रोटी और कोविड आपदा से जूझता आम इंसान

  • भावना मासीवाल

आपदा में संपदा बनाना किसी से सीखना हो या विपदा को कैसे अपने हित के अनुरूप काम में लेना हो, इसमें मनुष्य सर्वोपरि प्राणी है. बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है, but आज हम सभी कोविड-19 के जिस भयावह दौर से गुजर रहे हैं जहाँ हर दूसरा व्यक्ति अपने प्राणों की रक्षा के लिए अन्य पर निर्भर है. ऐसे में कहीं ऑक्सीजन सिलेंडर स्टोर हो रहे हैं तो कहीं आई.सी.यू बेड तो कहीं संबंधित दवाएँ. कहीं ऑक्सीजन के ट्रक चोरी हो रहे हैं तो कहीं कोविड की दवाएं, मौजूदा हालात में स्वास्थ्य संबंधित एवं सामान्य जरूरत की चीजों के दाम एका-एक आसमान छूने लगे हैं.

कोविड

सरकारी तंत्र के पास सुविधाएँ नहीं है और प्राइवेट सेक्टर उसे बाज़ार और पूँजी का हिस्सा बना मुनाफ़ा कमा रहा है. इससे पूर्व भी पिछले वर्ष इसी विपदा से निपटने so और स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने के कितने ही आश्वासन और वादे किये गए थे. जिसे उसी कोविड-19 की आपदा ने पुन: ध्वस्त कर दिया और हमें उसी जगह ला खड़ा किया जहाँ से हमने शुरू किया था.

स्वरोजगार

आम आदमी, रोटी और कोविड आपदा दोनों से जूझने को मजबूर है. सरकारी तंत्र के पास सुविधाएँ नहीं है और प्राइवेट सेक्टर उसे बाज़ार और पूँजी का हिस्सा बना मुनाफ़ा कमा रहा है. इससे पूर्व भी पिछले वर्ष इसी विपदा से निपटने और स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने के कितने ही आश्वासन और वादे किये गए थे. जिसे because उसी कोविड-19 की आपदा ने पुन: ध्वस्त कर दिया और हमें उसी जगह ला खड़ा किया जहाँ से हमने शुरू किया था. आज चिकित्सा व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा चुकी है, एक साल पहले इसी व्यवस्था से लड़ते-लड़ते हमारे कितने ही कोरोनावोरियर अपनी जान दे चुके थे. आज हम फिर उन्हीं स्थितियों की ओर पुन: लौट आए हैं.

कोविड

हर तरफ जीवन को बचाने के लिए गुहार लग रही है, कहीं सुनी जा रही है, कहीं सुनकर अनदेखी हो रही है और कहीं तो वो गुहार पहुँच भी नहीं पा रही और व्यक्ति जीवन से हारकर because दम तोड़ रहा है. सभी महानगर जो तकनीकी, स्वास्थ्य व शिक्षा से लेकर हर क्षेत्र में आगे थे आज पस्त होते देखे जा रहे हैं और अपनी मजबूरियों और व्यवस्था की खामियों को खुलकर स्वीकार कर रहे हैं. वहीं गाँव-देहात और कस्बें इन because सब से कोसो दूर अपनी ही दुनियाँ में रमें हैं. जिनके लिए अभी भी ‘कोरोना’ एक अफवाह है जो फैलाया गया है क्योंकि आज भी शहरों, महानगरों की अपेक्षा यहाँ सूचनाओं तक व्यक्ति की पहुँच बहुत कम है.

कोविड

कोरोना की इस नई लहर से यदि गाँव प्रभावित होते हैं तो स्वास्थ्य व्यवस्था क्या होगी? इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है. क्योंकि जब देश के महानगरों में स्वास्थ्य but व्यवस्था चरमरा रही है तो यह तो फिर छोटे से गाँव ही है. जहाँ प्रत्येक गाँव से तीस किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर कुछ स्वास्थ्य सुविधाएँ दी गई है.

कोविड

हम आधुनिक भारत की बात करते हैं विश्व में गाँव-गाँव तक सूचनाक्रांति को ले जाने का लोहा मनवाते हैं, वहीं आज इसी देश के सुदूर गाँवों में सूचनाओं की पहुँच नहीं है. because बुनियादी जरूरतें शिक्षा, अस्पताल, जल आज भी यहाँ के संघर्ष का केंद्र है. ऐसे में कोरोना की इस नई लहर से यदि गाँव प्रभावित होते हैं तो स्वास्थ्य व्यवस्था क्या होगी?

