‘गीला या सूखा’ का खेल

मेरे हिस्से और पहाड़ के किस्से भाग—22

  • प्रकाश उप्रेती

आज बात उस खेल की जिसकी लत बचपन में लगी और मोह अब तक है. हम इसे- “बैट- बॉल” खेलना कहते थे और दूसरे गाँव में ‘क्रिकेट’ नहीं ‘मैच खेलने’ जाते थे. पांव से लेकर सर तक जितने ‘घो’ (घाव) हैं उनमें से कइयों की वजह तो यह खेल है. ईजा के हाथों से सबसे ज्यादा मार भी इसी खेल के कारण खाई है. एक पूरी रात अमरूद के पेड़ में इसी खेल के कारण गुजारनी पड़ी है. यह, नशा जैसा था यार..

बचपन में ‘मुंगर’ (अनाज कूटने वाला) हमारा बैट और मोजे में कपड़े भरकर सिली हुई बॉल होती थी. ‘खो’ (आंगन) हमारा मैदान और ‘कंटर’ हमारा स्टम्प होता था. ईजा जब घास-पानी लेने गई हुई होती थीं तो हम दोनों भाई शुरू हो जाते थे. ‘खो’ से बाहर जाना आउट होता था और नियम था कि जो मारेगा वही लाएगा.

‘खो’ में बहन को ‘अड्डु’ (लंगड़ी टांग) भी खेलना होता था. वह भी ईजा के इधर-उधर जाने का इंतजार करती और हम भी. फिर कुछ देर में और कुछ देर के लिए ‘खो’ ‘प्लासी का मैदान’ बन जाता था. उस दौरान अगर ईजा आ गईं तो जो हाथ लग गया उसी की मरम्मत हो जाती थी.

कभी-कभी बॉल वहीं गुम हो जाती. बॉल खोने पर उसे ढूँढने का हमारे पास दिव्य तरीका था . हम अपने उल्टे हाथ में थूकते थे फिर सीधे हाथ की दो उंगलियों से थूक में मारते और कहते-“आती-पाती म्यर बॉल कति” जिधर को थूक उड़ कर जाता उसी दिशा में बॉल को खोजते थे.

‘खो’ में बहन को ‘अड्डु’ (लंगड़ी टांग) भी खेलना होता था. वह भी ईजा के इधर-उधर जाने का इंतजार करती और हम भी. फिर कुछ देर में और कुछ देर के लिए ‘खो’ ‘प्लासी का मैदान’ बन जाता था. उस दौरान अगर ईजा आ गईं तो जो हाथ लग गया उसी की मरम्मत हो जाती थी. जो भाग जाता उसे ईजा कहती थीं- “जाग.. तू घर अये हां”…

बाद में हम लकड़ी के बैट और प्लास्टिक की ठोस बॉल के साथ खेतों में खेलने जाने लगे. शाम के समय, गाँव भर के लड़के बैट- बॉल खेलने के लिए खाली खेत में जुट जाते थे. झाड़ी से तीन लकड़ी तोड़ कर स्टम्प घेंट दिए जाते और दूसरी तरफ एक बड़ा पत्थर रख दिया जाता था. गाँव में एक लड़का जरूर होता था जो अपने को बैट-बॉल के नियमों का ‘बिली बाउडन’ समझता था. वही पिच को नापता, वाइट बॉल का पत्थर रखता, क्रीज नापकर बनाता था.

आउट होने पर अंपायर जबतक ईजा की कसम न खा ले तब तक उसके द्वारा दिया गया आउट मान्य नहीं होता था. हम अंपायर से कहते थे-“इजेक कसम खा’. वो कसम खाकर आउट को पुख्ता करने की रस्म निभाता था.

हमारे यहाँ इस खेल के कुछ पहाड़ी नियम होते थे. अक्सर ये नियम हर खिलाड़ी को याद होते थे लेकिन फिर भी मैच शुरू होने से पहले दोहरा दिए जाते थे. नियम थे-

  1. जिस खेत में खेल रहे हैं वहाँ से 4 खेत ऊपर छक्का. यह निर्धारित करने में खेत की ऊंचाई मायने रखती थी.
  2. नीचे पार की अम्मा के ‘मरचोड़'(मिर्च वाला खेत) में बॉल जाने पर आउट. बॉल भी वही लाएगा जो शॉट मारेगा. गाली भी वही खाएगा…’त्यूमर मर जो रे, सारे पाटो कचुनि है’
  3. सामने की तरफ सीधे रास्ते में टकराने पर चौका और उससे थोड़ा ऊपर ‘बुजपन'(झाड़ी में) लगने पर छक्का.
  4. पीछे के कोई रन नहीं होंगे
  5.  सिसोंड़क बुजपन’ (बिछु घास की झाड़ी में) बॉल जाने पर 2 रन फिक्स
  6. जो बॉल खोएगा वही ढूँढकर लाएगा.

