कोरोना काल : सजग रहकर दूरदर्शी व्यवहार अपनाने का वक्त 

  • डॉ. अरुण कुकसाल

आज के कोरोना काल में पर्वतीय अंचलों के ग्रामीण सामाजिक-आर्थिक जीवन में आने वाली चुनौतियों को समझने से पहले विगत शताब्दी में पहाड़ी गांवों के क्रमबद्ध बदलते मिजाज को मेरे गांव चामी के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं.

अपने गांव चामी (असवालस्यूं) पौड़ी गढ़वाल में रहते हुए मैं अभी भी उन मौलिक कारणों को समझने की प्रक्रिया में हूं जो गांव के युवाओं को देश के मैदानी नगरों और महानगरों की ओर धकलने के लिए प्रेरित करते हैं. मेरा चिंतन इस ओर भी है कि आखिर वे कौन से कारण हैं जिनके वशीभूत होकर अधिकांश प्रवासी वापस अपने गांव नहीं आये. मैं अपने आपको बैकगियर में ले जाता हूं तो याद आता है, बचपन. स्वावलम्बी और सम्पन्न समाज में पल्लवित सहज, सरल और आत्मसम्मान से भरपूर, बचपन. बचपन की यादें सुख की वह गठरी है जिसे जब चाहें मन के सबसे नाजुक कोने में चुपचाप खोलकर परम आनन्द की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है.

पौड़ी-सतपुली मोटर मार्ग में सतपुली से 7 किमी पहले है, बौंसाल. बौंसाल से पश्चिमी नयार नदी पार करके कल्जीखाल मोटर मार्ग पर 8 किमी की दूरी के बाद चामी गांव की नीचे एवं ऊपर की सीमा रेखा यही सड़क है. चामी गांव की बसावत तथा खेती के रंग-ढंग आम पहाड़ी गांव की तरह ही है. धन-धान्य से सम्पन्न इस गांव में प्रकृति नजदीकी गांवों की तुलना में ज्यादा मेहरबान रही है. गांव में उपलब्ध भरपूर पानी ने अधिकांश कृषि भूमि को सिंचित एवं उपजाऊ बनाया. परिणामस्वरूप ग्रामीणों की पचास के दशक तक खेती-बाड़ी जीविका का मुख्य साधन था.

(आत्मनिर्भरता की यह सम्मानजनक प्रवृत्ति नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों तक कायम रही. तब तक हम ग्रामवासी नजदीकी बाजार सतपुली प्रमुखतया गांव की उपज – उत्पाद बेचने जाते थे. और आज सतपुली जाने का मुख्य मतलब ही घर की जरूरतों के लिए सामान लाना है. गांव की उपज बेचना अब हमारे लिए दिवास्वप्न जैसा हो गया है. उत्तराखंड बनने के बाद तो बाहरी बाजार की गिरफ्त और मजबूत हो गई है. आजकल हमें इसी बाजारी गिरफ्त से उपजी कसमसाहट – छटपटाहट ज्यादा बैचेन कर रही है, जब इस कोरोना काल में हम अपने ही अस्तित्व को बचाने, सहारे के लिए अपने गांव की ओर कातर नजरों से देख रहे हैं.)

हां, तो बात हो रही थी पचास के दशक की.‌ नए रोजगार करने एवं पढ़ने-लिखने की चाह बढ़ी तो लोगों ने गांव से मैदानी नगरों की ओर निकलना शुरू किया. परन्तु वर्षों तक प्रवासी रहने के बाद भी उनके प्रवास की प्रवृत्ति अस्थायी ही रहती थी. गांव में आना-जाना उनके नियमित सालाना क्रम में शामिल था. सालों-साल लोग नौकरी-रोजगार से वापस आकर गांव में आसानी से पुनः रच-बस जाते थे. बाहरी दुनिया की जानकारी, आकर्षण तथा किस्से-कहानियां उनकी जुबानों पर होते थे. लेकिन दैनिक और सामान्य व्यवहार में स्थानीय तौर-तरीके के अनुकूल ही उनकी क्रियाशीलता थी. प्रवास से वापस आये लोगों ने अपने बाहरी अनुभव, ज्ञान और हुनर का उपयोग गांव की समृद्धि के लिए किया. अपनी जीवन-चर्या को सुविधाजनक बनाने की अपेक्षा ग्रामीण जन-जीवन को अधिक उत्पादक बनाने का चिन्तन उनके मन-मस्तिष्क में था. उस दौर में गांव के खेत-खलिहान, पंचायत, सामाजिक कार्य एवं उत्सवों की जीवन्तता का मूल आधार सामूहिक साझेदारी एवं सक्रियता थी. मौलिक उद्यमिता की भावना ने गांव को स्वावलम्बी समाज का स्वरूप प्रदान किया था.   

यह सच है कि वर्तमान में गांव के रास्तों, मन्दिर, गूल, खेत, पानी की टंकी, थाड (सामूहिक मिलन स्थल) तथा पुराने पंचायती बर्तनों में अगर मजबूती है तो वह 5 दशक पूर्व के लोगों की देन है. आज भी गांव के अधिकांश सार्वजनिक जरूरतों की भरपाई पूर्वजों द्वारा विकसित, निर्मित और संरक्षित किये गए संसाधनों से ही होती है. ये बात दीगर है कि आज उनके मौलिक एवं उपयोगी स्वरूप को बरकरार रखने के लिए मरम्मत एवं देखरेख करने में भी हम अपने को असमर्थ महसूस कर रहे हैं.

अभावों एवं दुरूहता को आसानी से स्वीकार करने वाले उस ग्रामीण समाज में जीवटता एवं सरलता का भाव समान रूप में विद्यमान था. प्रकृति के वर्ष भर के स्वाभाविक बदलावों के साथ ही उनकी दिनचर्या में स्वतः ही बदलाव आ जाता था. यह इंगित करता है कि उस समाज की गतिशीलता पर्यावरण सम्मत थी. प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व को कायम रखते हुए तब के ग्रामीण जीवन में कष्ट तो थे परन्तु कुण्ठाएं नहीं पनपी थी. परिणाम स्वरूप अभावों की परवाह न करते हुए उनके कार्य तथा निर्णय दीर्घकालिक एवं सामुहिक हितों के अनुरूप हुआ करते थे.

ढ़ाकर (पैदल चलकर घरेलू जरूरतों का सामान लाना) के लिए तब कोटद्वार जाना होता था. पश्चिमी नयार नदी में पुल नहीं था इसलिए ग्रामीण लोग नयार को तैर कर पार करते थे . स्थानीय लोगों ने इसकी जरूरत समझी तो सारा इलाका उमड़ा और पुल महीनों में तैयार हो गया. नेता, सरकार, अधिकारी तब इस काम में कहीं नहीं थे. स्वःस्फूर्त स्थानीय जन-सहभागिता की उपस्थिति का ही यह कमाल था. काम को आनन्द के साथ या फिर कहें काम करते हुए उसी में आनन्द को पैदा करने की कला उनको बखूबी आती थी. खेती-बाड़ी, शादी-ब्याह, धार्मिक-सामाजिक उत्सवों में पूर्णतः रम जाना उनकी मौलिक प्रवृति में शामिल था. थाड़ में थडया, चौफला, झौड़ा नृत्यों के साथ गूंजते लोकगीत, कण्डारपाणी की रामलीला, खैरालिंग का कौथिग, बग्वाल में भैलो, बांस की पिचकारी, तीज-त्यौहार में बनते स्वांला-भूडी-अरसा, गांव की दीदियों के बनाए ढुंगला, खेतों में धान की रोपाई करते महिला-पुरुष और ढोल पर लम्बी थाप देते हुए उनके उत्साह एवं उमंग को बढ़ाते ग्रामीण जन. हर जगह जीवन में सामूहिकता, पूरकता, पारस्परिक निर्भरता तथा उल्लास का संगम देखने को मिलता था.

ग्रामीणों में सामाजिक उत्पादकता के स्थान पर आधिकाधिक व्यक्तिगत उपभोग करने की प्रवृति बढ़ी. विकास के नाम पर नए उत्पाद, तकनीकी एवं जानकारियों ने अनावश्यक रूप से ग्रामीण जीवन में बाहरी ग्लैमर की घुसपैठ कराई. परिणाम स्वरूप आधुनिक सुविधाओं से लैस ग्रामीण परिवारों का रंग-ढंग शहरों की तरह एकांगी और बाजारोन्मुखी होने लगा.

