबंध में कुछ शास्त्रीय अनुसंधान आदि किया तो पता चला कि वैदिक काल से चली आ रही परम्परागत उपाकर्म पद्धति के अनुसार ऋग्वेदी एवं यजुर्वेदी ब्राह्मण श्रावणी पूर्णिमा को तथा सामवेदी ब्राह्मण भाद्रपद मास के ‘हस्त’ नक्षत्र में हरतालिका तीज के अवसर पर यज्ञोपवीत धारण करते आए हैं, जिसे धर्मशास्त्रीय शब्दावली में ‘उपाकर्म’ संस्कार के नाम से भी जाना जाता है.

पहाड़ की ‘हरताई’ ‘हरतालिका’ तीज का ही स्थानीय रूप है. परन्तु पहाड़ की ‘हरताली’ या ‘हरताई’ के बारे में खास बात यह है कि इस दिन ‘हस्त ‘नक्षत्र होना आवश्यक है और मल मास तिथि आदि का इसमें कोई विचार नहीं किया जाता, सिर्फ नक्षत्र की सूर्योदय व्यापनी स्थिति देखी जाती है. इसलिए शास्त्रीय ‘सामगानामुपाकर्म’ हरताली भाद्रपद शुक्ल तृतीया हस्त नक्षत्र से युक्त तिथि को ही होना शास्त्रसम्मत मानी गई है. श्रृंगी ऋषि के वचनानुसार सामवेदियों का उपाकर्म सिंह के सूर्य में भाद्रपद मास में ही होना चाहिए.1974 में राजा आनंद सिंह की अध्यक्षता में अल्मोड़ा के सामवेदी ब्राह्मणों ने इस निर्णय को सर्वसम्मति से स्वीकार किया था.

दरअसल, भारत के पर्व उत्सव किसी पंडित पुरोहित या पंचांग व्यवस्था के आधार पर निर्धारित नहीं होते,बल्कि ग्रह नक्षत्रों की आकाशीय स्थिति और उस सम्बन्ध में दी गई धर्मशास्त्रीय व्यवस्था के आधार पर निश्चित होते हैं. ब्राह्मण या पंडित उसी धर्मशास्त्रीय व्यवस्था के आधार पर उसका निर्देश करते हैं.

‘मदनरत्न’ ग्रन्थ के एक श्लोक के अनुसार यदि श्रावणी पूर्णिमा का पर्व ग्रहण या संक्रांति से दूषित हो तो उस दिन यज्ञोपवीत धारण सम्बन्धी उपाकर्म नहीं किया जाना चाहिए बल्कि उसे आगे आने वाले शुक्ल पंचमी को किया जाना चाहिए-
“यदि स्यात श्रवणं पर्वं ग्रह संक्रांति दूषितम्. स्यादुपाकरणं शुक्लपंचम्यां श्रावणस्य तु..”

परन्तु ‘व्रत-पर्व विवेक’ के रचयिता के अनुसार उपाकर्म श्रावणपूर्णिमा श्रवण नक्षत्र व्यापिनी ग्राह्य है.यदि इस दिन संक्रान्ति अथवा ग्रहण हो तो श्रावणमास के ही हस्त युक्त पंचमी में यजुर्वेदीय ब्राह्मण उपाकर्म कर सकते हैं.

मदनरत्न, धर्मसिन्धु, निर्णयसिन्धु आदि धर्मशास्त्र के ग्रन्थों के निम्नलिखित श्लोक उपाकर्म अनुष्ठान के सम्बंध में हमारा विशेष रूप से मार्गदर्शन करते आए है-
“भद्रायां ग्रहणं वापि पौर्णमास्यां यदा भवेत्. उपाकृतिस्तु पंचम्याम कार्या वाजसनेयिभिः..
श्रावणशुक्लपूर्णिमायां ग्रहणं संक्रांति वा भवेतदा.
यजुर्वेदिभिःश्रावणशुक्लपंचम्यामुपाकर्म कर्तव्यम्॥
यदि स्यात श्रवणं पर्वं ग्रहसंक्रांतिदूषितम्. स्यादुपाकरणं शुक्लपंचम्यां श्रावणस्य तु.

