बिहाय के पकवान
मंजू दिल से… भाग-11
- मंजू काला
भांवर परत हे, भांवर परत हे
हो नोनी दुलर के, हो नोनी दुलर के
होवत हे दाई, मोर रामे सीता के बिहाव
होवत हे दाई, मोर रामे सीता के बिहाव
एक भांवर परगे,
हो नोनी दुलर के, हो नोनी दुलर के
अगनी देवता दाई, हाबय मोर साखी
अगनी देवता दाई, हाबय मोर साखी
दुई भांवर परगे,
हो नोनी दुलर के, हो नोनी दुलर के
गौरी गनेस दाई, हाबय मोर साखी
गौरी गनेस दाई, हाबय मोर साखी
तीन भांवर परगे, तीन भांवर परगे
हो नोनी दुलर के, हो नोनी दुलर के
देवे लोके दाई, हाबय मोर साखी
देवे लोके दाई, हाबय मोर साखी
चार भांवर परगे, चार भांवर परगे
हो नोनी दुलर के, दाई नोनी दुलर के
दुलरू के नोनी, तोर अंग झन डोलय
दुलरू के नोनी, तोर अंग झन डोलय
पांच भांवर परगे, पांच भांवर परगे
हो देव नरायन, दाई देव नरायन
डोलय दाई मोर, कलसा के भर जल-पानी
डोलय दाई मोर, कलसा के भर जल-पानी
छै भांवर परगे, छै भांवर परगे
हो नोनी दुलर के, हो नोनी दुलर के
दुलरू ह दाई, मोर मरत हे पियासे
दुलरू ह दाई, मोर मरत हे पियासे
सात भांवर परगे, सात भांवर परगे
हो नोनी दुलर के, हो नोनी दुलर के
चलो चलो दाई, मोर कहत हे बराते
चलो चलो दाई, मोर कहत हे बरात
( भाँवर गीत)
छत्तीसगढ़ यानी कि पौराणिक काल
का “कौशल प्रदेश”, ऊंची-नीची पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ. घने जंगलों वाला राज्य, धान की भरपूर पैदावार होने के कारण इस रंग-बिरंगे “कौशल्या” के पीहर को “धान का कटोरा भी कहा जाता है. उत्तर में सतपुड़, मध्य में महानदी, बस्तर का पठार, औऱ साल-सागौन, साजा-बीजा औऱ बाँस के वृक्षों की खुशबू से सुरभित इसका अरण प्रदेश, औऱ हाँ! इसके हृदय स्थल पर चंचला “बैगा” बनिता-सी अठखेलियाँ करती अरपा, पेरी, इँद्रावती और महानदी नामक जलधाराएं!भारतीय
आना चाहूंगी अब
इस छोटे से, लेकिन खनिज संपदा से भर पूर छत्तीसगढ़ की संस्कृति पर. जैसा कि हम जानते हैं कि संस्कृति का सतत विकास मान मानवीय चेतना की सर्वोत्तम परिणिति है. यह मानव मात्र की जीवन निधि है. अतः इसमें किसी प्रकार की सीमा रेखा नहीं खिंची जा सकती है. छत्तीसगढ़ी संस्कृति अपने रूप की संरचना में भारतीय संस्कृति का लघु रूप है.जैसे भारतीय संस्कृति का स्वरूप “मोजक” है, वैसे ही छत्तीसगढ़ी संस्कृति भी मोजक है. भारतीय संस्कृति में हर आंचलिक संस्कृति अपना विशिष्ठ व्यक्तित्व रखते हुए अपने सम्भार से भारतीयत संस्कृति को सौंदर्यमय एवं एश्वर्यमय बना रही है. ठीक उसी प्रकार छत्तीसगढ़ में कई संस्कृतियां मिलती हैं. और वे अपनी विशेषता से परिपूर्ण होते हुए भी छत्तीसगढ़ के सर्वांगीण सांस्कृतिक व्यक्तित्व मे एक सौंदर्य छटा औऱ कांति की रचना करती हैं.भारतीय
अटकन-बटकन… दही चटकन.., खेलने वाले इस प्यारे से कौशल प्रदेश की संस्कृति
सम्पूर्ण भारत में अपना बहुत ही खास महत्व रखती है. भारत के ह्रदय स्थल पर स्थित छत्तीसगढ़ अपनी खनिज सम्पदा के साथ अपने खान-पान के लिए भी प्रसिद्ध हैं. किसी भी प्रान्त का खान-पान वहां की भौगौलिक स्थति, जलवायु औऱ वहां होने वाली फ़सलों पर निर्भर करता है. छतीसगढ़ एक वर्षा ऒर वन बहुल प्रान्त है, यहां धान, हरी भाजी-सब्जियां औऱ मछली का उत्पादन बड़ी मात्रा में होता है.भारतीय
जैसा कि हम जानते हैं की
मध्य प्रदेश का उत्तरीय भाग, जिसमे सम्पूर्ण सागर संभाग रायसेन, विदिशा गुना नरसिंहपुर होशंगाबाद छिंदवाड़ा, सिवनी बालाघाट क्षेत्र भी शामिल हैं और उत्तर प्रदेश का संपूर्ण झांसी संभाग उसके जिले मिलाकर बना क्षेत्र बुंदेलखंड कहलाता है. यहां की परंपराएं लोक रिवाज अपनी अनोखी और अलग पहचान बनाये हैं.भारतीय
उत्तर में यमुना से नरमदा
और पूर्व में टमस से चंबल तक का भूभाग अपनी पुरातन संस्कृति एवं संस्कारों को संजोये है. लाल कवि की पंक्तियां कि – “इत यमुना उत नर्मदा इत चंबल उत टोंस क्षत्रसाल से लरन को रहो न काहू होंस, “v
क्षत्रसाल के बुंदेलखंड की
सोंधी महक का अहसास करा जातीं हैं. आल्हा ऊदल लोक कवि ईसुरी और लोक पूजित हरदौल की गाथाओं में रचे बसे बुंदेलखंड का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है. बूंदेली लोक गीतों की आज भी सारे देश में गूंज मची रहती है.भारतीय
दाल भात कड़ी बरा [दरया] बिजोड़े रायता पापड़ और उड़ेला गया कई चम्मच शुद्ध घी,फिर ऊपर से परोसने वालों के प्रेम पूर्ण आग्रह, इसका आनंद देखते ही बनता है.
विवाह के बाद लड़की पक्ष की ओर से आनेवाला पकवान देखने लायक होता है. सजी हुई सुंदर टोकनियों में परंपरागत तरीके से बनी हुईं वस्तुयें बड़े परिश्रम से घर की ही महिलाओं द्वारा ही बनाईं जाती हैं.
भारतीय
बुंदेली विवाहों की भी अपनी अदभुत एवं अनोखी परम्परा है. लोकगीतों की भरमार जिन्हें गारीं कहा जाता है, ढोलक के साथ संगत फिर नृत्य हल्दी तेल देवर भावज नंद भौजाई की
ठिठोली आनंद को दुगना कर देती है. इस मनोरंजन के साथ साथ ही एक से एक लज़ीज़ पकवान बुंदेली समारोहों में जान डाल देते हैं. दाल भात कड़ी बरा [दरया] बिजोड़े रायता पापड़ और उड़ेला गया कई चम्मच शुद्ध घी,फिर ऊपर से परोसने वालों के प्रेम पूर्ण आग्रह, इसका आनंद देखते ही बनता है. विवाह के बाद लड़की पक्ष की ओर से आनेवाला पकवान देखने लायक होता है. सजी हुई सुंदर टोकनियों में परंपरागत तरीके से बनी हुईं वस्तुयें बड़े परिश्रम से घर की ही महिलाओं द्वारा ही बनाईं जाती हैं.भारतीय
इन पकवानों की शोभा और छटा निराली ही होती है. लड़की पक्ष के लोग विवाह के बाद पठोनी के रूप में यह सामग्री भेजते है, जी बता रही हूँ सुनिए-
पिराकें- “यह बड़ी बड़ी गुझियां होती हैं, बेलबूटों त्रिभुजों चतुरभुजों बेलबूटों से मड़ी और रंग बिरंगी. यहा सादारण गुझियों से तीन से चार गुनी तक बड़ी होती हैं.
ऊपरी हिस्से को बड़े करीने से सजाया जाता है. लौंग इलायची बादाम के टुकड़ों से सजी ये पिराकें मन को मोह लेतीं हैं लगता है कि देखते ही रहें. इनके भीतर खोवे का कसार मसाला काजू किशमिश चिरोंजी मिला हुआ भरा रहता है. खाने बहुत ही लजीज मीठा और स्वादिष्ट. ग्रामीण क्षेत्रों में तो इनका आकार और भी बड़ा होता है. महिलाओं को निश्चित ही बनाने बहुत परिश्रम करना पड़ता है. लोगों को डिज़ाइन से संवारना सजाना बेल बूटों को रंगना कठिन तो होता ही है विवाह के अवसर रात भर जागते हुये समय को निकालना भी एक कला”भारतीय
आस- “यह पकवान गोलाकार चक्र के आकार में होता है. ऐसा लगता है जैसे की दो पिराकें मिलाकर रख दी हों. इसमें भी रंगों की कलाकारी होती है. बादाम लोंग काजू के टुकड़ों के साथ ही एक रुपये के सिक्के भी बीचों बीच चिपकाये जाते हैं. इसमें भी खोया मसाला मिलाकर भरा रहता है. देखने में यह बहुत ही सुंदर और मन भावन होता है. कई तरह के डिज़ाइन बनाकर उनमें विभिन्न रंग भरे जाते हैं
भारतीय
इसकी सजावट देखते ही
बनती है. बड़े जतन से बनाये गये इन पकवानों को बनाने में कई कई घंटे लग जाते हैं. गुठे हुये किनारों से पकवानों का निखार कई गुना बढ़ जाता है. गुना यह बेसन से बना पकवान है. यह गोलाई लिये हुये मोटे कंगन के आकार का होता है . मुटाई एक से डेढ़ इंच तक और गोलाईभारतीय
तीन चार इंच तक होती है. इसे गुठाई करके बहुत सुंदर बनाया जाता है. लड़के पक्ष के लोग इसमें से नव बधु का मुंह देखते हैं.’