समय ने करवट ली. समय बदला तो ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था की गति, दिशा एवं नियति में परिवर्तन स्वाभाविक था. विकास शब्द प्रचलन में आने लगा. कहा गया कि गांव-इलाके का विकास करना है. वही रट आज भी है. विकास का प्रारम्भिक एवं व्यवहारिक मतलब यह माना गया कि सुविधाओं से खुशहाली बढ़ेगी. उसके लिए नए एवं बाहरी तौर-तरीकों को अपनाने की प्रक्रिया आरम्भ हुई. इसमें यह ध्यान नहीं रहा कि स्थानीय सामाजिक परिवेश के मौलिक, परम्परागत और उपयोगी तत्वों को भी समयानुकूल संरक्षित एवं संवर्द्धित किया जाना आवश्यक है. नतीजन, विकासरूपी परिवर्तनों से चामी गांव, सड़क, शिक्षा, बिजली, पानी, टेलीफोन, टीवी, स्वास्थ्य आदि सुविधाओं की पहुंच में तो आया परन्तु ग्रामीण समाज में इसके कई सकारात्मक प्रभावों के साथ नकारात्मक लक्षण भी परिलक्षित हुए. यह परिवर्तन सामूहिक एवं पारस्परिक हितों, सहयोग एवं सामंजस्य की परम्परा को ताकतवर बनाने की अपेक्षा कमजोर करने में ज्यादा प्रभावी साबित हुए. ग्रामीणों में सामाजिक उत्पादकता के स्थान पर आधिकाधिक व्यक्तिगत उपभोग करने की प्रवृति बढ़ी. विकास के नाम पर नए उत्पाद, तकनीकी एवं जानकारियों ने अनावश्यक रूप से ग्रामीण जीवन में बाहरी ग्लैमर की घुसपैठ कराई. परिणाम स्वरूप आधुनिक सुविधाओं से लैस ग्रामीण परिवारों का रंग-ढंग शहरों की तरह एकांगी और बाजारोन्मुखी होने लगा.

नतीजन, आज सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी का जांचा-परखा लोकज्ञान कुछ ही वर्षों में गुम होने की कगार पर है. स्थानीय समाज की पारस्परिक निर्भरता के स्थान पर छोटी-छोटी जरूरतों के लिए शहरों की आधीनता गांव में बढ़ती जा रही है. मुझे छुटपन (लगभग 55 वर्ष पूर्व) की याद है कि ब्लाक से कुछ सरकारी विकासकर्मी नई रासायनिक खाद के प्रोत्साहन के लिए गांव में आये थे. लेकिन उनके आने से पहले ही गांव के सभी सयाने कहीं अन्यत्र चले गए. क्योंकि वे उन सरकारी विकासकर्मियों का सामना नहीं करना चाहते थे. तब नई रसायन खाद को ‘हड्डी वाली खाद’ कहा जाता था. इस कारण गांव के किसान ‘गोबर की खाद’ की जगह किसी भी हालत में अपने खेतों में नई ‘हड्डी वाली खाद’ का प्रयोग नहीं करना चाहते थे. वे जानते थे कि ‘गोबर की खाद’ खेती के लिए सर्वोत्तम खाद है. साथ ही उन्हें धर्मभ्रष्ठ होने का इसमें खतरा नजर आता था. लेकिन कुछ ही वर्षों बाद जोर-शोर के सरकारी प्रचार के कारण खेती में नई रसायन खाद का प्रचलन खूब होने लगा. लेकिन आज 5 दशक बाद गांव में उसी सरकारी व्यवस्था के नये विकासकर्मी प्रचारित कर रहे हैं कि ‘गोबर की खाद’ ‘रसायन खाद’ से कहीं बेहतर है. गांव के लोग धर्मभ्रष्ठ होने का खतरा तो भूल गए परन्तु उनके खेतों का उपाजाऊपन इस हद तक कम हुआ कि सारी खेती-बाड़ी रसायनिक खादों के नशे का शिकार हो गई हैं.

सन् 1980 के करीब जब गांव के समीप सड़क बनकर तैयार हुई तो ग्रामीणों में नए-नए रोजगार की उम्मीद जगी थी. सड़क से लगी जमीन को दान करके उसमें विश्व बैंक का गोदाम बना. ग्रामीण उत्साहित थे कि नया बाजार बनेगा, चाय-पानी, आटा-चक्की, सब्जी, कपड़ा, जनरल स्टोर, परचून का व्यवसाय से लेकर सैलून खोलने की तैयारी शुरू हुई. परन्तु विश्व बैंक के इस गोदाम में वर्षों तक कभी भी एक दाणी अनाज नहीं आ सका. नतीजन, विश्व बैंक का गोदाम बनने के बाद से ही वीरान हो गया.

असल में विकास की आधुनिक प्रक्रिया में ग्रामीणों का लोकज्ञान और हुनर हमेशा सरकारी उपेक्षा का शिकार हुआ हैं. एक उदाहरण हमारे चामी गांव के बगल के सीरौं का पेश है. आज से 90 वर्ष पूर्व उत्तराखंड के सीरौं गांव, पौड़ी (गढ़वाल) के अन्वेषक एवं उद्यमी स्वः अमर सिंह रावत ने अपने मौलिक अध्ययन, शोध एवं अनुभवों के आधार पर स्थानीय संसाधनों एवं तकनीकी के माध्यम से विभिन्न उद्यमों को प्रारम्भ किया था. उनका मुख्य कार्य कंडाली, रामबांस, चीड आदि से रेशा उत्पादों को प्राप्त करके उनसे कपड़ा बनाना था. उद्यमी अमर सिंह रावत ने सन् 1936 में पवन चक्की का सफल प्रयोग किया था. रामबांस, भीमल, कण्डाली के रेशों से बनाये कपडे से स्वः निर्मित जैकेट को उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को भेंट स्वरूप पहनाया था. उन्होने स्थानीय संसाधनों से कई अन्य उत्पादों का निर्माण किया था. परन्तु अपेक्षित सहयोग नहीं मिलने के कारण वे रीते ही इस दुनिया से अलविदा हो गए. देश की आजादी के बाद भी उनके उद्यमीय कार्य को आगे बड़ाने के लिए कोई पहल नहीं की गई. आज की उत्तराखंड सरकार पिरुल, रामबांस, भांग, कंडाली आदि के रेशों से उत्पादक कार्य करने की बात तो कह रही है परन्तु 90 साल पूर्व के इस उद्यमी के प्रयासों की उसे जानकारी नहीं है. और यदि है भी तो वह उसका लाभ नहीं लेना चाहती है.

वास्तव में, चमक-दमक से भरपूर नए विकास की अवधारणा और प्रक्रिया यह नहीं बताती है कि ग्रामीण इन सुविधाओं के बदले क्या खो रहे हैं. गांव में मोटर सड़क आने का उदाहरण इसके लिए काफी है. सन् 1980 के करीब जब गांव के समीप सड़क बनकर तैयार हुई तो ग्रामीणों में नए-नए रोजगार की उम्मीद जगी थी. सड़क से लगी जमीन को दान करके उसमें विश्व बैंक का गोदाम बना. ग्रामीण उत्साहित थे कि नया बाजार बनेगा, चाय-पानी, आटा-चक्की, सब्जी, कपड़ा, जनरल स्टोर, परचून का व्यवसाय से लेकर सैलून खोलने की तैयारी शुरू हुई. परन्तु विश्व बैंक के इस गोदाम में वर्षों तक कभी भी एक दाणी अनाज नहीं आ सका. नतीजन, विश्व बैंक का गोदाम बनने के बाद से ही वीरान हो गया. गांव के भावी उद्यमियों के साकार होते सपने भी धम्म से धाराशाही हो गए. वर्षों तक आने-जाने वाले मुसाफिरों तथा बाद में स्कूली लड़कों के छुपने के लिए ये भवन कारगर रहे. आज इन भवनों के कंकाल ही अवषेश में दिखाई दे रहे हैं.

सही बात तो यह है कि सड़क आने से गांव जाना-आना तो आसान हुआ परन्तु मोटर सड़क गांव की उत्पादकता को बड़ाने में सहायक सिद्ध नहीं हो सकी. बस, इसका प्रभाव यही हुआ कि मोटर सड़क के आस-पास के गांवों में भी सड़क से चिपक कर ‘नीचे दुकान ऊपर मकान’ या ‘आगे दुकान पीछे मकान’ वाले कई नए भवनों की कतार दिखाई देने लगी है. गांवों में शहरी जीवन शैली को पसारने में सड़क से सटे इन नई बसावतों का महत्वपूर्ण योगदान है. वास्तव में, सड़क में दौड़ने वाले वाहन में बैठकर ग्रामीण व्यक्ति यात्री बनकर अपने गन्तव्य स्थान पर सुविधाजनक, जल्दी एवं सरलता से पहुंचा लेकिन बिल्कुल रीते हाथ.

