जैंता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में…

‘गिर्दा’ की पुण्यतिथि (22अगस्त) पर विशेष

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

22 अगस्त को उत्तराखंड आंदोलन के जनकवि, गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ की 10वीं पुण्यतिथि है. गिर्दा उत्तराखंड राज्य के एक आंदोलनकारी जनकवि थे, उनकी जीवंत कविताएं अन्याय के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा देतीं हैं. वह लोक संस्कृति के इतिहास से जुड़े गुमानी पंत तथा गौर्दा का अनुशरण करते हुए ही राष्ट्रभक्ति पूर्ण काव्यगंगा से उत्तराखंड की देवभूमि का अभिषेक कर रहे थे. हर वर्ष मेलों के अवसर पर देशकाल के हालातों पर पैनी नज़र रखते हुए झोड़ा- चांचरी के पारंपरिक लोककाव्य को उन्होंने जनोपयोगी बनाया. इसलिए वे आम जनता में ‘जनकवि’ के रूप में प्रसिद्ध हुए. आंदोलनों में सक्रिय होकर कविता करने तथा कविता की पंक्तियों में जन-मन को आन्दोलित करने की ऊर्जा भरने का अंदाज ‘गिर्दा’ का निराला और रंगीला भी था. उनकी कविताएं बेहद व्यंग्यपूर्ण तथा तीर की तरह घायल करने वाली होती हैं-

“बात हमारे जंगलों की क्या करते हो,बात अपने जंगले की सुनाओ तो कोई बात करें.”

मेहनतकश लोगों की पक्षधर उनकी कविता उन अत्याचारी नेताओं की दम्भपूर्ण मानसिकता को चुनौती देती है जो आजादी मिलने के बाद भी मजदूर-किसानों का आज भी शोषण करते आए हैं-

“हम ओड़ बारुड़ि, ल्वार, कुल्ली कभाड़ी,
जै दिन यो दुनी बै हिसाब ल्यूंलो,
एक हाङ नि मांगुल, एक फाङ न मांगुंल,
सबै खसरा खतौनी हिसाब ल्यूंलो.”

उत्तराखंड राज्य आन्दोलन से अपना नया राज्य हासिल करने पर उसके बदलाव को व्यंग्यपूर्ण लहजे में बयाँ करते हुए गिर्दा कुछ इस अंदाज से कहते हैं-
“कुछ नहीं बदला कैसे कहूँ, दो बार नाम बदला-अदला, चार-चार मुख्यमंत्री बदले,
पर नहीं बदला तो हमारा मुकद्दर, और
उसे बदलने की कोशिश तो हुई ही नहीं.”

गिर्दा राज्य की राजधानी गैरसैण क्यों चाहते थे? उसके समर्थन में वे कहते थे – “हमने गैरसैण राजधानी इसलिए माँगी थी ताकि अपनी ‘औकात’ के हिसाब से राजधानी बनाएं, छोटी सी ‘डिबिया सी’ राजधानी,हाई स्कूल के कमरे जितनी ‘काले पाथर’ के छत वाली विधानसभा, जिसमें हेड मास्टर की जगह विधानसभा अध्यक्ष और बच्चों की जगह आगे मंत्री और पीछे विधायक बैठते, इंटर कालेज जैसी विधान परिषद्, प्रिंसिपल साहब के आवास जैसे राजभवन तथा मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के आवास.”

गिर्दा ने अपनी कविता ‘जहां न बस्ता कंधा तोड़े,ऐसा हो स्कूल हमारा’ के द्वारा देश की शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपना नज़रिया रखा तो ‘मेरि कोसी हरै गे’ के जरिए उनकी कविता नदी व पानी बचाओ आंदोलन के साथ सीधा संवाद करती है. गिर्दा लोगों से बतियाते हुए सदा कहा करते थे-
“बबा, मानस को खोलो, गहराई में जाओ, चीजों को पकड़ो…
यह मेरी व्यक्तिगत सोच है,मेरी बात सुनी जाए लेकिन मानी न जाए.”

गिर्दा ने साहित्य जगत में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है. वह संस्कृतिकर्मी थे, उन्होंने हिंदी,कुमाउनी,गढ़वाली में गीत लिखे हैं, जिनमें उत्तराखंड आंदोलन,चिपको आंदोलन, झोड़ा, चांचरी, छपेली व जागर आदि के माध्यम से समाज को परिवर्तित करने पर बल दिया गया है. वे हमेशा समाज में सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक रूप से सक्रिय रहे थे. लोककवि गिर्दा एक अजीब किस्म के फक्कड़ बाबा कवि थे. उनके फक्कड़ काव्य में फक्कड़पन का लहजा भी स्वयं भोगी हुई विपदाओं और कठिनाइयों से जन्मा था. वह खुद फक्कड़ होते हुए भी दूसरे फक्कड़ों की मदद करने का जज़्बा रखते थे. लखीमपुर खीरी में जब एक चोर उनकी गठरी चुरा रहा था तो उन्होंने उसे यह कहकर अपनी घड़ी भी सौप दी थी कि ‘यार, मुझे लगता है, मुझसे ज्यादा तू फक्कड़ है.’ गिर्दा ने आजीविका के लिए लखनऊ में रिक्शा भी चलाया.उनके फक्कड़पन की एक मिसाल यह भी है कि उन्होंने मल्लीताल में नेपाली मजदूरों के साथ रह कर मेहनतकश लोगों के दुःख दर्द को नजदीक से देखा था. भारत और नेपाल की साझा संस्कृति के प्रतीक कलाकार झूसिया दमाई को वह समाज के समक्ष लाए. हंसादत्त तिवाड़ी व जीवंती तिवाड़ी के उच्च कुलीन घर में जन्मे गिर्दा का यह फक्कड़पन ही था कि 1977 में वन आदोलन को प्रोत्साहित करने के लिए ‘हुड़का’ बजाते हुए आंदोलनकारियों के साथ  सड़क पर कूद पड़ते थे. उत्तराखंड आंदोलन के दौरान भी गिर्दा कंधे में लाउडस्पीकर लगाकर ‘चलता फिरता रेडियो’ बन जाया करते थे और प्रतिदिन शाम को नैनीताल में तल्लीताल डांठ पर आंदोलन से जुड़े ताजा समाचार सुनाते थे. उनका व्यक्तित्व बहुआयामी व विराट प्रकृति का था. कमजोर और पिछड़े तपके की जन भावनाओं को स्वर प्रदान करना गिर्दा की कविताओं का मुख्य ध्येय था.

“जैंता एक दिन त आलो वो दिन यू दुनीं में”- ‘गिर्दा’ का यह गीत उत्तराखंड आंदोलन के दौरान बहुत लोकप्रिय हुआ. इस गीत के बारे में ‘गिर्दा’ कहते हैं-

“यह गीत तो मनुष्य के मनुष्य होने की यात्रा का गीत है. मनुष्य द्वारा जो सुंदरतम समाज भविष्य में निर्मित होगा, उसकी प्रेरणा का गीत है यह,उसका खाका भर है. इसमें अभी और कई रंग भरे जाने हैं मनुष्य की विकास यात्रा के. इसलिए वह दिन इतनी जल्दी कैसे आ जायेगा. इस वक्त तो घोर संकटग्रस्त संक्रमणकाल से गुजर रहे हैं ना हम सब.लेकिन एक दिन यह गीत-कल्पना जरूर साकार होगी इसका विश्वास है और इसी विश्वास की सटीक अभिव्यक्ति वर्तमान में चाहिए, बस.”

दरअसल, विकास के मॉडल की जो परिकल्पना गिर्दा ने की थी वह मूलतः पर्यावरणवादी थी.उसमें टिहरी जैसे बड़े बड़े बांधों के लिए कोई स्थान नहीं था. गिर्दा की सोच पर्यावरण के साथ छेड़ छाड़ नहीं करने की सोच थी. उनका मानना था कि छोटे छोटे बांधों और पारंपरिक पनघटों, और प्राकृतिक जलसंचयन प्रणालियों के संवर्धन व विकास से उत्तराखंड राज्य के अधूरे सपनों को सच किया जा सकता है. गिर्दा कहा करते थे “हमारे यहाँ सड़कें इसलिए न बनें कि वह बेरोजगारी के कारण पलायन का मार्ग खोलें, बल्कि ये सड़कें घर घर में रोजगार के अवसर जुटाने का जरिया बनें.” एक पुरानी कहावत है “पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं  आनी”. गिर्दा इस कहावत को उलटना चाहते थे. वे चाहते थे कि हमारा पानी, बिजली बनकर महानगरों को ही न चमकाए बल्कि हमारे पनघटों, चरागाहों, लघु-मंझले उद्योग धंधों को भी ऊर्जा देकर खेत खलिहानों को हराभरा रखे और गांव गांव में बेरोजगार युवकों को आजीविका के साधन मुहैय्या करवाए ताकि पलायन की भेड़चाल को रोका जा सके.

“लोक-संस्कृति सामाजिक उत्पाद है, पूरा सामाजिक चक्र चल रहा है, ऐतिहासिक चक्र चल रहा है और इस चक्र में जो पैदा होता है वही तो हमारी संस्कृति है. संस्कृति का मतलब खाली मंच पर गाना या कविता लिख देना,घघरा और पिछोड़ा पहने से संस्कृति नहीं बनती है. संस्कृति तो जीवन शैली है, वह तो सामाजिक उत्पाद है. जिन-जिन मुकामों से मनुष्य की विकास यात्रा गुजरती है, उन-उन मुकामों के अवशेष आज हमारी संस्कृति में मौजूद हैं,ये ही तो ऐतिहासिक उत्पाद हैं जिन्हें इतिहास ने जन्म दिया है.”

गिर्दा चाहते थे कि सरकारें व राजनीतिक दल अपने राजनैतिक स्वार्थों और सत्ता भोगने की लालसा से ऊपर उठकर नए राज्य की उन जन-आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को पूरा करें जिसके लिए एक लम्बे संघर्ष के बाद उत्तराखंड राज्य का निर्माण हुआ था. पर विडंबना यह रही कि उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के लम्बे संघर्ष के बाद राजनेताओं ने इस राज्य की जो बदहाली की उससे सुराज्य का सपना देखने वाले इस स्वप्नद्रष्टा जनकवि का सपना टूट गया. गिर्दा की कविताओं में इस अधूरे सपनों का दर्द भी छलका है. वे कहा करते थे-

“हम भोले-भाले पहाड़ियों को हमेशा ही सबने छला है. पहले दूसरे छलते थे और अब अपने छल रहे हैं.”

उन्हें इस बात का भी मलाल रहा कि हमने देश-दुनिया के अनूठे ‘चिपको आन्दोलन’ वाला वनान्दोलन लड़ा, इसमें हमें कहने को जीत मिली, लेकिन सच्चाई कुछ और थी.