खेल के नियम बताने के बाद टॉस होता था. टॉस के लिए किसी के पास सिक्का तो होता नहीं था. उसका भी हमारा अपना पहाड़ी तरीका था. एक चपटा ढुङ्ग (पत्थर) लेते थे और उसके एक तरफ थूक देते थे. फिर पत्थर को हवा में उछालते हुए पूछते थे- ‘गीला की सूखा’. गीला- सूखा से बॉलिंग और बैटिंग तय हो जाती थी.

गाँव में बॉलर वही धांसू होता था जो सबसे ज्यादा सुर्री बॉल फेंके और कम से कम दो बैट्समैन को अपने ओवर में घायल कर दे. मैच की पहली बॉल अघोषित नियम के तहत ट्राई  होती ही थी. आउट होने पर अंपायर जबतक ईजा की कसम न खा ले तब तक उसके द्वारा दिया गया आउट मान्य नहीं होता था. हम अंपायर से कहते थे-“इजेक कसम खा’. वो कसम खाकर आउट को पुख्ता करने की रस्म निभाता था.

“दिनभर बैट-बॉल होय, और के काम नि होये त्यूमर”. कई बार ईजा ने हमारा बैट छुपा दिया और चूल्हे में जला भी दिया लेकिन फिर हम नया बैट बना लेते थे. ईजा कहती थीं- “भो हैं यो बैट-बॉल जे के ड्यल, तहां अपण पढ़- लिखि ले”.

छुट्टी के दिन हम दूसरे गाँव में खेलने चले जाते थे. मैच में इनाम के तौर पर थाली, तश्तरी और चम्मच होते थे. पैसों का मैच बहुत ही कम होता था. पैसों का मैच लगे भी तो ज्यादा से ज्यादा 51 रुपए का लगता था. जिस दिन मैच हार जाते थे उस दिन चुप-चाप ‘भ्यो’ से लकड़ी लेकर घर आ जाते थे लेकिन जिस दिन मैच जीत गए उस दिन तश्तरी बजाते हुए गाँव की तरफ आते थे. तश्तरी बजाते हुए बीच-बीच में नारे लगाते थे- ‘जब तक सूरज चांद रहेगा ‘खोपड़ा’ (गाँव का नाम) तेरा नाम रहेगा’…

इस बैट-बॉल के कारण ईजा के हाथों से कई बार मार खाई है. ईजा कहती थीं- “दिनभर बैट-बॉल होय, और के काम नि होये त्यूमर”. कई बार ईजा ने हमारा बैट छुपा दिया और चूल्हे में जला भी दिया लेकिन फिर हम नया बैट बना लेते थे. ईजा कहती थीं- “भो हैं यो बैट-बॉल जे के ड्यल, तहां अपण पढ़- लिखि ले”. तब कहाँ बात समझ में आने वाली थी.

आज ईजा कहती हैं- “च्यला अब तो दिहापन बैट-बॉल खेलणी नन ले निछि, गौं एकदम चुम्म हो गो”. ईजा की चिंता अपने से ज्यादा गाँव की है. कुछ साल पहले ईजा ने गोठ से मुझे एक बैट निकालकर दिया और कहा- “यो बैट छू, मेल समा बे धर रहोछि”

आज ईजा कहती हैं- “च्यला अब तो दिहापन बैट-बॉल खेलणी नन ले निछि, गौं एकदम चुम्म हो गो”. ईजा की चिंता अपने से ज्यादा गाँव की है. कुछ साल पहले ईजा ने गोठ से मुझे एक बैट निकालकर दिया और कहा- “यो बैट छू, मेल समा बे धर रहोछि”. ईजा ने वो लकड़ी का बैट आज भी संभाल कर रखा था जिसे मैं तकरीबन एक दशक पहले ही भूल चुका था. ईजा जो है उसे बचाकर रखना चाहती हैं और हम सब खर्च करने पर लगे हैं…

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं।)

 

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