रसगुल्लों का कोलम्बस:  तोमार… रोसोगुल्ला…  औऱ तोमार… शौक्तो…

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मंजू दिल से… भाग-16

  • मंजू काला

उड़ी… बाबा!

हुगली नदी के पूर्वी तट पर बसा, ‘सीटी आफ ज्वाय’ के नाम से मशहूर… कोलकाता

कलकत्ता,  कोलकाता,  कैलकटा… because जाने कितने नामों से जानते हैं हम इस खूबसूरत शहर को. क्या? जानियेगा कि आज भी इस शहर में ट्रामैं चलती हैं. क्या मानियेगा कि  कोलकाता में अब भी हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शे चलते हैं? सुनियेगा कि फ्रैंक-फर्ट पुस्तक मेला और लंदन पुस्तक मेला के बाद नम्बर आता है कोलकाता पुस्तक मेले का!  सच में…

कोलकाता

शांत समंदर की लहरों जैसा है यह शहर मधुर और मदिर!

खूबसूरत तांत की साडियां, शंख, because सिंदूर, केले के बागान, पान के पत्ते, डोल जात्रा, पोइला बैसाख, सामूहिक थिएटर, परिणीता के इंतज़ार का शहर, ताश के पत्ते फेंटता शहर, बाउटी और रतन चूड़ा खनका कर भात… रान्धती, नारायणी का शहर, आम के बगीचे में पारो की चोटी खिंचता देवदास का शहर.

कोलकाता

अपने हाथ पैरों मे आलता रचाते हुए स्वर्णिम वितान बुनती मधूलिकाओं का शहर, रविंद्र संगीत की स्वर लहरियों के मध्य आती ‘माछेर-झोल’ की सुगंध का शहर और सांझ को हावड़ा ब्रिज के because ऊपर से दूर नाव में बैठकर ‘भाटली’, गाते मछुआरे को विस्मय से निहारती, मुझ जैसी नव-आगुन्तका के कौतुक को देखकर मंद स्मित बिखेरते हुए अपने गंतव्य की ओर आगे बढते, धोती की लांग पकडे़ बाबू मोशायों का शहर!

कोलकाता

इसी जिंदगी से भर-पूर रूमानी से शहर में रहती हैं संयुक्ता घोष. इनके पति दुलारते हैं, सुन्दर वन के टाइगरों को और आप बजाती हैं शंख. खेलती हैं ‘सेंदुर खेला’ पहनती हैं. जामदानी, पोल्का, because चिक, वधू भोज मे निकालती है’ उलुक ध्वनि’  गाती हैं रविंद्र संगीत ‘संवारती हैं रसोई… परोसती हैं थाला’ और थाले में ‘शुक्तो और रोसोगुल्ला’!

कोलकाता

यूं तो बंगालियों का मुख्य भोजन मछली है और चालीस से ज्यादा प्रकार की ताजे पानी की मछलियां यहाँ मिलती हैं और यह निर्णय लेना मुश्किल कि कौन-सी खायें और कौन-सी नहीं. because इनमें नील (रोहु), कातला,  भेटकी, मागुर (केटफिश) चिंगड़ी, कार्प, रूई शूटकी (सूखी समुद्री मछली) ईलीस (हिल्सा) आदि आती हैं. पूर्वी बंगाल के लोग नदी की मछली पसंद करते हैं और पश्चिमी बंगाल के लोग टैंक के या जलाशय की मछलियां जैसे-मागूर और तापसी, लेकिन नदी की मछली ‘हिल्सा’ विश्वभर के लोगों का मनपसंद खाद्य है. मछली और विशेष रूप से ताजे पानी की मछली पश्चिम बंगाल मे विविध तरीकों से पकाई जाती हैं, जैसे-भाप मे भूनकर, उबालकर और सब्जियों और मसालों के साथ शोरबा के रूप में.

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एक बात मैं बताना चाहूंगी कि पश्चिम खाने because के कोर्स पद्धति की तरह बंगालियों मे भी परम्परागत खाने को परोसने के कुछ क्रमबद्ध नियम हैं. दो क्रम का पालन किया जाता है,  उनमें एक विवाह के अवसर पर खाना परोसने का क्रम और रोजमर्रा का क्रम.

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खाने का क्रम कड़वे स्वाद से शुरू हो कर मीठे स्वाद पे खत्म होता है. यह कोर्स ‘शुक्तो’ से जो की विभिन्न प्रकार की सब्जियों से तैयार किया जाता है, शुरू किया जाता है. तब आती है बारी because दाल, डीप फ्राई किया हुआ आलू और वैंगुन भाजा की, चावल परोसे जाते हैं. घी,  नमक और हरी मिर्च के साथ फिर भूनी हुई मछली  उबली हुई सब्जी (भाते) के बाद मसाले दार सब्जी जैसे ‘डालना’ या ‘घोंटो’ परोसा जाता है.

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आते हैं मुख्य कोर्स पर- पहले आता है माछेर झोल, हल्के मसाले वाला फिर तेज मसालेदार. हिल्सा करी, मीठी चटनी, छोटे-छोटे केले, दोई (मिष्टी दोई) मिट्टी के बर्तन में खजूर डालकर because जमाई गई दही, सूखी मिठाई,  पायस,  संदेश, रोसोगुल्ला और फिर संयुक्ता घोष ने मुझे पकड़ा दिया पान और कहने लगीं- एक रसोगोल्ला और तभी हठात मेरे मुंह से निकला-  ‘ओ… माँ… तोमार…शुक्तो और तोमार रसोगोल्ला…!’ और मेरे बोल सुनकर मेरी प्यारी सी मेजबान ताजे खिले भुट्टों सी मुस्कान बिखेरने लगीं.

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रात के खाने से शुक्तो हट जाता है और उसकी जगह उसमें शामिल होता है ‘लुची’ और ‘डालना’ या ‘आलोर शाक’, ऐसा ही व्यंजन हमारे उत्तराखंड में भी परोसा जाता है जिसे हम ‘अल्लुक झोल कहते हैं. परंपरागत रूप से खाने को ‘थाला’ और बाटी मे परोसा जाता है. यूं तो मेरी मेजबान के घर में अब आधूनिक तरीक़े से ही भोजन because परोसा जाता है उनके घर में तालाब न होकर स्विमिंग पूल है, लेकिन मेरे आग्रह पर सब कुछ उन्होंने परंपरागत ही रखा. खाने खाने के लिए आमतौर पर अब ‘चौम्मच’ छुरी का प्रयोग किया जाता है, पर इनका प्रयोग शहरी क्षेत्रों को छोड़कर, आमतौर पर खाते समय नहीं किया जाता है.ग्राम- रसोई में साल के पत्तों या केले के पत्तों को धागे से एकसाथ पिरोकर. सूखाकर प्लेट के रूप मैं जोमीन पर खाना परोसने के लिए किया जाता है.

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खाद्य रसिक बँगलियों की आदत होती है कि, वे भोजन बहुत प्रेम और आग्रह के साथ खिलाते हैं. एक-एक खाद्य पदार्थ बड़े रस के साथ परोसते हैं. खाबो-खाबो कहते हुए मेरी मेजबान तो कहती ही थीं, यहाँ तक की जब मैं अपने पति के साथ सुंदर वन में मिस्टर घोष के सरकारी लॉन्चर पर थी, वहाँ पर भी मिस्टर घोष का निजी स्टाफ बहुत प्यार और अपनत्व औऱ तत्परता से भोजन परोसते थे और कहते थे-खाबो न मैडम आपके लिए ही तो सुबह जाला डालकर माछ पोकड़े हैं. because न चिंगड़ी खूब भालो खाबो न तुमी! और खड़े हो जाते थे. तश्तरी ले कर. मैं शर्मिंदगी मेहसूस करती थी. क्योंकि, बहुत उत्साहित होकर वे लोग भोजन बनाते औऱ परोसते थे औऱ मैं  ज्यादा खा नई पाती थी,  डाइट पे जो थी. वे बेचारे मायूस हो जाते और मेरी आँखें पनीली!

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जब भी हम बंगाल और बंगालियों की बातें करते हैं तो ‘पारू’ सा गोल-सा रसगुल्ला स्वतः ही अपना स्थान ग्रहण कर लेता है. हर जगह मौजूद रहता है यह रसीला रसगुल्ला. कलकत्ते के because आलीशान मेंशन हों या रायदीघा में समंदर के किनारे की झोपडियां, यहाँ तक कि बंगाल की खाड़ी में विचरण करते हमारे लाँचर पर भी ये रसगुल्ले महाशय भोजन की मेज पर उपस्थित हो जाते थे! रसगुल्ले, रायदीघा के रेंजर साहब अपनी स्पीड बोट से खुद लेकर बोनी कैम्प आते थे क्योंकि बिना रसगुल्लों के बंगालियों का दस्तरखान सज ही नहीं सकता न..!

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कहते हैं कि सन 1498 मे वास्कोडिगामा भारत आया, इसके बाद सन 1511 में मल्लका की विजय के बाद पुर्तगाली व्यापारी बंगाल आए. व्यापार को लेकर धीरे-धीरे पुर्तगालियों ने बंगाल because के चित्तगांव मे अपने कारखाने लगाएं और यहीं रहने लगे पुर्तगालियों को पनीर खाना पसंद था. वे इसकी रेसिपी लेकर चित्तगांव आये और  दूध को फाड़कर पनीर बनाने लगे. भारतीय ब्यौपारियों को भी दूध को फाड़कर छेना बनाने मे कोई असुविधा नहीं थी. लिहाजा बंगाली में ‘मोईरा’ कहे जाने वाले हलवाइयों ने छेने के साथ कई प्रकार के प्रयोग करने शुरू कर दिये.

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उस समय बाग बाजार में मे नोबिन चंद्र नाम के मोईरा हलवाई अपनी मिठाइयों के लिए काफी प्रसिद्ध थे. उनकी दास स्वीट्स नाम की दुकान हर किसी की जुबां पर थी. पुर्तगालियों के because पनीर प्रेम को देखते हुए उन्होंने सन 1868 में छेने से मिठाई बनाने को लेकर एक प्रयोग किया, जिसमें उन्होंने दूध से छेना बनाया फिर उसे गोल आकार देकर चाशनी में उबाला छेने का ऐसे इस्तेमाल और इससे बनाई मिठाई लोगों को बहुत पसंद आई व इस प्रकार इस ‘पारू’ से गोल मटोल रसीले रसगुल्ले का हम सब की थाली में अवतरण हुआ और बंगाल व रसगुल्ले एक दूसरे के पूरक बन गए और नोबिनचंद्र दास, रसगुल्लों के कोलंबस…!

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(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण, because पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्‍पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्‍यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)

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