दरअसल, गिर्दा को आखिरी दिनों में यह टीस बहुत कष्ट पहुंचाती रही कि शासन सत्ता ने उत्तराखंड राज्य के आंदोलनकारियों के कंधे का इस्तेमाल कर अपने शासकीय अधिकारों को तो मजबूत किया किंतु आंदोलन में साथ दे रहे पहाड़वासियों से उनके जल, जंगल, जमीन से जुड़े मौलिक अधिकार छीन लिए. उनके अनुसार 1972 में वन आदोलन शुरू होने के पीछे लोगों की मंशा वनों से जीवन यापन के लिए अपने अधिकार लेने की लड़ाई थी. सरकार कौड़ियों के भाव यहां की वन संपदा लुटा रही थी. स्थानीय जनता ने इसके खिलाफ आंदोलन किया, लेकिन बदले में पहाड़वासियों को जो वन अधिनियम मिला,उसके तहत जनता अपनी भूमि के निजी पेड़ों तक को नहीं काट सकती है किन्तु अपने जीवन यापन की जरूरतों को पूरा करने के लिए उसे गिनी चुनी लकड़ी लेने के लिए भी मीलों दूर जाना पड़ता है. सरकार के इस रवैये के कारण आम जनता का अपने वनों से आत्मीयता का रिश्ता खत्म हो गया है और उन्हें सरकारी सम्पत्ति की निगाह से देखा जाने लगा है. सरकारी वन अधिनियम से वनों का कटना नहीं रुका, उल्टे वन विभाग और बिल्डर माफिया इन वनों को वेदर्दी से काटने लगे. पत्रकार जगमोहन ‘आज़ाद’ से बातचीत के दौरान ‘गिर्दा’ अपनी लोक-संस्कृति की सोच को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-

“लोक-संस्कृति सामाजिक उत्पाद है, पूरा सामाजिक चक्र चल रहा है, ऐतिहासिक चक्र चल रहा है और इस चक्र में जो पैदा होता है वही तो हमारी संस्कृति है. संस्कृति का मतलब खाली मंच पर गाना या कविता लिख देना,घघरा और पिछोड़ा पहने से संस्कृति नहीं बनती है. संस्कृति तो जीवन शैली है, वह तो सामाजिक उत्पाद है. जिन-जिन मुकामों से मनुष्य की विकास यात्रा गुजरती है, उन-उन मुकामों के अवशेष आज हमारी संस्कृति में मौजूद हैं,ये ही तो ऐतिहासिक उत्पाद हैं जिन्हें इतिहास ने जन्म दिया है.”

हिन्दी लोक साहित्य हो या कुमाउँनी लोक साहित्य, लोक संस्कृति से सम्बद्ध तथ्यात्मक समग्र जानकारी उनके पास होती थी. इसलिए उन्हें कुमाऊंनीं लोक साहित्य और संस्कृति का ‘जीवित एनसाइक्लोपीडिया’ भी माना जाता था. उत्तराखंड संस्कृति के बारे में ‘गिर्दा’ कहते हैं-

“हमारी संस्कृति मडुवा, मादिरा, जौं और गेहूं के बीजों को भकारों, कनस्तरों और टोकरों में बचाकर रखने, मुसीबत के समय के लिए पहले प्रबंध करने और स्वावलंबन की रही है, यह केवल ‘तीलै धारु बोला’ तक सीमित नहीं है. आखिर अपने घर की रोटी और लंगोटी ही तो हमें बचाऐगी. गांधी जी ने भी तो ‘अपने दरवाजे खिड़कियां खुली रखो’ के साथ चरखा कातकर यही कहा था. वह सब हमने भुला दिया. आज हमारे गांव रिसोर्ट बनते जा रहे हैं. नदियां गंदगी बहाने का माध्यम बना दी गई हैं. स्थिति यह है कि हम दूसरों पर आश्रित हैं, और अपने दम पर कुछ माह जिंदा रहने की स्थिति में भी नहीं हैं.”

ग्रामीण वातावरण में पैदा हुए तो गाने-बजाने की ओर भी रुझान था. गिर्दा मूलतः कुमाउंनी तथा हिन्दी के कवि हैं, लेकिन उन्होंने लोक पंरपराओं के साथ चलते हुए लोक संस्कृति के क्षेत्र में भी अपनी एक अलग पहचान बनायी. वह आजीवन जन संघर्षों से जुड़े रहे और अपनी कविताओं में जन पीड़ा को सशक्त अभिव्यक्ति दी. उनके द्वारा रचित बहुचर्चित  रचनाएँ हैं- ‘जंग किससे लिये’ (हिंदी कविता संकलन), ‘जैंता एक दिन तो आलो’’ (कुमाउनी कविता संग्रह), ‘रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ (होली संग्रह), ‘उत्तराखंड काव्य’, ‘सल्लाम वालेकुम’ इत्यादि.

गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ का जन्म 10 सितम्बर,1945 को अल्मोड़ा जिले के हवालबाग के ज्योली तल्ला स्यूनारा में हुआ था.उनके पिता का नाम हंसादत्त तिवाडी और माता का नाम जीवंती तिवाडी था. गिर्दा’ ने अपना परिचय कुछ इस प्रकार दिया-

“अरे गौं गाड़ को पत्त दिण तै
भई हमारी पुरानी परिपाटी,
जिल्ल अल्मोड़ा,गौं ज्योली,
पट्टी तल्ला स्यूनरा में
हवालबाग की घाटी.

भुस्स पहाड़ में जन्म मेरो,
च्यून-च्यून बसी भै हिमाल,
शीशि मेरो असमान पूजी,
काखि में लोटि रूनी म्यर डाँडी-काँठी.’

‘गिर्दा’ का परिवार थोड़ा उच्चवर्गीय तो था ही इसलिये गिर्दा’ को पढ़ाई के लिये अल्मोड़ा भेज दिया गया. ‘गिर्दा’ ने कक्षा 5 तक कोई पढ़ाई नहीं की. कक्षा 6 से स्कूल में भरती हुए. ग्रामीण वातावरण में पैदा हुए तो गाने-बजाने की ओर भी रुझान था. गिर्दा मूलतः कुमाउंनी तथा हिन्दी के कवि हैं, लेकिन उन्होंने लोक पंरपराओं के साथ चलते हुए लोक संस्कृति के क्षेत्र में भी अपनी एक अलग पहचान बनायी. वह आजीवन जन संघर्षों से जुड़े रहे और अपनी कविताओं में जन पीड़ा को सशक्त अभिव्यक्ति दी. उनके द्वारा रचित बहुचर्चित  रचनाएँ हैं- ‘जंग किससे लिये’ (हिंदी कविता संकलन), ‘जैंता एक दिन तो आलो’’ (कुमाउनी कविता संग्रह), ‘रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ (होली संग्रह), ‘उत्तराखंड काव्य’, ‘सल्लाम वालेकुम’ इत्यादि. इनके अतिरिक्त दुर्गेश पंत के साथ उनका ‘शिखरों के स्वर’ नाम से कुमाऊनीं काव्य संग्रह, व डा. शेखर पाठक के साथ ‘हमारी कविता के आखर’ आदि पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं हैं. गिर्दा नैनीताल समाचार, पहाड़, जंगल के दावेदार, जागर, उत्तराखंड नवनीत आदि पत्र-पत्रिकाओं से भी सक्रिय होकर जुड़े रहे. एक नाट्यकर्मी के रूप में गिर्दा ने नाट्य संस्था युगमंच के तत्वाधान में ‘नगाड़े खामोश है’ तथा ‘थैक्यू मिस्टर ग्लाड’ का निदेशन भी किया.

‘गिर्दा’ एक प्रतिबद्ध रचनाधर्मी सांस्कृतिक व्यक्तित्व थे. गीत, कविता, नाटक, लेख, पत्रकारिता, गायन, संगीत, निर्देशन, अभिनय आदि, यानी संस्कृति का कोई आयाम उनसे से छूटा नहीं था. मंच से लेकर फिल्मों तक में लोगों ने ‘गिर्दा’ की क्षमता का लोहा माना. उन्होंने ‘धनुष यज्ञ’ और ‘नगाड़े खामोश हैं’ जैसे कई नाटक लिखे,जिससे उनकी राजनीतिक दृष्टि का भी पता चलता है. ‘गिर्दा’ ने नाटकों में लोक और आधुनिकता के अद्भुत सामंजस्य के साथ अभिनव प्रयोग किए और नाटकों का अपना एक पहाड़ी मुहावरा गढ़ने की कोशिश की.