उपाकर्म प्रायः प्रातःकाल में ही किया जाता है. परन्तु कई बार प्रातःकाल भद्रा व्याप्त रहती है. इसलिए भद्रा में उपाकर्म निषिद्ध है परन्तु भद्रा-पुच्छ ग्रहण करना शास्त्रोक्त है.

“ग्राह्या सोदयगामिनी” और “मुहूर्तमात्रा कर्तव्या” कहकर यजन और पूजन के लिए शास्त्रकारों द्वारा ‘उदयव्यापिनी’ (सूर्योदय कालीन) तिथि को ही प्रशस्त माना गया है.

वैदिक परंपरा में ‘उपाकर्म’ का धर्मशास्त्रीय महत्त्व क्या है
हमारे देश के पर्व और उत्सवों के औचित्य को जानने समझने के लिए भारत की ऋतुविज्ञान की परम्परा के साथ साथ प्राचीन शिक्षा पद्धति का ज्ञान भी बहुत जरूरी है. ‘उपाकर्म’ का अर्थ है शिक्षा का प्रारंभ करना. ‘उपाकरण’ का अर्थ है आरंभ करने के लिए निमंत्रण या निकट लाना.वैदिक काल में यह वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास एकत्रित होने का काल था. इस अध्ययन सत्र का समापन,उत्सर्जन या उत्सर्ग कहलाता था. यह सत्र माघ शुक्ल प्रतिपदा या पौष पूर्णिमा तक चलता था. श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के शुभ दिन रक्षाबंधन के साथ ही श्रावणी उपाकर्म का पवित्र संयोग बनता है.विशेषकर यह पुण्य दिन ब्राह्मण समुदाय के लिए बहुत महत्त्व रखता है.इसके प्रारम्भ काल के बारे में भी धर्मग्रन्थों में व्यवस्थाएं दी गई हैं. ‘उपाकर्म’ के लिए कौन कौन सी तिथियां श्रेयस्कर हैं उसके लिए पारस्कर गृह्यसूत्र का कथन है कि- “जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, श्रावण मास के श्रवण व चंद्र के मिलन (पूर्णिमा) या हस्त नक्षत्र में श्रावण पंचमी को ‘उपाकर्म’ होता है-

“ओषधीनां प्रादुर्भावे श्रवणेन श्रावण्यां.
पौर्णमास्यां श्रावणस्य पंचमी हस्तेन वा..”
                  -पारस्कर.गृ.सूत्र 2.10.1

इसी प्रकार की व्यवस्था आश्वलायन गृह्यसूत्र 3.4.10 में भी दी गई है और ‘व्रतपर्वविवेक’ में भी हस्त नक्षत्र युक्त पंचमी को ही उपाकर्म के लिए प्रशस्त माना गया है.

आखिर ‘हस्त’ नक्षत्र को उपाकर्म के लिए इतना महत्त्व क्यों दिया गया है? इसका कारण भी वैज्ञानिक है. ‘हस्त’ नक्षत्र का स्वामी चन्द्रमा तथा देवता सविता है और गायत्री मंत्र के देवता भी सूर्य हैं और उपाकर्म के अवसर पर यज्ञोपवीत को हाथ पर लपेट कर जप किया जाता है.’हस्त’ का शाब्दिक अर्थ भी हाथ ही है.यदि श्रावण पूर्णिमा का मुहूर्त्त ग्रहण या संक्रांति अथवा अन्य सूतक, नातक की वजह से दूषित हो गया हो अथवा किसी अनिष्ट के कारण हाथ से निकल गया हो तब आने वाला प्रशस्त नक्षत्र ‘हस्त’ नक्षत्र ही होगा. यही कारण है कि प्राचीन ऋषि परम्परा में गौतम गोत्र के सामवेदी ब्राह्मण किसी कारण अथवा अनिष्ट की वजह से श्रावणी पूर्णिमा को अपना यज्ञोपवीत धारण का उपाकर्म संस्कार नहीं कर पाए होंगे, तो भाद्रपद मास की हरतालिका को ‘हस्त’ नक्षत्र के अवसर पर यह यज्ञोपवीत संस्कार किया जाने लगा.