आधुनिक विकास ने ग्रामीणों में शिक्षा के प्रति आकर्षण को अधिक प्रभावी बनाया. गरीब-अमीर, लड़के-लड़कियां, सभी ने पढ़ना अनिवार्य समझा. परन्तु विद्यालयी शिक्षा ने इन युवाओं के मन-मस्तिष्क में जीविकोपार्जन के लिए अपने परिवेश से बाहर का रास्ता ही बताया है. श्रम को बोझिल एवं अनुपयोगी मान लेने की मानसिकता युवाओं में तेजी से बड़ी. गांव में पढ़ लिखकर रहना युवाओं के लिए असहाय हो गया.

सयाने कहते कि ’अगर कुछ करना है तो बाहर निकलो, गांव में क्या रखा है?’

गांव में रह रहे हाईस्कूल – इंटर पास युवा रोजगार के घनघोर संकट से गुजर रहे हैं. उनके परिवार आर्थिक दिक्कतों में हैं. खेती-बाड़ी से गुजारा करना कठिन है. गांव में मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं है. शहरों में ठौर-ठिकाना नहीं होने से वे जायें तो जायें कहां? करें तो करें क्या? ज्यादातर युवा इसी उधेड़बुन में दूसरों की देखा-देखी में मैदानी महानगरों की ओर रोजगार के लिए गोता लगाने चल देते हैं. कुछ सफल तो अधिकांश असफल, फिर कुछ महीने गांव में तो कुछ माह मैदानी प्रवास में. नतीजन, ’रोजगार के लिए असल में करना क्या है’? का बोध उनमें विकसित  नहीं हो पाया है.

आज पहाड़ में जगह-जगह प्रवासियों के योगदान से स्थानीय एवं अन्य देवी-देवताओं के भव्य मंदिरों की भरमार है. किसी भी पहाड़ी धार से देखिए प्रत्येक गांव छोटे-बड़े नए मन्दिरों से घिरे दिखाई देते हैं. भले ही उनमें नियमित पूजा करने वालों का अकाल है.

पहाड़ी गांवों में अच्छी पढ़ाई माने अच्छी नौकरी और अच्छी नौकरी माने शादी की गारंटी फिर दिल्ली, लखनऊ, गाजियाबाद, मेरठ, चंडीगढ़, कोटद्वार, देहरादून में मकान, उसके बाद टाईवाले स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने की तमन्ना. मां-पिताजी गांव में रहें तो ठीक वरना उनके लिए शहरी मकान मे फोल्डिंग चारपाई का पक्का इंतजाम. सामान्यतया ग्रामीण समाज में एक कामयाब व्यक्ति की यही पहचान है.

पिछले 5 दशकों में गांव में आये कुछ परिवर्तन बार-बार यह विचार करने की ओर बाध्य करते हैं कि वाकई हमारा ग्रामीण समाज समझ और सभ्यता के स्तर पर आगे बढ़ा है या उसे दिशाभ्रम हो गया है. गांव में स्थानीय देवी-देवताओं की मान-प्रतिष्ठा पहले भी थी और आज भी है. पहले लोक देवताओं के मंदिर नहीं होते थे. खेतों की मेडों या घर के धुरपल्ले (छत) या ढैपुर (कमरा और छत के बीच का ढाई फुट का हिस्सा) या फिर निर्जन स्थानों पर बहुत छोटे और खुले आकार में सादगी के साथ स्थानीय देवी-देवताओं के निवास होते थे. आज पहाड़ में जगह-जगह प्रवासियों के योगदान से स्थानीय एवं अन्य देवी-देवताओं के भव्य मंदिरों की भरमार है. किसी भी पहाड़ी धार से देखिए प्रत्येक गांव छोटे-बड़े नए मन्दिरों से घिरे दिखाई देते हैं. भले ही उनमें नियमित पूजा करने वालों का अकाल है.

दूसरी तरफ उस पुराने दौर में ग्रामीण इलाके में केवल सरकारी स्कूल थे और वो भी बेहद कम संख्या में लेकिन उनकी भव्यता, उपयोगिता और जीवंतता में कहीं कमी नहीं थी. आज की तारीख में ये सारे सरकारी स्कूल अपनी बदहाली और किसी हद तक निरर्थकता के कारण वीरान हो गए हैं. सरकारी स्कूलों की बदहाली का फायदा उठाकर ग्रामीण क्षेत्रों में निजी स्कूल पूरी धमक के साथ फल-फूल रहे हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में नये मंदिरों और निजी स्कूलों की अंधाधुंध भरमार और पुराने सरकारी स्कूलों का गायब होना यह इंगित करता है कि नीति निर्माताओं से ग्रामीण क्षेत्र की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक प्रगति को सही दिशा एवं गति देने में हर स्तर पर चूक हुई है.

यह कैसा विकास है जो हमें बताता है कि जो कुछ मौलिक, परम्परागत एवं स्थानीय है, वह अब प्रासंगिक नहीं है. आधुनिक जीवन शैली पहाड़ी परिवेश की पैतृक एवं परम्परागत भाषा-भोजन-भेषभूषा, रीति-रिवाज, तौर-तरीके, उठना-बैठना, किस्से-कहानी, ब्यौ-कारज, रहने के रंग-ढंग सभी को जबरदस्ती और अनावश्यक बदलने की फिराक में हैं. बाजार अपने भड़कीले ग्लैमर के साथ हमारे घर के चूल्हे में पहुंच कर जो भी पैतृक है उसे भष्मीभूत करके कालातीत करने पर जुटा है. यह बदला रूप कितना ही असहज हो, पर यह गलतफहमी है कि हम समाज की नजर में बड़े और सम्पन्न आदमी बन गए हैं. मसलन, ब्याह कार्य में सर्यूल की जगह कारीगर है तो ढोल-दमाऊ की जगह नजीबाबाद बैण्ड, मण्डाण के बदले भांगडा, तो बामण की पुड़खी में अब प्लास्टिक विराजमान है.

ज्यादा वक्त नहीं हुआ है, चार दशक पहले तक प्रवासी लोग हर साल लम्बी छुट्टी लेकर अपने गांव आते थे. खेती-बाड़ी, तीज-त्यौहार, शादी-ब्याह, मकान की मरम्मत आदि कामों को निपटाते हुये मजे से गांव में महीने-दो महीने रहते थे. खेती-बाड़ी अब रही नहीं. गांव में तीज-त्यौहार मनाना बीते दिनों की बात हो गयी है. शादी-ब्याह में बहुत जरूरी हुआ तो एक रात शामिल होने आ गए. वैसे भी अधिकांश लोगों के कुटम्ब अलग-अलग शहरों में छितरा गए हैं. फिर गांव में रहेगें किसके पास? मूल प्रश्न यह है. ज्यादातर लोगों को तो पितरौड़ा में पितृलोड़ी रखने के लिए ही गांव की याद आती है. एक कारण बड़ा मजबूत है, आज के दौर में गांव जाने का, देवी-देवताओं के सामूहिक पूजन में शामिल होना और छुट्टियों का महीना जून इसके लिए निर्धारित सा लगता है. वैसे देहरादून, पिथौरागढ़ और चम्पावत से खबर आयी थी कि प्रवासी लोग स्थानीय देवी-देवताओं की मूर्तियां भी अपने साथ ले गए हैं. लो कर लो बात, हमेशा की छुट्टी पायी गांव आने से.

आजकल पहाड़ी गांव में सुखी-सम्पन्न वह है जो मजे से पेंशन की जुगाली कर रहा है. शहरी रिवाज अपनाते दिन-भर घर पर बैठे-ठाले शाम को दूर सड़कों की ओर उनको टहलते देखा जा सकता है. मुझे उनको देखकर अपने बचपन में देखे बुजुर्गो की याद आती है. बचपन में हमें शाम होने का बेसब्री से इंतजार रहता था क्योंकि सुबह से शाम तक खेतों में हाड़ – तोड़ मेहनत करके घर आये बुजुर्ग तब फुरसत में होते और वो वक्त उनका हमको किस्से – कहानी सुनाने का होता था. तब के बुजुर्गो और आज के बुजुर्गो की मन:स्थिति का यह फासला हमारी विकास यात्रा की विसंगतियों को बखूबी महसूस कराती है. शारीरिक श्रम की उपयोगिता एवं अनिवार्यता को कम समझने के कारण स्थानीय जीवन के मूलभूत आधार, कृषि एवं पशुपालन के प्रति अरुचि बढ़ी है.

स्थिति की गम्भीरता यह है कि गांव में सिंचित जमीन में भी छिटककर धान बोने का रिवाज चल पड़ा है. अधिकांश खेत बंजर है. ईधन के लिए गैस उपलब्ध है तो पेड़ों की कटाई कम हुई है. गांव के नजदीक झाड़ी-जंगल में वृद्धि हुई तो बची-खुची खेती के लिए मुसीबत बढ़ गई. जंगली जानवरों का आतंक चरम पर है. मौसम की मार से बचाई हुई फसल को बंदर चट कर जाते हैं. प्रवासी लोगों के बंजर जमीनों ने इस समस्या को और बढ़ाया है. पहले सारा इलाका आबाद था तो सामूहिक देख-रेख से फसलों की पुख्ता सुरक्षा थी. अब इसका निदान यही है कि घर के आस-पास के खेतों में ही हल चला कर लाल करके खेती की रस्म अदायगी कर दी जाए, जो छूटा उसे देखना भी क्या है?

अभी हाल में किसी प्रवासी ने गांव के बंधु को पूछ लिया ‘गेहूं कितना हुआ तुम्हारा’ ? धाराप्रवाह सुनने को मिला. ’‘अब क्या बताना ? हमारा 50 किलो तो किसी का 25 किलो भी नहीं हुआ. पूरे गांव में 4 बोरे गेहूं हुआ होगा. बीज भी हाथ नहीं आया. जानवरों के लिए घास तो होता. थोड़ा बहुत फसल उगी भी थी, वह जंगली जानवरों ने चौपट कर दी. जंगलों में खाने को नहीं है. जानवर जाएं तो जाएं कहां? बंदर भरी दोपहरी में बेरोकटोक घर की दहलीज पर मजे से आने लगे हैं. हमको यह बताने कि हमारे लिए भी खाना बना देना. जानवरों से खुद को बचायें कि खेती को. पहले सभी खेती करते थे तो जानवरों से सामूहिक सुरक्षा हो जाती थी. आज जिसने हल चला कर अपने खेतों को आबाद किया है, उसी को तो परेशानी होगी. बगल के बंजर खेत वाला चण्डीगढ़, देहरादून, दिल्ली, मुम्बई, मेरठ, फरीदाबाद से तो आयेगा नहीं. अब बंदर-सुअर जंगली न होकर गांव के स्थाई निवासी हो गये हैं. आदमियों की आबादी से अधिक बंदर उछल-कूद कर रहे हैं गांव में. सरकार को सलाह है कि उनका भी राशनकार्ड बनाया जाय. एक बात और बतायें जंगलों में लोग आग इसलिए भी लगा रहे हैं ताकि जंगली जानवर गांव के नजदीक न आ सकें.‘‘

‘ये तो ठीक बात नहीं है,’ उस प्रवासी भाई ने कहा.

तुरन्त उत्तर आया. ’दो-चार महीने गांव में रह लो. सब ठीक लगने लगेगा.’

वास्तव में कभी-कभार गांव जाने वाले प्रवासियों ने ग्रामीण जनजीवन से सामाजस्य रखने के बजाय अपने शहरी ग्लैमर से ग्रामीणों को प्रभावित करने की कोशिश की है. इस कारण अंजाने में सही वे ग्रामीणजन की जीवन शैली और उसके श्रम को सामाजिक सम्मान देने में कतराते रहे है. शहर से गांव आने वाले प्रवासी उम्मीद रखते हैं कि गांव का दूध, दही, सब्जी, अनाज, दाल हमें फ्री या बहुत कम कीमत पर मिल जाए. प्रवासी लोग गांव के लोगों से भाईचारे, ईमानदारी तथा सहृदयता की आशा रखते हैं परन्तु अपना सकारात्मक योगदान ग्रामीण व्यवस्था में प्रदान करने में हिचक जाते हैं. समस्या यह है कि हम अन्य व्यक्तियों को अपने नजरिये से ही देखना चाहते हैं. इस प्रक्रिया में शहरी प्रवासी ग्रामीण जीवनशैली में अनावश्यक छेड़-छाड़ करके उसे असंतुलित करने में योगदान दे रहे हैं. वास्तव में, स्थानीयता का अर्थ जड़ता नहीं है. अतः स्थानीयता के प्रति व्याप्त सामाजिक उदासीनता के भाव को हमें छोड़ना होगा.

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और सामाजिक चिंतक प्रो. पी. सी. जोशी का यह कथन बेहद प्रासंगिक है कि ‘‘….यह स्वीकार करते हुए अत्यंत लज्जा महसूस करता हूं कि मैंने देश-दुनिया में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में यथाशक्ति काम किया और प्रतिष्ठा भी प्राप्त की लेकिन उत्तराखंड के निर्माण और विकास संबंधी शोधकार्य में कोई भी योगदान नहीं दे पाया. मुझे यह भी महसूस करते हुए लज्जा होती है कि दिगोली ग्राम, जहां मेरा जन्म हुआ जिसने अनेक प्रतिभाशाली व्यक्तियों को जन्म दिया जिन्होने शिक्षा, प्रशासन आदि क्षेत्रों में नाम कमाया लेकिन अपने गांव के प्रति इन प्रतिभाशाली व्यक्तियों का कोई प्रत्यक्ष योगदान न हो सका.

मुझे एक बार जियोर्जिया में एक अर्थशास्त्री ने इस कटु सत्य का अहसास कराया. उसने कहा कि उसकी उन्नति उसके ग्राम और उसके समस्त समुदाय की उन्नति के साथ हुई है. उसके पूछने पर मुझे यह स्वीकार करना पड़ा कि मेरी उन्नति अपने ग्राम और अपने इलाके की उन्नति के साथ नहीं हुई है, उससे कटकर हुई है.

जो राष्ट्रीय उन्नति स्थानीय उन्नति को खोने की कीमत पर होती है वह कभी स्थाई नहीं हो सकती. उत्तराखंड के बुद्धिजीवियों का देश की उन्नति में कितना ही बड़ा योगदान हो, उनके उत्तराखंड की समस्याओं से अलगाव और उत्तराखंड की उन्नति में योगदान से उनकी उदासीनता उनके जीवन की बड़ी अपूर्णता है. यह राष्ट्र की भी बड़ी त्रासदी है.’‘  (प्रो पी.सी. जोशी, पहाड़-8, नैनीताल, वर्ष-1995)

प्रो. पी. सी. जोशी के उक्त विचार मुझे हमेशा प्रेरक बनकर अपने गांव-इलाके से जोड़े रखने में सहायक सिद्ध हुआ है.

अतः आज आवश्यकता गांव में रहकर ग्रामीणों के मनोविज्ञान और जीवनीय दिक्कतों को समझने तथा स्थानीय अवसरों, संसाधनों एवं सम्भावनाओं के अनुरूप कारगर कार्य करने की हैं. समाज में अधिकांश परिवर्तन स्वःस्फूर्त, स्वाभाविक एवं समयागत होते हैं. उन्हें रोका भी नहीं जा सकता और उनके मार्ग में अनावश्यक अवरोध भी खडे़ नहीं किए जाने चाहिए. वास्तविकता यह है कि परिवर्तनशीलता स्थानीय समाज को जीवन्तता तथा नवीन परिस्थितियों के अनुकूल आकार लेने की ओर प्रेरित एवं विकसित करती हैं. बस, ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक परिवर्तनों को स्थानीय उद्यमशीलता से जोड़ने की जरूरत है. इसके लिए स्थानीय संसाधनों के मौलिक स्वरूप को समझते हुए उनके सर्वोत्तम उपयोगों की ओर क्रियाशील होना होगा.

इन्हीं अर्थों में मेरे गांव चामी की तरह उत्तराखण्ड के सभी गांवों की परिर्वतनशील विकास प्रक्रिया को एक सही दिशा और गति देनी होगी. इसके लिए बाहर नहीं वरन् स्थानीय समाज में ही उपलब्ध संसाधनों, चुनौतियों एवं अवसरों को तलाशना और तराशना होगा.

मैं गांव में रहते हुए इस बात से पूर्णतया आश्वस्त हूं कि इस कोरोना काल से उपजी आपदा स्थानीय विकास के समग्र अवसरों में तब्दील होकर ग्रामीण पहाड़ी समाज को पुनः पैतृक आत्मनिर्भर स्वरूप प्रदान करने में सहायक होगा. ऐसा इसलिए कि गांव के सयानों के साथ-साथ युवा और बच्चे अपने गांव और पैतृक भूमि की नये संदर्भों में अहमियत को समझ रहे हैं. उदाहरण देता हूं, कि गांव के युवाओं को लगता है कि उदासी और नकारात्मकता का भाव सबसे ज्यादा रोज इन खंडहर हो गये घरों को देखने से ही उपजता है. इसके लिए गांव के युवाओं की प्रवासियों से अपने पैतृक घरों को ठीक करने की अपील ने रंग जमाया. नतीजन, विगत वर्षों में गांव के अधिकांश टूटे-फूटे घर आज आधुनिक और खूबसूरत स्वरूप में आ गये हैं. समस्या यह है कि दिन में बंदर और रात को सुअर खेतों को नुकसान पहुंचाते हैं. इसके विकल्प में जड़ी-बूटी और ऐसी फसलों की ओर हम उन्मुख हुए हैं जिन्हें जानवर नुकसान नहीं पहुंचाते है. यह क्या कम है कि गांव के युवाओं ने अपने ही प्रयासों से पुस्तकालय और कम्प्यूटर सैंटर चलाने की पहल की है. प्रवासी बन्धुओं की मदद और मार्गदर्शन से इस कैरियर सैंटर को डिजिटल करने की ओर गांव के युवा प्रयासरत हैं.

ये युवा चामी ग्राम सभा का आगामी 25 वर्षों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए एक मास्टर प्लान पर कार्य कर रहे हैं. इसमें गांव के इतिहास, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक आदि पहलुओं पर कार्य किया जा रहा है. इन युवाओं की यह पहल भविष्य के नये आयामों के द्वार खोलेगी. अभी उनके चिन्तन और प्रयासों में थोड़ी हिचकिचाहट की छाया है, पर समय के साथ यह कुहासा भी छटेगा. मेरी समझ यह कहती है कि यदि हम गांव में रह रहे ग्रामीणों और उनके प्रवासी बन्धु-बांधुओं के बीच निरन्तर सही, सुगम और पारदर्शी समन्वयन को सफलतापूर्वक संचालित कर लें तो पलायन की चर्चा ही निरर्थक लगेगी.

मैं पुनः यह बात विनम्रता के साथ परन्तु मजबूती से कहना चाहता हूं कि किसी भी स्तर से गांव के समग्र विकास की बात कही जाती है तो उसे/उन्हें स्वयं इस तरह का व्यवहारिक आचरण और पहल करनी होगी. हमें दूसरों से कहने-लिखने से ज्यादा खुद साबित करके दिखाना होगा.

गांव में आना-जाना और गांव में ग्रामीणों जैसा स्थाई तौर पर रहना इन दोनों प्रवृत्तियों में बहुत अन्तर है. गांव में जीवकोपार्जन करके जीवन चलाने की दिक्कतें दिखती कम हैं उसे गांव में रहकर ही महसूस किया जा सकता है.

अच्छी पढ़ाई के लिए देहरादून और अच्छे इलाज के लिए दिल्ली से नजदीक कोई सुविधा सरकार और समाज हमारे उत्तराखंडी पहाड़ी गांवों को नहीं दे पाई है. बावजूद इसके, हम ग्रामीण पहाड़ी लोग शहरी कुंठाओं से ग्रस्त नहीं हुये हैं. यही हमारी ताकत और पहचान है.

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की प्रारंभिक रिपोर्ट कहती हैं कि कोरोना महामारी के असर से विश्वस्तर पर 16 प्रतिशत युवाओं ने अपना रोजगार खोया है. उत्तराखंड में यह आंकड़ा 30 प्रतिशत से कम नहीं होगा. इस हिसाब से तकरीबन 1.5 लाख नये युवाओं को तुरंत रोजगार देने की चुनौती हमारे सामने है. इस तरह पहाड़ के प्रति गांव में आगामी एक साल के अंदर 7 से 10 नये युवा नये रोजगार को प्राप्त करने की लाइन में होंगे. यह भी महत्वपूर्ण है कि अपने वर्तमान रोजगारों से छूटने के बाद वापस आने वाले ये युवा अधिकांशतया 30 वर्ष से कम आयु के हैं. यही आयु होती है जब युवा शिक्षा, प्रशिक्षण और रोजगार पर अपने मन – मस्तिष्क को केन्द्रित करता है.

ऐसे समय में अपने गांव – इलाके वापस आने वाले युवाओं की मनोदशा – मनोवृत्ति को आत्मीयता से समझने और उनमें साहस और सकारात्मकता के भावों को पुनः जागृत करने की जरूरत है. अभी तो उन पर बेवजह छाये अपराध बोध को कम करके उन्हें सामान्य जीवन की मुख्य धारा में लाने की सार्थक पहल करनी होगी.

मुझे गढ़वाल के इतिहास में ‘बावनी अकाल’ का घ्यान आ रहा है. विक्रम संवत् 1852 (सन् 1795) के भयंकर अकाल में गढ़वाली लोग कई दिनों तक भूख से बेहाल रहे परन्तु उन्होने अपनी खेती के परम्परागत बीजों को नहीं खाया. उन्हें विश्वास था जब तक ये परम्परागत बीज उनके पास उपलब्ध है उन पर जीवनीय संकट नहीं आ सकता है. वे आश्वस्त थे कि कुछ समय के दुर्दिनों के बाद अपने इन मौलिक बीजों का खेती में उपयोग करने से वे अकाल पर विजय प्राप्त कर लेंगे. उनका विश्वास सही साबित हुआ उन्हीं बीजों के बदौलत बाद में उनके जीवन में फिर से खुशहाली आ गई थी.

इसी तरह गांव के बुजुर्गों से जो उन्होने अपने सयानों से सुना था कि सन् 1920 की महामारी (इस महामारी की वजह से उत्तराखंड की जनसंख्या जो सन् 1911 में 22 लाख थी घटकर सन् 1921 में 21 लाख अर्थात इन 10 सालों में 1 लाख कम हो गई थी.) के समय भी पहाड़ के लोग जान बचाने जगंलों की ओर भागते समय अपने मूल्यवान धन के साथ तोमड़ियों (बीज रखने के लिए बड़ी -स्वस्थ्य लोकियों को झाल में ही सुखाया जाता है. झाल सूखने के बाद उनके अन्दर बचे-खुचे को बाहर निकाल कर उसके खोल में कृषि उपज के बीजों को रखा जाता है. ऐसा करके बीजों पर कीड़ा नहीं लगता और वे दीर्घकाल तक सुरक्षित रहते हैं.) में खेती-किसानी के बीजों को ले जाना नहीं भूले थे. पूर्ववत महामारियों में अपने पूर्वजों के अनुभवों के बल पर इन्हीं बीजों के कारण महामारी टलने के बाद उन्हें अपनी ग्रामीण जीवन-चर्या को फिर से चलाने में कोई विशेष दिक्कत नहीं आई थी.

आज हमें भी अपने मन-मस्तिष्क में विगत शताब्दियों में आई भयंकर विपत्तियों से निपटने में हमारे पूर्वजों द्वारा अपनाई गई सकारात्मकता के बीजों को पुर्नजीवित करने की जरूरत है. इन 100 सालों में पहाड़ी गांवों और ग्रामीणों की जीवन शैली का परिदृश्य बदल चुका है. मानवीय समझ और भौतिक सुविधाओं का आधुनिक जीवन शैली के अनुरूप विकास – विस्तार हुआ है. जीवनीय आशायें और अवसर आज पहले की अपेक्षा ज्यादा प्रभावी रूप में विद्यमान हैं. उन्हें नई गति और दिशा देने की जरूरत है. अनवरत सामाजिक विकास में शताब्दी पूर्व के हुनर को पुनःस्थापित करना और कराना ज्यादा मुश्किल नहीं है.

यह वक्त नकारात्मकता की ओर देखने का नहीं वरन अपने कोे और अपनों के बीच की जद्दोजेहत से बाहर आकर पहाड़ और पहाड़ी जीवन – चर्या के परम्परागत सामांजस्य को देखने – समझने और उसे अपनाने की जरूरत है. और यह हम गांठ बांध ले कि यह कार्य केवल सरकारी भरोसे तो कदापि संभव नहीं है. संपूर्ण समाज की सामुहिक नागरिक शक्ति ही आत्मनिर्भर जीवन की जीवंतता को पुनः स्थापित करेगी.

बारे में दो राय नहीं हैं कि सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कोरोना संकट से निजात पाने के लिए छटपटाहट है. सरकारी संस्थायें अपनी प्रासंगिकता और उपयोगिता को साबित करने के मिशन पर जुटी हैं. सरकारी स्वास्थ्यकर्मी, सफाईकर्मी, पुलिसकर्मी, शिक्षक, ग्राम प्रधान आपदा के इस समर में अग्रणी भूमिका में सक्रिय हैं. जन समुदाय कोरोना से स्वयं अपना बचाव करते हुए पीड़ित लोगों की साहयता के प्रति नागरिक धर्म बखूबी निभा रहा है. इस संकट को थामने में वह दिन-रात सजग प्रहरी सा तैनात है.