पहाड़ी पारम्परिक होलियों को भी गिरदा ने न केवल एक नया आयाम दिया,बल्कि अपनी प्रयोगधर्मी दृष्टि से सामयिक मूल्यों से जोड़ने का प्रयास भी किया. इसी संदर्भ में जल समस्या से जुड़ी ‘गिर्दा’ की ‘इस व्योपारी को प्यास बहुत है’ शीर्षक से लिखी गई एक होली की पैरोडी बहुत लोकप्रिय है-

इस व्योपारी को प्यास बहुत है
“एक तरफ बर्बाद बस्तियाँ
एक तरफ हो तुम.
एक तरफ डूबती कश्तियाँ
एक तरफ हो तुम.
एक तरफ हैं सूखी नदियाँ
एक तरफ हो तुम.
एक तरफ है प्यासी दुनियाँ
एक तरफ हो तुम.

अजी वाह ! क्या बात तुम्हारी,
तुम तो पानी के व्योपारी,
खेल तुम्हारा, तुम्हीं खिलाड़ी,
बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी,
सारा पानी चूस रहे हो,
नदी-समन्दर लूट रहे हो,
गंगा-यमुना की छाती पर,
कंकड़-पत्थर कूट रहे हो,

उफ!! तुम्हारी ये खुदगर्जी,
चलेगी कब तक ये मनमर्जी,
जिस दिन डोलगी ये धरती,
सर से निकलेगी सब मस्ती,
महल-चौबारे बह जायेंगे,
खाली रौखड़ रह जायेंगे,
बूँद-बूँद को तरसोगे जब ,
बोल व्योपारी,तब क्या होगा ?
नगद-उधारी,तब क्या होगा ?

आज भले ही मौज उड़ा लो,
नदियों को प्यासा तड़पा लो,
गंगा को कीचड़ कर डालो,
लेकिन डोलेगी जब धरती,
बोल व्योपारी तब क्या होगा ?
वर्ल्ड बैंक के टोकनधारी,
तब क्या होगा ?

योजनकारी तब क्या होगा ?
नगद-उधारी तब क्या होगा ?
एक तरफ हैं सूखी नदियाँ,
एक तरफ हो तुम.
एक तरफ है प्यासी दुनियाँ,
एक तरफ हो तुम.”

जीवन भर हिमालय के जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए संघर्षरत गिर्दा के गीतों ने सारे विश्व को दिखा दिया कि मानवता के अधिकारों की आवाज बुलंद करने वाला कवि किसी जाति,सम्प्रदाय, प्रान्त या देश तक सीमित नहीं होता.उनकी अन्तिम यात्रा में ’गिर्दा’ को जिस प्रकार अपार जन-समूह ने अपनी भावभीनी अन्तिम विदाई दी उससे भी पता चलता यह है कि जनकवि किसी एक वर्ग विशेष का नही बल्कि वह सबका हित चिंतक होता है. गिर्दा के देहावसान के बाद जिस तरह नैनीताल के मन्दिरों की प्रार्थनाओं, गुरुद्वारों के सबद कीर्तन और मस्जिदों में नमाज के बाद उनका प्रसिद्ध गीत “आज हिमालय तुमन कँ धत्यूँछ, जागो, जागो हो मेरा लाल”  के स्वर बुलन्द हुए,उन्हें सुन कर एक बार फिर यह अहसास होने लगता है कि धार्मिक कर्मकांड की विविधता के बावजूद हम मनुष्यों की जल,जंगल और जमीन से जुड़ी समस्याएं तो समान ही हैं.उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाला कोई ‘गिर्दा’ जैसा फक्कड़ जनकवि जब विदा लेता है तो पीड़ा भी सारे जन समुदायों को होती ही है. बस केवल रह जाती हैं तो उसके गीतों की भावभीनी यादें-
“ततुक नी लगा उदेख‚ घुनन मुनई न टेक.
जैंता एक दिन त आलो वो दिन यू दुनीं में..”

जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ को उनकी दसवीं पुण्यतिथि पर शत-शत नमन!!

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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