प्राचीन काल में ‘उपाकर्म’ संस्कार तीन चरणों में सम्पन्न होता था- प्रायश्चित संकल्प, यज्ञोपवीत धारण और स्वाध्याय. सर्वप्रथम ब्रह्मचारी शिष्य गुरु के सान्निध्य में गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नान कर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित करने का संकल्प लेता था. जिससे उसके जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता था. स्नान आदि करने के बाद दूसरे चरण में ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता था.

भारतीय परंपरा में प्रत्येक पर्व और त्यौहार अपने किसी न किसी महत्त्व के लिए प्रसिद्ध है.आज भले ही उनका सामाजिक औचित्य भुला दिया गया हो और पाश्चात्य कैलेंडर की मोहधर्मिता के कारण भी अपनी स्वदेशी भारतीय काल गणना के प्रति हमारा मोहभंग हो गया हो. मगर प्राचीन काल में उन तिथि और पर्वों की वैज्ञानिक दृष्टि से बहुत उपादेयता रही थी. ब्राह्मण वर्ग के लिए तो इस श्रावणी महापर्व का सबसे अधिक महत्त्व रहा है क्योंकि यह पर्व उसकी शिक्षा पद्धति का भी मुख्य हिस्सा है. रक्षाबंधन का पर्व भाई-बहन के पर्व के रूप में कई हजार सालों से प्रचलन में है परंतु वैदिक काल में इस उपाकर्म पर्व का विशेष महत्त्व वेदाध्ययन की दृष्टि से रहा था. रक्षाबंधन जो श्रावणी पूर्णिमा के दिन आता है इसी दिन उपाकर्म का भी अनुष्ठान किया जाता है.

प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कृतज्ञता भाव से उसे रक्षासूत्र बांधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बांधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह उसका अपने भावी जीवन में समुचित रूप में प्रयोग करे ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य की गरिमा की रक्षा करने में भी समर्थ हो सके.गुरु अपने शिष्य को तथा ब्राह्मण अपने यजमान को रक्षासूत्र बांधते हुए इस मंत्र का उच्चारण करते हुए कहते थे-

“येन बद्धो बलि: राजा दानवेन्द्रो महाबल:.
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥”

अर्थात – जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानव नरेश राजा बलि को बांधा गया था, उसी रक्षाबन्धन से मैं तुम्हें बांधता हूं जो तुम्हारी रक्षा करेगा.

‘उपाकर्म’ का सामाजिक महत्त्व
उल्लेखनीय है कि प्राचीन काल में ‘उपाकर्म’ संस्कार तीन चरणों में सम्पन्न होता था- प्रायश्चित संकल्प, यज्ञोपवीत धारण और स्वाध्याय. सर्वप्रथम ब्रह्मचारी शिष्य गुरु के सान्निध्य में गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नान कर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित करने का संकल्प लेता था. जिससे उसके जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता था. स्नान आदि करने के बाद दूसरे चरण में ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता था. यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण आत्म संयम का संस्कार है.जिनका यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका होता है,आज हरतालिका के दिन वे पुराना यज्ञोपवीत उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवीत का पूजन भी करते हैं.यज्ञोपवीत धारण करते

समय इस मंत्र का उच्चारण किया जाता है-
“ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं,
प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्.
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं,
यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥”
        -पार.गृ.सू. 2.2.11

इस संस्कार के द्वारा व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है.धर्मशास्त्र की एक लोकप्रिय मान्यता है कि-
“जन्मना जायते शूद्रःसंस्कारात् भवेत् द्विजः.
वेदपाठात्भवेत्विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः..”

अर्थात जन्म से मनुष्य शूद्र ही उत्पन्न होता है, संस्कार से वह द्विज (ब्राह्मण) कहलाता है. वेद के पठन-पाठन से विप्र और जो ब्रह्म को जानता है वह ब्राह्मण कहलाता है.

‘हर’ भगवान शिव का ही एक नाम है और शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती ने इस व्रत को रखा था, इसलिए इस पावन व्रत का नाम हरतालिका तीज रखा गया. नारी के सौभाग्य की रक्षा करने वाले इस व्रत को सौभाग्यवती स्त्रियां अपने अक्षय सौभाग्य और सुख की लालसा हेतु श्रद्धा, लगन और विश्वास के साथ मनाती हैं. कुवांरी लड़कियां भी अपने मन के अनुरूप पति प्राप्त करने के लिए इस पवित्र पावन व्रत को श्रद्धा और निष्ठा पूर्वक करती है.

‘उपाकर्म’ का तीसरा चरण स्वाध्याय का है. इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घी की आहुति से होती है. जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं. इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है. वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन ही ‘उपाकर्म’ और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं. भारतीय जीवन दर्शन की दृष्टि से यह ‘उपाकर्म’ विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है.श्रावणी ‘उपाकर्म’ करने के बाद जब ब्राह्मण घर लौटता था तब बहनें उसके हाथ में रक्षासूत्र बांधती थी.

हरतालिका तीज पर्व का माहात्म्य
जैसे श्रावणी पूर्णिमा के साथ भाई बहन के रिश्ते का सांस्कृतिक माहात्म्य जुड़ा है,उसी प्रकार हस्त नक्षत्र और हरतालिका तीज का पर्व स्त्री के सौभाग्य के साथ जुड़ा है.इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा भी की जाती है. शिव पुराण की एक कथानुसार इस पावन व्रत को सबसे पहले राजा हिमवान की पुत्री माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए किया था और उनके तप और आराधना से खुश होकर भगवान शिव ने माता को पत्नी के रूप में स्वीकार किया था. ‘हर’ भगवान शिव का ही एक नाम है और शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती ने इस व्रत को रखा था, इसलिए इस पावन व्रत का नाम हरतालिका तीज रखा गया. नारी के सौभाग्य की रक्षा करने वाले इस व्रत को सौभाग्यवती स्त्रियां अपने अक्षय सौभाग्य और सुख की लालसा हेतु श्रद्धा, लगन और विश्वास के साथ मनाती हैं. कुवांरी लड़कियां भी अपने मन के अनुरूप पति प्राप्त करने के लिए इस पवित्र पावन व्रत को श्रद्धा और निष्ठा पूर्वक करती है.

संक्षेप में इस लेख के माध्यम से निष्कर्ष के रूप में यह बताना चाहता हूं कि प्राचीन काल से ही ‘उपाकर्म’ अर्थात् यज्ञोपवीत धारण की दो शास्त्रीय परम्पराएं प्रचलित रही हैं. पहली श्रावण मास में होने वाला उपाकर्म पर्व सदा श्रवण नक्षत्र के संयोग पर ही मनाया जाता है. यजुर्वेदी ब्राह्मणों द्वारा यह उपाकर्म तीन प्रमुख योगों पर किए जाने की शास्त्रीय मान्यता प्रचलित है-

  1. श्रावण पूर्णिमा
  2. श्रावण शुक्ल पंचमी
  3. श्रावण शुक्ल में पंचमी युक्त ‘हस्त’ नक्षत्र.

दूसरे और तीसरे योग पर तभी विचार किया जाता है जब श्रावण पूर्णिमा के दिन ग्रहण या संक्रान्ति हो या कोई अन्य प्रकार का विघ्न आ गया हो. दूसरी उपाकर्म की परम्परा सामवेदी गौतम गोत्र के तिवारी, त्रिवेदी, त्रिपाठी आदि ब्राह्मण समुदायों में प्रचलित है जो सदा भाद्रपद शुक्ल हस्त नक्षत्र के दिन ही मनाई जाती है. सभी मित्रों और सामवेदी ब्राह्मण बंधुओं को ‘हरताली’ और उपाकर्म पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं!!

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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