इस दौर का दूसरा पहलू यह है कि ज्यादातर निजी क्षेत्र और स्वयंसेवी संस्थायें अपने हितों को बचाने की ही फिरा़क में है. आये दिन सम्मान बांटने वाले लोग और संस्थायें आजकल अपने सम्मान को बचाने में लगे हैं. कोरोना से पूर्व गांव – नगरों में स्वयंसेवी संस्थाओं का समाजसेवा के प्रति बोल-बाला सुनाई – दिखाई देता था. वे आजकल नेपथ्य में हैं. अधिकांश साहित्यिक – सांस्कृतिक संस्थाओं ने अपने कारोबार का नया ठिकाना – प्लेटफार्म – मंच सोशियल मीडिया को बना दिया है. कोरोना के प्रति उनके गाहे-बेगाहे कोरे मार्मिक गीत, कहानी और कवितायें कर्कश ध्वनि की तरह चुभने लगी हैं. तथाकथित नव-उपजे सलाहकारों – हितेषियों की सलाहों का दौर जोरों पर है, परन्तु उसमें समझदारी – प्रासंगिकता को शामिल करना आवश्यक नहीं माना जा रहा है. बैठे-ठाले व्यक्तियों का सोशियल मीडिया में लाइव आने का फैशन अब आतंकित करने लगा है.

इस सबके बावजूद समाज में मानव संस्कृति – सभ्यता में युगों से चली आ रही प्रथा का अनुसरण करते हुए आम जन से बनी सामुदायिकता अपने कर्तव्य पथ पर जोर-शोर से पीडितों के लिए अपना सर्वस्व प्रदान कर रही है. वे समर्पित भाव से इस सामाजिक सेवा कार्य को करते हुए न तो फ्रंट में हैं और फोटो में. क्योंकि सेवा भाव उनके स्वभाव में है इसलिए उनको प्रचार की इच्छा मात्र भी नहीं रहती है. कोरोना काल में पीडित लोगों को राहत देते ये कर्मवीर हर समय सर्वत्र मौजूद हैं. लोगाें के मन – मस्तिष्क में सरकार और संस्थाओं से ज्यादा लोकप्रिय पहचान इन कर्मवीरों की विराजमान हैं.

यह बात गौर करने लायक है कि वो लोग जो सरकारी तंत्र की संस्थाओं को कोसते फिरते थे उसके निजीकरण के पक्ष में पुख्ता दलीलें देते नहीं थकते थे, आज उसी में इसके निवारण को तलाश कर रहे हैं. दीगर बात है कि सरकारी तंत्र से संचालित जनसेवायें इस विकटकता की घडी में अपना सर्वोच्च देने को तत्पर हैं, परन्तु दे कैसे? उनकी जर्जर हालत की पोल-पट्टी सबके सामने निर्वस्त्र है.

सरकार का शीर्ष बेबस है पर अपने चेहरे पर यह भाव नहीं लाना चाहता है. सभी का आत्मविश्वास बनाये रखने के लिए यह अच्छी बात है. सभी मानते है इतनी बड़ी आपदा पहली बार वह फेस कर रही है पर उसमें धैर्य और समझबूझ तो दिखनी चाहिए. इसी बिंदु पर वह मात खाती नजर आ रही है. नतीजन, वह नित्य अपने दायित्वों को ग्रामीण प्रतिनिधियों और आम जन पर डालने पर आमदा होती दिखाई दे रही है. वास्तविकता तो यह है कि नीतिगत खोट के कारण सरकारी प्रयास प्रभावी होते नहीं दिख रहे हैं.

सरकार के मुख्य चेहरे जनप्रतिनिधि, मंत्रिमंडल सहयोगी, दायित्वधारी और विशेषज्ञ उच्च नीतियों को बनाने और उसके क्रियान्वयन में शीर्ष सत्ता संस्थानों में विराजमान हैं. वे इस संकट के प्रति गम्भीर होंगे, इसमें किसी को शक नहीं है. पर कोरोना विपदा से निपटने के लिए उनकी गम्भीरता इस दौरान लेशमात्र भी आम जन के सामने दिखती तक नहीं है. सोशियल मीडिया पर अपने को तथाकथित रुतबाशील मानने वाले कुछ महानुभाव अपनी चेहरे की धूल साफ करते हुए रोज जरूर दिखाई देते हैं. पर कष्ट के इस समय में उनको देखकर हिम्मत की जगह हिकारत का ही भाव उपजता है.

कोई पूछे कि ये सरकारी दायित्वधारी जो अपने नाम के आगे राज्य मंत्री (वर्तमान अथवा भूतपूर्व) लगाना कभी भूलते नहीं है, आजकल कहां दुबक कर किन दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं. जो अवकाश प्राप्त राजकीय सेवक सरकारी सेवाओं में पुर्नजीवन पाये हुए हैं वे किन कंधराओं में सक्रिय होकर अपना योगदान दे रहे हैं? आज के समय में भी क्या वे दायित्व इतने जरूरी हैं कि उन पर नियमित बजट खर्च होता रहे. इसमें शिथिलता की नीति क्यों नहीं अपनाई जा रही है?

सरकार संसाधनों के अभावों की प्रतिपूर्ति के लिए विभिन्न माध्यमों को लक्ष्य करने के बहाने ढूंढ रही है. साथ ही स्वाभाविक तौर पर आम जन से लेकर सरकारी – गैर सरकारी अभिकर्मी इसमें बढ़-चढ़कर अपनी भरसक सहभागिता भी निभा रहे हैं.

परन्तु इस जोर-जबरदस्ती की प्रक्रिया में सरकार को सबसे पहले यह सार्वजनिक करना चाहिए कि शासन-प्रशासन तंत्र को चलाने के लिए जो भारी-भरकम बजट स्वाह होता है उसमें उसने कितने प्रतिशत की कटौती कहां-कहां की है? इससे कितने धन की बचत हुई है. साथ ही सरकारी तंत्र की यह कटौती दीर्घकाल तक जारी रहे ऐसा सरकार द्वारा आश्वासन दिया ही जाना चाहिए.

सरकार का शीर्ष, संसाधनों के अभाव के बहाने उन श्रेत्रों से भी अधिक से अधिक राजस्व जुटाना चाहता है जिसे सामान्य अवस्था में भी जनकल्याणकारी नीतियों के विरुद्ध समझा जाता है. उदाहरर्णाथ, कोरोना काल में शराब की दुकान खोल कर इस बात को बेवजह परोसा जा रहा है कि शराब के बिना सरकार अपना राजस्व नहीं जुटा पायेगी. इससे आम जन में यहां तक बच्चों तक के मन-मस्तिष्क में यह संदेश गया कि शराब सरकारी आय का प्रमुख जरिया है. यह सबको मालूम है कि इस झूठ के गम्भीर नतीजे उत्तराखंडी समाज में आने वाले समय में दिखेंगे.

प्रखर लेखक इन्द्रेश मैखुरी जी ने सरकार की शराब बेचने की नीति का सर्मथन करने वालों पर तीखा प्रहार करते हुए लिखा है कि ‘‘….राज्यों द्वारा शराब से होने वाली आय ( औसतन 5 प्रतिशत) के मुकाबले वेतन, भत्त्तों पर खर्च होने वाली धनराशि (औसतन 42 प्रतिशत) कई गुना अधिक है. इसलिए यह कहना कि शराब न बिके तो कर्मचारियों को तनख्वाह देना मुश्किल हो जाये, झूठा प्रचार है…..अतः इस भ्रम में न रहें कि आप शराब पी रहें हैं, तब सरकार कर्मचारियों की तनख्वाह दे पा रही है.’’

वास्तव में, स्वास्थ और शिक्षा की आधारभूत संरचना ग्रामीण क्षेत्रों में मजबूत होती तो समस्या से प्रारंभ में ही निपटा जा सकता था. परन्तु दुःखदाई तो यह है कि उत्तराखंड में स्वास्थ्य और शिक्षा हमेशा ही सबसे उपेक्षित क्षेत्र रहे हैं. ये बात जरूर है कि सरकारी दावे सबसे ज्यादा इन्ही पर केन्द्रित होते है. यह बात हम उसी सरकार से कह रहे हैं जिसकी आर्थिक सर्वेक्षण- 2018-19 में लिखा है कि ‘‘राज्य के कुल बजट के सापेक्ष शिक्षा पर व्यय 2010-11 में 22.12 प्रतिशत से घटकर 2018-19 में 17.51 प्रतिशत रहा है. सकल राज्य घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में शिक्षा पर बजट परिव्यय 2004-05 में 4.67 प्रतिशत से घटकर 2018-19 में 3.37 प्रतिशत रह गया है.’’

अतः हमें समझ लेना चाहिए कि भविष्य में भी सरकार की सामर्थ्य और समझ शिक्षा और स्वास्थ्य के सिलसिले में संकुचित ही रहेगी.

सरकार को चाहिए कि वो अतिशीघ्र रोजगार-सजृन के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में वर्तमान से कई गुना अधिक निवेश करे. आज कोरोनावायरस से निपटने में जो बदहाली और बद-इंतजामी सामने आई है, वह प्रमुखतया इन दो क्षेत्रों की दयनीय स्थिति के कारण हुई है. अतः ग्रामीण क्षेत्र में स्कूल और अस्पतालों की गुणवत्ता, वहां उपलब्ध समुचित अभिकर्मी, उनके भवनों की मजबूती और उनकी साज-सज्जा हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए.

विश्वभर में ईसाई मिशनरी के कार्यों के प्रबंधकीय कौशल की तारीफ की जाती है. वह इसलिए कि ईसाई मिशनरी ने अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में स्वास्थ्य और शिक्षा को सबसे प्रमुख माध्यम बनाया है. यही उनकी विश्वव्यापी लोकप्रियता और सफलता का कारण भी है.

सरकार ने नई स्वःरोजगार नीति घोषित की है. स्वागत है, पर सरकारी मकड़जाल तो पुराना ही है. उससे कैसे आजादी मिलेगी? यह यक्ष प्रश्न ज्यों का त्यों ही है. उसके ऊपर आजकल सरकार अपने प्रयास – पहल – प्राथमिकता को अमल में लाने की कोशिशों में ‘शीर्षासन की मुद्रा’ में नजर आती दिखाई दे रही है. वह बोल कुछ रही है, कर कुछ और रही है, नतीजन, हो कुछ और ही रहा है. जबकि दिन – प्रतिदिन बदलते हालातों में उसकी चुनौतियां बढ़ती और बड़ी होती जा रही हैं.

 

इस संदर्भ में राज्य की अर्थव्यवस्था में अचानक आये रोजगार संकट से उभाारने के लिए कुछ बिंदु – सुझाव सरकार और आपके सम्मुख प्रस्तुत हैं-

  • यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 5 लाख (अधिकतम) नये आगंतुक राज्य में आये – आ रहे हैं. इसमें लगभग 70 प्रतिशत याने 3.5 लाख सामान्य स्थिति होते ही वापस अपने मैदानी रोजगारों की ओर स्वाभाविक रूप में पलायन कर जायेंगे. अतः अभी हाल ही में अपने गांव -, इलाके लौट आए 1.5 लाख युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराना शीर्ष प्राथमिकता है.
  • इसी तरह उत्तराखंड से लगभग 3 लाख (अधिकतम) लोग वापस अपने मैदानी क्षेत्रों की ओर गए – जा रहे हैं. हमारे राज्य में कार्य करने के अच्छे वातावरण से प्रेरित होने के कारण इनमें 90 प्रतिशत याने 2.70 लाख लोग यहीं वापस आयेंगे. यह भी हो सकता है कि अन्य राज्यों में उठाई गई परेशानियों के कारण हजारों नए मैदानी लोग उत्तराखंड की ओर आना पसंद करे. इसलिए यह कहा जा सकता है कि उत्तराखंड में मैदानी कामगारों की संख्या आने वाले दिनों में कम नहीं होगी बड़ने ही वाली है.
  • यह मूल बात है कि पहाड़ी गांव – क्षेत्र में उचित – समुचित रोजगार के अवसरों के न होने के कारण ही स्थानीय युवा मैदानी नगरों की ओर पलायन करते हैं. इनमें से अधिसंख्यक युवा यदि अपने पैतृक गृह नवीन जीवकोपार्जन के लिए वापस आ रहा है तो उनके हुनर, क्षमता, योग्यता और अभिरुचि के रोजगारों की संभावनाओं को उजागर करके सर्वप्रथम उन्हें उनसे परिचित कराना होगा.
  • यहां पर यह बात मुख्य है कि जो युवा पहले से ही अपने गांव – इलाके में रहकर बेरोजगारी के दंश को झेल रहे हैं उनकी आने वाले दिनों – वर्षों में रोजगार अवसरों को प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्घा और ज्यादा कड़ी होने वाली है. बिडम्बना यह भी है कि पहाड़ों में रहने वाले अधिकांश युवाओं की आशा भरी नज़रें सरकारी नौकरियों की ओर है, जो अब तो सिरे से नदारत हैं. औसत पढ़े – लिखे युवाओं की पहली पंसद अभी भी सरकारी नौकरी ही है. जीवकोपार्जन के लिए स्वः रोजगार अपनाना उनका अन्तिम और मजबूरी में लिया गया विकल्प है. अतः पहली पहल तो युवाओं को सरकारी नौकरी की मृगतृष्णा से उभारने की है.
  • हमारे पास स्थानीय संसाधनों पर आधारित सफल उत्पादों एवं उद्यमियों के उदाहरण बहुत प्रभावी तौर पर नहीं हैं. हम देशी – विदेशी बाजारों में स्थानीय उत्पादों का ‘उत्तराखंडी ब्रांड’ स्थापित करने में शुरुवाती तौर पर भी सफल नहीं हुये हैं. राज्य में उत्पादित सेब इसका जीता – जागता उदाहरण है. जो कि राष्ट्रीय और अतंरराष्ट्रीय बाजारों में ‘हिमाचली सेब’ के ब्रांड – नाम पर ही ज्यादा बिकता है. वजह साफ है हिमाचली सेब सभी बाजार में मशहूर है जबकि उत्तराखंड के सेब की अभी भी बाहरी बाजारों में स्वतंत्र पहचान बननी बाकी है.
  • यह भी चिंतनीय विषय है कि मैदानी इलाकों से ज्यादातर वे युवा वापस पहाड़ आ रहे हैं जो कि सेवा क्षेत्रों यथा-होटल, रियल स्टेट, सुरक्षा कार्यों और गैर तकनीकी कार्यों से जुड़े रहे हैं. उनके अनुभवों और हुनर से संबधित कार्यों की उपलब्धता फिलहाल बड़े फलक में पहाड़ों में नहीं है. अतः अन्य क्षेत्रों की ओर उनको उन्मुख करना होगा जो कठिन और दीर्घकालिक कार्य है.
  • तथ्य यह भी है कि उत्तराखंड के 63 प्रतिशत जमीन वन घोषित है, 25 प्रतिशत ऐसी जमीन है जहां नवीन स्वःरोजगार गतिविधियों को तुरंत शुरू नहीं किया जा सकता है. बाकी 12 प्रतिशत कृषि भूमि है. (हकीकत में वास्तविक कृषि भूमि इससे कहीं कम है.) पलायन आयोग की रिर्पोट कहती है कि उत्तराखंड बनने के बाद से 1.05 लाख हैक्टयर कृषि भूमि बंजर हुई है. अतः तेजी से सिमटती उपलब्ध पहाड़ी भूमि अब अतिरिक्त दबाव झेलने में असमर्थ है. परन्तु फिर भी सबसे ज्यादा बलिदान इसी भूमि का हो रहा – होना है.
  • चकबन्दी की ओर बातें बड़ी – बड़ी हो रही हैं, परन्तु जब वह व्यावहारिक धरातल पर शुरुआत होगी तभी उसके लाभों को सराहा जा सकता है. सालों से चकबंदी के अनुभव प्रायोगिक और गोष्ठी – सेमिनारों तक ही सीमित रहे हैं. चकबंदी का विचार उन लोगों को तो लुभाता है जो खेती – किसानी से सीधे नहीं जुड़े हैं. परन्तु खेती-किसानी से सीधे जुड़े व्यक्ति चकबंदी के प्रति अभी भी शताब्दियों से बनी- बनाई व्यवस्था में अपने हितों के नुकसान की आशंका से ज्यादा ग्रसित है. बिडम्बना यह है कि सन् 1964 के भूमि बंदोबस्त के बाद नया भूमि बंदोबस्त नहीं किया जा सका है. यह नीति- निर्धारकों की घनघोर असफलता है. अभी भी पहाड़ों की जमीन के बारे में गोल-मोल नीति ही अपनाई है. वैसे भी पहाड़ में अधिकांश जमीन गोल खाते की है. पारिवारिक बटवांरा और संटवारा आपसी मौखिक सहमति के आधार पर हुआ है. आज भी एक सामान्य ग्रामीण अपनी भूमि का स्वतंत्र खातेदार न होकर संयुक्त हिस्सेदार है. गांव – इलाके की सार्वजनिक भूमि सरकार के प्रभुत्व में है. खाता – खतौनी में दर्ज जमीन और वास्तविक स्थिति में व्याप्त अंतर दिनों – दिन बड़ता जा रहा है.
  • यह आशंका निरर्थक नहीं है कि आने वाले कुछ ही समय में ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि संबधी विवादोें में बहुत तेजी आयेगी. अतः चकबंदी से पहले सरकार को उत्तराखंड में स्पष्ट, कारगर तथा सुसंगत भूमि बंदोबस्त नीति बना कर उसको अमली जामा पहनाना होगा.
  • सरकार मनरेगा में काम दिलाने की बात जोर – शोर से कह रही है. परन्तु युक्तिसंगत यह बात यह है कि सरकार को इन युवाओं के लिए मनरेगा में काम दिलाने से इतर व्यापक – सार्थक सोच को प्रभावी करने की ओर तुरंत गतिशील होना होगा. ग्रामीण क्षेत्र में मनरेगा में पहले ही अतिरिक्त श्रम शक्ति का अपव्यय होता दिख रहा है. मनरेगा बैठे – ठाले व्यक्तियों को रोजगार में शामिल करने हेतु अल्पकालिक और सतही युक्ति है. इसे दीर्घकालिक – स्थाई रूप में ग्रामीण रोजगार उपलब्धता का समाधान – विकल्प मान लेने के गम्भीर नकारात्मक सामाजिक -आर्थिक प्रभाव होंगे जो कि किन्हीं स्तरों पर ग्रामीण समाज में अभी से दिखने भी लगे हैं.

सलाह यह है कि आज की जर्जर अर्थव्यवस्था को गतिशीलता देने के लिए सबसे पहले स्थानीय उद्यमियों के उत्पादों का सबसे बड़ा खरीददार सरकार को ही बनना होगा. हर स्तर पर उद्यमियों के उत्पाद की गुणवत्ता को परखने से ज्यादा उनको दीर्घकाल तक उद्यमशील बनाये रखने की नीति को बढ़ावा देना होगा.

याद करें जब द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापान तबाह हो गया था तब उसने हर हालत में स्थानीय उत्पादों को सर्वोत्तम मानकर उन्हीं के उपभोग की राष्ट्रीय नीति अपनाई थी. परिणामस्वरूप उस भंयकर संकट से उन्होने अपने को उभारा ही नहीं वरन आगे का विकास भी किया है.

उक्त सभी तथ्यों और बातों में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सामाजिक जीवन के इस विकट संकट में सजग रह कर हमें दूरदर्शी व्यवहार अपनाने की जरूरत है. प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और सामाजिक चिन्तक पी. सी. जोशी जी का कथन मैं फिर दोहरा रहा हूं कि ‘‘….जो राष्ट्रीय उन्नति स्थानीय उन्नति को खोने की कीमत पर होती है वह कभी स्थाई नहीं हो सकती. उत्तराखंड के बुद्धिजीवियों का देश की उन्नति में कितना ही बड़ा योगदान हो, उनके उत्तराखंड की समस्याओं से अलगाव और उत्तराखंड की उन्नति में योगदान से उनकी उदासीनता उनके जीवन की बड़ी अपूर्णता है. यह राष्ट्र की भी बड़ी त्रासदी है.’

यह सब जानते हुए भी हम इस बात की परवाह नहीं करते कि अधिकांश प्रसिद्ध विभूतियों का हमारे गांव- इलाके की मूलभूत समस्याओं के निराकरण और स्थानीय विकास में योगदान नगण्य है. फिर भी उनकी ख्याति और पद- प्रतिष्ठा से हम अपना नाता जोड़ कर गौरवान्वित होते रहते हैं कि हमारे पहाड़ में जन्मे – पढ़े लिखे लोग देश – दुनिया में महत्वपूर्ण दायित्वों को निभा रहे हैं.

इसके दूसरी ओर पहाड़ से मैदान जाने वाला बहुसंख्यक वर्ग ऐसा है जो अपने जीवनीय स्तर को सुधारते हुए हमारी स्थानीय अर्थव्यवस्था को आर्थिक संबल प्रदान करता है. वास्तव में वह हमारी थोपी हुई पहचान का प्रतीक नहीं है वरन हमारी मूल पहचान का सही प्रतिनिधि है.

आज उसी उत्तराखण्डी युवा वर्ग पर चहुंओर संकट सबसे ज्यादा बरपा है. आज वही युवा अपने गांव और अपनों की बीच वापस आ रहे हैं. अतः उनके साथ खड़े होकर उन्हें हौसला देने का ये वक्त है. सरकार और सामाजिक संगठनों के भरोसे उनको अकेले नहीं छोड़ा जा सकता है. हमें इस परम्परा को जीवंत करना है कि ‘अपने तो अपने होते हैं’. इसी भावना के बलबूते पर हमें गांव – इलाके में उद्यमिता विकास की नई राह खोजनी – बनानी है.

हमें कोरोना काल से वैश्विक स्तर पर उत्पन्न सामाजिक – सांस्कृतिक बदलावों को भी गम्भीरता से समझना होगा. कोरोना काल ने आम आदमी के रोजगार को ही नहीं वरन सामान्य आत्म चिंतन और चिंता को नई चुनौतियों की ओर मोड़ने के लिए बाध्य किया है. आजकल आदमी अपने और अपनों के इतने करीब रहकर भी नितांत अकेलापन महसूस कर रहा है. अपने आप से बात करने में दिन – रात बीत रहे हैं. आज बाहर नहींं अन्दर की ताकत ज्यादा काम आ रही है. परिवार और अपना पैतृक परिवेश इन दिनों सबसे बड़ा संबल है. मित्रों में ठसक नहीं आत्मीयता है. व्यावसायिक मित्र अपने आप छिटक कर दूर हुए हैं. सालों से कमाई गई भौतिक – कृत्रिम दौलत का बोझ भरभरा कर औंधे गिरने को है. भौतिक संसाधन और सुविधायें किसी हद तक निष्क्रिय अवस्था में हैं. आम आदमी सहजता से सीमित संसाधनों से ताल – मेल बिठाना सीख रहा है. बच्चे अचंभित हैं. उन्हें आज तक जो बताया, समझाया और दिखाया गया आजकल वैसा नहीं है. सामाजिक प्रचलन के टोने – टोटके आजकल खुद ही टटकार हैं. कर्मकांड चुप हैं, धर्म मौन है, परंपरायें शिथिल हैं. संस्कृति और पुरातन ज्ञान के दावों पर तुरंत चिल्लाने वाले थक कर सुस्ता रहे हैं. भविष्यफलों को अपना ही पता नहीं चल रहा है. धार्मिक कट्टरता का पर्दाफाश अपने आप ही हो रहा है. धर्मगुरू अतःध्यान हो गए लगते हैं. आदमी धर्म से ज्यादा निकट विज्ञान के करीब जा रहा है. प्रकृति प्रफुल्लित है, उसे निखरने का अवसर मिला है. पशु – पक्षी के लिए धरती और आकाश आज खुला – खुला दिख रहा है. वे अपने जीवन के स्वर्णकाल में हैं.

वास्तव में हम आज अचानक एक नये सामाजिक – आर्थिक संक्रमणकाल में आ गए हैं. जहां इस घटना से पूर्व हमें बाह्य सामाजिक परिवर्तन प्रभावित करते थे परन्तु आतंरिक बदलावों में हमने तटस्थता ही अपनाई थी. परन्तु इस नये माहौल में यह चक्र बिल्कुल ही घूम गया है. आम आदमी बाह्य बदलावों से ज्यादा अन्त:मन के बदलावों से जूझ रहा है.

अतः यह समय सामाजिक उत्तेजना का नहीं वरन जागृत रहकर दूरदर्शी व्यवहार अपनाने का है. इस कोरोना काल ने लाख बुरा किया हो परन्तु सरकारी, गैरसरकारी, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि वर्तमान व्यवस्थाओं के अनावश्यक ग्लैमर – रुतवे और उनकी जनतात्रिंक जबावदेही पर जमी धूल को हटाने का कारगर कार्य किया है. यह उम्मीद की जानी चाहिए कि अब इन संस्थायों को ज्यादा दायित्वशील आचरण अपनाने के लिए आम जन का दबाव निश्चित रूप से बढ़ेगा. सरकारी नीतियों, कार्यक्रमों और अभिकर्मियों की जबावदेही के प्रति आम लोग जिस तरह सचेत हो रहे हैं वह रोजगार में आत्मनिर्भरता लाने के साथ ही विचारों में भी परिपक्वता आने के शुभ संकेत हैं.

(लेखक शिक्षाविद् एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

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