फूल- “यह चौकोर आकार का होता है. यह खाना परोसने के काम आनेवाले चौफूले के समान होता है इसे भी गोंठकर अति सुंदर आकार का बनाया जाता है. यह पकवान भी बेसन से बनाया जाता है.
पान- यह तिकोने आकार का पकवान है जो की पान के आकार का होने के कारण पान कहलाता है. इसके किनारों पर बहुत ही सुंदर गुठाई की जाती है. आकार बड़े छोटे कई प्रकार के बन सकते हैं. आजकल शहरों चलन से बाहर होते जाने से प्रतीक के तौर पर अब मात्र औपचारिकता के चलते सब पकवान बहुत लघु रूप लेते जा रहे हं. वैसे गांव में अभी बड़े बड़े आकार में ये सामान अभी भी बन रहा है.”
भारतीय
पुआ- “आटे के
मीठे पुए शादी का खास पकवान है. गुड़ और शक्कर दोनों ही प्रकार के पुए बनाते हैं. किनारे सुंदर गुठाई से पुए में निखार आ जाता है. बीच बीच में कई डिज़ायनें एवं सिक्के चिपकाने का भी रिवाज है. ये सभी पकवान घी अथवा तेल में सेंके जाते हैं. पहले समय में शुद्ध घी में बनते थे,किंतु अब शुद्ध घी आम लोगों की पहुंच से बाहर होता जा रहा है,इससे डालडा अथवा तेल का ही सहारा रह गया है.भारतीय
पहले समय में इन
पकवानों को बड़े प्रेम से खाया जाता था. ये मीठे पकवान बड़े स्वादिष्ट होते हैं. विवाह के बाद ये पकवान टुकड़े करके मोहल्ले पड़ोस में बांटे जाते थे. यह बायना कहलाता था”विवाह के बाद लोगों को बायने का इंतजार रहता था, चर्चा रहती थी कि फलाने के यहां शादी हो गई और बायना नहीं आया. किंतु आजकल इनका खाने में उपयोग कम
ही हो गया है. कहीं कहीं तो ये गायों और कुत्तों के खिलाने लायक ही रह जाता है. कारण स्पष्ट है कि पहले ये सामग्री शुद्ध घी में बनती थी लोग परिश्रमी थे शारीरिक मेहनत करते थे इससे सब कुछ हज़म कर लेते थे, किंतु आजकल ये तेल अथवा डालडा में बनते हैं और आधुनिकता की दौड़ में अव्वल रहने की होड़ में जीने वाले पिज्जा बर्गर इडली डोसा खाने वाले लोग ये चीजें पसंद ही नहीं करते और पुराने ढर्रे का सामान मानकर घृणा भी करने लगे हैं. बड़े -बड़े आधा आधा एक एक किलो के बेसन अथवा बूंदी के लड्डू अब कौन खाता है. बासा हो जाने के कारण ये पकवान बदबू भी करने लगते हैं इससे गाय बैलों के ही लायक रह जाते हैं.भारतीय
व्यवहारिक तौर भी अब यह
पकवान बेकार ही साबित हो रहे हैं. बहुत सारा पैसा और समय बर्बाद कर इनके बनाने का केवल परम्परा के नाम पर उपयोग औचित्यहीन ही लगता है. खाखरे मैदे की पुड़ी पुए एकाध दिन तक तो ठीक रहते हैं पर इसके बाद खाने लायक नहीं रह जाते. विवाह के बाद तुरत उपयोग कर लेने पर तो ठीक है किंतु विवाह की व्यस्तताओं के चलते और नई दुल्हन की आव भगत में ये पकवान …..वैसे ही पड़े रहते हैं और जब इनकी याद आती है तो बहुत देर हो चुकी होती है. यह तो ठीक है कि परम्परा के तौर पर चुलिया टिपारे सुहाग और शुभ के संकेत हैं किंतु व्यवहारिक तौर पर जब इनका प्रयोग न हो तो इन पकवानों का औचित्य क्या रह जाता है पता नहीं…!भारतीय
(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण, पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)