कोविड

इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है. क्योंकि जब देश के महानगरों में स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा रही है तो यह तो फिर छोटे से गाँव ही है. जहाँ प्रत्येक गाँव से तीस किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर कुछ स्वास्थ्य सुविधाएँ दी गई है. वह सुविधाएँ भी प्राथमिक उपचार के रूप में ही कार्य because करती है अन्य के लिए पुन: आम आदमी की दौड़ महानगरों की ओर ही होती है so और इस समय महानगर कोविड-19 की नई लहर की वजह से वैसे ही जूझ रहे हैं उनके पास खुद भी मौजूदा हालतों से लड़ने के लिए कोई उपचार नहीं हैं. सीमित स्वास्थ्य सेवाओं के आधार महानगर भी कब्रगाह बने हुए हैं. जहाँ अस्पतालों से लेकर शमशान तक में व्यवस्था का अभाव है.

ऐसे में भी हमारे देश के कुछ नेता राजनीति करने से पीछे नहीं है. आपदा की इस स्थिति में जब सभी के साथ और सहयोग की आवश्यकता है, ऐसे में यहाँ भी व्यक्ति हित because और राजनीति अधिक प्रभावी होकर उभर रही है. व्यवस्था की खामियों पर केंद्र से राज्य तक आरोप-प्रत्यारोपका सिलसिला चल रहा है. स्थिति यहाँ तक आ गई है कि उच्च न्यायालय को मध्यस्था के लिए मजबूर होना पड़ा. यह देश का दुर्भाग्य है कि इस आपदा में पूंजीपति तो मुनाफ़ा देख ही रहा हैं, अब तो राजनेता भी अपनी राजनीति करने से पीछे नहीं है.

कोविड

कोई शव की गाड़ी पर तस्वीरें खिचवा रहा है तो कोई ऑक्सीजन ट्रक को रोककर, तो वहीं कोई कोविड की दवाओं पर अपनी तस्वीर न होने पर तस्वीर खिचवानें के इंतजार में दवाओं but को रोके हैं. इसी में आम आदमी कोरोना और भूख से मरते परिवार की व्यथा से पीड़ित है और पुन: शहरों से गाँवों की ओर लौटने पर मजबूर है जो नहीं लौट पा रहे वह जीवन और मृत्यु के बीच इस व्यवस्था की खामियों का खामियाज़ा भर रहे हैं.

कोविड

मृत्यु जीवन का सच है लेकिन क्या उसके लिए अमानवीय होना सही है? यही अमानवीयता मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देती है. जबकि आज के इस मौजूदा समय में सबसे अधिक so मानवता की दरकरार है. अगर मानवता बची रहेगी तो मनुष्य भी बचा रहेगा अन्यथा मनुष्य का स्वार्थ पूरी मनुष्य जाति का सर्वनाश कर देगा.

कोविड

इस समय हमारे चारों और दुःख, पीड़ा, मृत्यु से डर का अहसास जी रहा है. इसी मृत्यु से डर की वजह से लोग कोरोना संक्रमित लोगो के प्रति अमानवीय भी हो रहे हैं becauseकहीं उन्हें घर से बाहर निकाल रहे हैं तो कहीं उनके साथ अछूतों की तरह व्यवहार किया जा रहा है. मृत्यु जीवन का सच है लेकिन क्या उसके लिए अमानवीय होना सही है? यही अमानवीयता मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देती है. जबकि आज के इस मौजूदा समय में सबसे अधिक मानवता की दरकरार है. अगर मानवता बची रहेगी तो मनुष्य भी बचा रहेगा अन्यथा मनुष्य का स्वार्थ पूरी मनुष्य जाति का सर्वनाश कर देगा.

कोविड

(उत्तराखण्ड के मासी गाँव में जन्म, जो इनके नाम से पहचाना जा सकता है. पहाड़ से दिल्ली फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से महात्मा गाँधी because अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा तक का विद्यार्थी एवं शोधार्थी जीवन. महिला मुद्दों को लेकर सक्रिय भागीदारी एवं पत्र-पत्रिकाओं व दैनिक राष्ट्रीय अख़बारों में स्वतंत्र लेखन. वर्तमान समय में दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध कॉलेज के अंतर्गत अतिथि शिक्षक के रूप में कार्य.)

Share this:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *