बचपन की संप्रभुता की वकालत करती पुस्तकें

Books

अरुण कुकसाल

बचपन से पलायन

जॉन होल्ट की बहुचर्चित पुस्तक ‘एस्केप फ्राम चाइल्ड हुड’ बच्चों और वयस्कों के आपसी वैचारिक और व्यवहारिक विरोधों को उद्घाटित करती है. यह पुस्तक बच्चों को वो सब करने का अधिकार देने की बात करती है जो कानूनन और सामाजिक रूप से एक व्यस्क को प्राप्त हैं.

किताब के लेखक और शिक्षाविद जॉन होल्ट का जन्म न्यूयॉर्क सिटी में सन् 1923 में हुआ था. एक शिक्षाविद के रूप में जॉन होल्ट ‘होम-स्कूलिंग मूवमैंट’ के अग्रणी सर्मथक रहे. अपने बच्चों को घर पर ही शिक्षा देने के विचार पर केन्द्रित पत्रिका ‘ग्रोइंग विदाऊट स्कूलिंग’ के वे प्रकाशक और सम्पादक रहे थे. शिक्षा पर लिखी उनकी पुस्तकें दुनिया की अनेकों भाषाओं में लोकप्रिय रही हैं. हाऊ चिल्ड्रन लर्न, हाऊ चिल्ड्रन फेल, फ्रीडम एण्ड बियाॅन्ड, एस्केप फ्राॅम चाइल्डहुड, द अंडर अचीविंग स्कूल, नेवर टू लेट, टीच याॅर ओन उनकी चर्चित पुस्तकें हैं. सन् 1985 में प्रो. जॉन होल्ट का निधन हुआ था.

मानवीय परिवारों में बच्चों की स्थिति से जोड़ते हुए यह कहा जा सकता है बच्चे अपने नागरिक अधिकारों को प्राप्त करने के लिए सक्षम नहीं हो पाते हैं. यही कारण है कि परिवारों में बड़ों द्वारा हमेशा उन्हें अपने संरक्षण में रखने की पैरवी की जाती है. बच्चे को उपदेश, डांटना और उसको हर समय यह अहसास दिलाना कि घर के वयस्क ही उसके कर्ता-धर्ता और भविष्य के नियन्ता हैं, यह एक सामान्य बात है. इस पूरी प्रक्रिया में बच्चे के मनोभावों, इच्छा, सम्मान और पंसद-नापसंद के न्यनूतम स्तर का भी पालन नहीं होता है. जॉन होल्ट परिवार संस्था को इसीलिए राजतंत्र का लघु रूप मानते हैं.

जॉन होल्ट का मानना है कि बच्चा होने का बोध ही पराधीन होना है. बच्चे की सबसे बड़ी दिक्कत उसको हर समय व्यक्ति के रूप में न देखकर एक नादान प्राणी ही माना जाता है. आज के बच्चों की परिवार से बाहर जाने की तीव्र होती छटपटाहट यह इंगित करती है कि वह ऐसे परिवेश में रहना चाहते हैं, जहां लोग उसे व्यक्ति के रूप में स्वीकारें सिर्फ बच्चों के रूप में नहीं.

जॉन होल्ट पहले ही अध्याय में बता देते हैं कि उनका उदेश्य इस बात को सार्वजनिक मान्यता प्रदान करना है कि बच्चे को वह सब करने का अधिकार हो जो कि कोई भी वयस्क कानूनी रूप से कर सकता है. मसलन- उसके साथ वयस्क के समान व्यवहार, मत देने का अधिकार, कानून में समानता, काम करने का अधिकार, एकान्तता का अधिकार, वित्तीय स्वतंत्रता, शिक्षा चयन का अधिकार, यात्रा करने का अधिकार, आय प्राप्त करने का अधिकार, अभिभावक चुनने का अधिकार आदि.

जॉन होल्ट परिवारों के तेजी से होते एकांगीं स्वरूप के बारे में चिंतित हैं. वे परिवार को व्यापक दायरे में लाने के हिमायती हैं. जिसमें कि बच्चों को उनके मनोभावों के अनुकूल व्यवहार और अभिभावक चुनने की पूर्ण स्वाधीनता हो. जॉन होल्ट का कहना है कि बड़ों के लिए बच्चा एक ऐसा माध्यम है जिसे जब चाहे अपने आनंद के लिए प्यार किया जा सकता है, उसमें बच्चे की सहमति का कोई स्थान नहीं है. यह तथ्य गम्भीरता से विचारणीय है कि बच्चे के साथ वयस्क अपने मन-माफिक आचरण करने का अधिकार किस प्राकृतिक नियमों के अनुसार प्राप्त कर लेते हैं.

जॉन होल्ट एक सच्चे वाकये से इसको स्पष्ट करते हैं. जहां एक डिपार्टमैंटल स्टोर में सामान खरीदने वालों की भीड़ में एक महिला के आगे दो छोटे बालक हैं. महिला उन दोनों के सिर पर हाथ रखकर अंगुलियों से बच्चे समझकर उनके सिर को सहला रही होती है. लेकिन कुछ ही पल में उसकी ऐसी हरकत से नाराज दोनों उसकी ओर मुखातिब होते हैं, यह कहते हुए कि ‘ये क्या कर रही हैं आप’. दरअसल वे नितांत छोटे कद के सयाने पुरुष थे. प्रश्न यह है कि जो कार्य बच्चा समझ कर एक वयस्क के लिए सामान्य था, वह सयाने के साथ होने पर लज्जाजनक कैसे हो गया. एक और बात कि यदि वे सचमुच में बच्चे ही होते तो हम क्यों मान ले कि कोई भी परिचित या अपरिचित सयाना ऐसे कार्य के लिए अधिकार प्राप्त है. हम क्यों मान लेते हैं कि बच्चों को हमारा ऐसा करना अच्छा ही लगेगा. वास्तव में हम ऐसे समय में बच्चे को व्यक्ति न मान कर वस्तु समझने की भूल हर बार करते हैं. जिसके साथ एक तरफा व्यवहार करने की पूरी छूट सयाने अपने पास रख लेते हैं.

वास्तव में बच्चा स्वयं अपने और हमारे बीच जो फासला रखना तय करता है, उसे पहचानना और उसका सम्मान करना हमें सीखना होगा. बिना उसकी आज्ञा के हमें उसके जीवन स्थान में घुसे चले जाने का अधिकार नहीं है. ठीक उसी तरह जैसे किसी वयस्क के साथ हम ऐसा नहीं कर सकते. प्रेम की वस्तुओं की तरह उनका उपयोग हो, यह बच्चों को पसन्द नहीं आता है. उन लोगों के साथ भी नहीं जिन्हें वे सच में चाहते हैं. वे चाहते हैं कि उन्हें ना कहने का अधिकार हो, कि वे स्वयं शर्तें तय करें, रिश्ता कैसे बढ़ेगा उसके नियम वे खुद बनाएं. हमें शिशुओं के साथ व्यवहार में हर सर्वत्र पर सावधानी बरतनी चाहिए और उनके संकेतों का सम्मान करना सीखना चाहिए.

बच्चों की तमाम विशेषताओं में ये हैं कि वे सामान्यतया स्वस्थ, उर्जावान, तेज, जीवन्त, उत्साही, आशावादी, जल्दी नाराज होने वाले, जल्दी गुस्सा भूलने वाले, निष्कपटता, हंसमुख होते हैं. इन सारे सद्गुणों के कारण उन्हें प्यारा-प्यारा मानकर वयस्कों का उनके साथ मनचाहा आचरण करना निष्ठुरता ही है. हमें यह मालूम होना चाहिए कि बच्चे अपने को अकुशल और अबोध बने रहना कभी पंसद नहीं करते हैं. वे निरतंर सीखना चाहते हैं. परन्तु दुर्भाग्य से परिवार और स्कूल दोनों जगहों में उसे सीखने के मौके कम ही मिलते हैं.

यह किताब वयस्कों के बच्चों के प्रति आचरण को पुनः पारिभाषित करने की आवश्यकता को बताती है. बच्चों के प्रति भी वैसा ही व्यवहार किया जाय जैसा कि एक सभ्य, सुशील और शिष्ट सयाने आपस में करते हैं. जॉन होल्ट का कहना है कि परिवारों में बच्चे को पालना उतना ही कठिन है जितना बच्चा होना. और यह दिन-ब-दिन अधिक कठिन होता जा रहा है.

‘बिगड़े बच्चे सबसे अच्छे’

पेंगुइन बुक्स और यात्रा बुक्स ने मिलकर ‘बिगड़े बच्चे सबसे अच्छे’ पुस्तक का प्रकाशन वर्ष-2006 में किया था. लेखिका वेदवती रवींद्र जोगी के मराठी भाषा के इस उपन्यास का हिन्दी अनुवाद डॉ. नीला माधव बोर्वणकर ने किया है. शिक्षाविद पी. जी. वैद्य ने इसमें विषय-सलाहकार के बतौर योगदान दिया है. शिक्षा के क्षेत्र में विज्ञान और गणित विषय लेखन पर पी. जी. वैद्य एक महत्वपूर्ण पहचान है.

‘बिगड़े बच्चे सबसे अच्छे’ उपन्यास के पात्र वे बच्चे हैं जो हमारी प्रचलित शिक्षा-प्रणाली में फिट नहीं बैठ पाते हैं. संगठित स्कूली व्यवस्था से नकारे और ठुकराये गए ये बच्चे अपनी दृढ़-इच्छा शक्ति के बदौलत स्वयं ही एक खुशनुमा और आत्मनिर्भर विद्यालय की रचना कर डालते हैं. यह विद्यालय उनके जीवन के मधुर सपनों का साकार होना जैसा है. साथ ही एक निश्चित दिशा की ओर ठेलती पारम्परिक शिक्षा व्यवस्था के क्रूर प्रहारों से निजा़त पाना भी है. अपने ही प्रयासों से बनाये गए विद्यालय में वो वे बन जाते हैं जो वो जीवन में बनना चाहते थे.

देश-दुनिया में स्कूलों से बाहर किए गए बच्चों की शिक्षा के लिए कम ही सही परन्तु कई सार्थक प्रयास हुए हैं. हमारे देश में गीजुभाई बधेका ने सन् 1916 से लेकर 1936 तक भावनगर (गुजरात) के नजदीक ऐसे ही बच्चों को मारपीट और डांट-डपट के बिना प्रेम-प्यार और भरपूर स्वतत्रंता देकर बच्चों को संस्कारवान और रोजगारपरक शिक्षा प्रदान करने में अदभुत सफलता प्राप्त की थी. उन्होने मोंटेसरी-पद्धति के सिद्धान्तों को अपना कर उन्हें भारतीय संदर्भों में प्रभावी बनाया था. बाल शिक्षण पर केन्द्रित उनकी ‘दिवास्वप्न’ और ‘कठिन है माता-पिता बनना’ उनकी ख्याति प्राप्त पुस्तकें हैं. यह कहा जाता है कि हमारे देश में जो काम राजनीति में महात्मा गांधी ने किया वही बाल शिक्षण में गिजुभाई बधेका ने किया है. रवीन्द्रनाथ टैगोर के शिक्षा दर्शन के अनुसार सन् 1901 में शांति निकेतन और सन् 1918 में विश्व भारती की परिकल्पना का आधार भी ऐसी ही बाल शिक्षण व्यवस्था ही थी.

‘बिगडे बच्चे सबसे अच्छे’ किताब में राजा, रेखा, नंदू, जानू, सुमन, दत्तू जैसे और भी बच्चे हैं जो अध्यापको के सख्त अनुशासन और संवेदनहीन व्यवहार के चलते पूर्व विद्यालयों से भगाये या निष्कासित किए गये थे. पारिवारिक गरीबी, माहौल और सामाजिक उपेक्षा के कारण उनका फिर से पढ़ाई की ओर उन्मुख संभव नहीं हो पाता है. ऐसे में पति-पत्नी श्रीराम त्रिपाठी और नीरा त्रिपाठी उनका शैक्षिक सहारा और मार्गदर्शी बनते हैं. कारोबारी रतनचंद इस पूरे क्रांतिकारी कार्य के लिए मजबूत आर्थिक संबल के रूप में सामने आते हैं. उक्त सबके सामुहिक प्रयास से ‘यशवंत विद्यालय’ मूर्त रूप लेता है. जहां बच्चे अपनी पसंद और हुनर के साथ जीवन में कामयाबी और जिम्मेदारी की राह अपना रहे होते हैं. समय-समय पर कई बाधायें और उतार-चढ़ाव सामने आते हैं. परन्तु ‘जहां चाह वहीं राह’ की उक्ति आखिर में कामयाब होती है.

‘बिगड़े बच्चे सबसे अच्छे’ किताब यह बताती है कि हर बच्चा अलग और विशिष्ट है. इसलिए सभी बच्चों को एक ही सांचे में नहीं ढाला जा सकता है. विडम्बना यह है कि ‌आज की शिक्षा व्यवस्था यही कर रही है. अंको के आधार पर बच्चे की शैक्षिक उपलब्धि का मूल्यांकन करना सबसे खतरनाक होता है. जैसे व्यवसायी अपनी हर गतिविधि को अर्जित आय पर मूल्यांकित करता है, वैसे ही शिक्षक और अभिभावक स्कूली बच्चे की सम्रग प्रगति को अंकों में नापते हैं. नतीजन, बच्चा घर और विद्यालय के शैक्षिक आंतक के कारण शिक्षा प्राप्त करने के वास्तविक आनंद वंचित होता जा रहा है. स्कूल बच्चे के लिए कैदखाने में तब्दील हो गए हैं.

‘बिगड़े बच्चे सबसे अच्छे’ किताब पाठ्य विषयों के कैदखानों में तब्दील होते स्कूलों से इतर वैकल्पिक शिक्षा-माध्यम की परिकल्पना को सहजता और सरलता से मूर्त होने की रोचक कहानी है. शिक्षा से जुड़े मित्रों को तो यह किताब पढ़नी ही चाहिए.

शिक्षा के सवाल

‘शिक्षा के सवाल’ पुस्तक उस सजग और संवेदनशील शिक्षक की है जो शैक्षिक दायित्वों को निभाते हुए हमेशा अनेकों सवालों से अपने को घिरा महसूस करता है. उसे यह बात हर समय कटोचती है कि ‘आज का शिक्षक’ किसी बंधे-बधाये ‘तंत्र’ के परम्परागत ‘मंत्रों’ को बच्चों तक पहुंचाने वाला ‘यत्रं’ मात्र बन कर रह गया है. आज शिक्षक का काम बच्चों को उक्त ‘मत्रों’ को रटाना-भर है, चाहे जीवनीय क्षमताओं और कौशलों को हासिल करने में उन ‘मंत्रों’ का किंचित मात्र भी योगदान न हो. इस प्रक्रिया में शिक्षक बच्चों को सामान्यतयाः उत्तीर्ण मानकर उन्हें स्कूल से विदाकर्ता की भूमिका मात्र में है.

पुस्तक का लेखक इस तथ्य को गम्भीरता से स्वीकारता है कि वह अपनी सहमति से शिक्षक बना है. अतः बच्चों को सिखाने और निपुण बनाने की जिम्मेदारी भी उसी की है. उसकी कोशिश है कि वह सीखने-पढ़ाने के नए और प्रभावी तरीके अपनाये ताकि बच्चे उसमें कुशल हो सकें. वह जानता है कि बच्चों को नया सीखना अच्छा लगता है पर हम उन्हें उसके लिए धकियाते रहें ये वे पसंद नहीं करते हैं. यहीं पर हमारा मौजूदा शिक्षा तंत्र कमजोर और अप्रसांगिक हो जाता है. नतीजन, बच्चों के मन-मस्तिष्क में स्कूल और उसकी शिक्षा प्रणाली के प्रति भय, नीरसता और भ्रम का क्रम और स्तर बढ़ता ही रहता है. बच्चों के इस अलगाव और शिक्षा तंत्र की असफलता का ‘दोषी’ शिक्षक को मानने की प्रवृत्ति आज समाज में हावी ही नहीं वरन पूर्णतया स्वीकार कर ली गई है. शिक्षक की मनःस्थिति स्वयं को शिक्षा की इस दशा का एक ‘जिम्मेदार’ मानने तक तो स्वीकारती है पर वो इसका घोषित ‘दोषी’ है यह सामाजिक स्वीकारोक्ति उसके मनोबल को शिथिलता प्रदान करता है. वर्तमान सामाजिक-शैक्षिक वातावरण में ‘जिम्मेदार’ को ‘दोषी’ साबित करवा देना सबसे बड़ी सार्वजनिक भूल, मूर्खता और शिक्षक के प्रति अनादर है.

शिक्षक-साहित्यकार महेश पुनेठा की पुस्तक ‘शिक्षा के सवाल’ लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित हुई है. वर्तमान शिक्षा तंत्र पर चहुंओर हमलावर हुई यह पुस्तक शिक्षा के सवालों पर शिक्षकों की सामुहिक अभिव्यक्ति है.

शिक्षा की दयनीय दशा और दिशा के लिए शिक्षकों को कठगरे में खडा करना एक फैशन सा हो गया है. शिक्षा की मूल समस्या से घ्यान हटाने की यह प्रवृत्ति कितनी घातक है इसका जायजा इस पुस्तक से लिया जा सकता है.

महेश पुनेठा ने किताब की मंशा को भूमिका में ही स्पष्ट कर दिया है कि ‘यह पुस्तक शिक्षक के दृष्टिकोण से शिक्षा के सवालों को समझने की एक कोशिश है. आज सरकारी शिक्षा की बदहाली के लिए शिक्षक को सबसे अधिक जिम्मेदार माना जा रहा है. ऐसा लगता है कि यदि शिक्षक सुधर जाए, तो सब कुछ ठीक हो जाएगा, जबकि यथार्थ इतना सरल नहीं है. बहुत सारी जटिलताएं हैं. इस पुस्तक में शामिल आलेखों में इन्हीं जटिलताओं को पकड़ने और रेखंकित करने का प्रयास किया गया है.’

पुस्तक में शिक्षा के विविध संदर्भों के प्रति उद्घाटित विचारों का समागम 29 उप-शीर्षकों में है. शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था’ किताब का प्रारम्भ बिन्दु है. शिक्षा के विविध संदर्भों से गुजरते हुए ‘प्राथमिक शिक्षा में गुणवत्ता का सवाल’ पर यह पुस्तक विराम लेती है. संपूर्ण पुस्तक शिक्षा की अवधारणा को समग्रता में लिए हुए उसके 3 पक्षों पर ज्यादा फोकस है. शिक्षा व्यवस्था में नीतिगत सवाल, बच्चों का नजरिया और उनकी स्थिति तथा शिक्षकों के सवाल और प्रयास. समान और सबको शिक्षा, वाउचर प्रणाली, पाठ्यपुस्तकें, शिक्षण का माध्यम, परीक्षा प्रणाली, शिक्षा तंत्र की नीति और नियत, एनसीएफ-2005, बच्चों की वैज्ञानिक अप्रोच, शिक्षा में सृजनशीलता और गुणवत्ता, शिक्षा में वर्ग भेद, भाषायी दक्षता, शैक्षिक डायरी, आदि लेखों में प्रश्नों के साथ लेखक के जबाब और सुझाव भी हैं.

किसी हद तक यह तो माना जाना चाहिए कि आज की शिक्षा व्यवस्था सामाजिक जीवन में बच्चे को विवेकशील, होशियार और दायित्वशील बनाने से ज्यादा चतुर, चालाक और एकांगी बना रही है. लेखक इंगित करता है कि शिक्षा में सजृनशीलता की जगह बाजारवाद ने ले ली है. उसका कहना है कि ‘हम एक ऐसे दौर में हैं, जबकि शिक्षा, सृजनात्मकता व विवेकशीलता के विकास का मिशन न होकर मुनाफे का धंधा बनती जा रही है. शिक्षा सृजनोन्मुखी न होकर बाजारोन्मुखी हो गई है. कैसे अधिक-से-अधिक धनोपार्जन किया जा सके, शिक्षा उसका माध्यम बनती जा रही है’ (पृष्ठः 18). शिक्षा जब बाजार के हितों का साधन बन गई तो उसके सार्वजनिक स्वरूप में विभेद होना स्वाभाविक है. देश में समान और सबको शिक्षा व्यवस्था से पीछा छुडाती सरकार संसाधनों के अभाव का कोरा विलाप करती हैं. जबकि यह भी हकीकत है कि विश्व के विकसित देश जो निजी क्षेत्र के बडे़ पैरोकार हैं वहां भी शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे अहम काम सरकारी नियंत्रण में ही हैं.

लेखक का मानना है कि संपूर्ण शिक्षा पाठ्य-पुस्तकों पर केन्द्रित होकर परीक्षोन्मुखी हो गई है, जो चिन्ताजनक स्थिति है. ‘पाठ्यपुस्तक का दबाब इतना जबरदस्त है कि न बच्चे और न ही शिक्षक उससे बाहर निकल पाते हैं. पाठ्यपुस्तक में निहित विषयवस्तु को पढ़ना और पढ़ाना ही उनके लिए अभीष्ट बन चुका है. पाठ्य पुस्तकों का अनुकरण करना ही शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य बन गया है. ‘मुक्त करने वाली’ शिक्षा बांधने वाली बन गई है’ (पृष्ठः 53). पाठ्यपुस्तकों पर अत्यधिक निर्भरता का मूल कारण ‘शिक्षा का जीवनोन्मुखी न होकर परीक्षोन्मुखी होना है. सभी का जोर परीक्षा पास करने या परीक्षा में अधिकाधिक अंक प्राप्त करने में है. ऐसा प्रतीत होता है, जैसे शिक्षा परीक्षा के लिए है न कि जीवन के लिए’ (पृष्ठः 41).

बच्चों के मनोविज्ञान और उससे अभिव्यक्त व्यवहार के बारे में लेखक की यह टिप्पणी सटीक है कि ‘बच्चे जन्मजात उत्सुक, जिज्ञासु और कल्पनाशील होते हैं. बात-बात पर उनके द्वारा किए जाने वाले कभी खत्म न होने वाले सवाल तथा रंग-बिरंगी कल्पनाएं इस बात के प्रमाण हैं. बच्चे किसी भी बात को ऐसे ही नहीं स्वीकार कर लेते हैं, बल्कि अनेक प्रश्न-प्रतिप्रश्न करते हैं. यह क्या है, कहां से आया, क्यों आया, कैसे बना? जैसे प्रश्न हर वक्त उनकी जुबान पर ही रहते हैं. उन्हें खोजने में बहुत आनंद आता है. हर नई चीज उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर लेती है. वे उसकी तह में पहुंचना चाहते हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि बच्चे स्वभावतः वैज्ञानिक अप्रोच लिए हुए होते हैं’ (पृष्ठः 38).

सामाजिक-आर्थिक विषमताओं वाली व्यवस्था में सबको समान और गुणवत्तायुक्त शिक्षा देने बात करना ही बेमानी है. महेश पुनेठा कवि हैं. अतः अपनी राय को प्रसिद्ध कवि चंद्रकांत देवताले की कविता की व्याख्या के माध्यम से और भी प्रभावी तरीके से व्यक्त करते हैं. ‘ .. जिस उम्र में उच्च-मध्य वर्ग के बच्चे अपने खाए बर्तनों को अपनी मेज से खिसकाते तक नहीं, उसी उम्र में बहुत सारे बच्चे होटल में बर्तन मांजने तथा दूसरे के द्वारा तय की गई मजदूरी पर अपनी इच्छा के विरुद्ध कठोर श्रम करने के लिए मजबूर हैं. लेकिन आश्चर्य है कि इस विषमता को हमारी शिक्षा कभी प्रश्नांकित नहीं करती है. हमेशा उस पर पर्दा डालने की ही कोशिश अधिक करती है. यह समाज इतना क्रूर क्यों है…

अखबार के चेहरे पर जिस वक्त
तीन बच्चे आइसक्रीम खाते
हंस रहे हैं
उसी वक्त
बीस पैसे में सामान ढोने के लिए
लुकाछिपी करते बच्चों के पुठ्ठों पर
पुलिस वालों की बेतें उमच रही हैं.
(चंद्रकांत देवताले) (पृष्ठः 80-81)

‘आखिर क्यों कुछ बच्चों के लिए ही आकर्षक स्कूल और प्रसन्न पोशाकें हैं? क्यों कुछ के लिए ही रंग-बिरंगी किताबें, खेल-खिलौने, मैदान और बाग-बगीचे हैं? क्यों लड़कियां नदी-तालाब-कुआं-घासलेट-माचिस-फंदा ढूंढ़ रही हैं? क्यों शांति और अहिसां का पाठ पढ़ाने वाले समाज में असंख्य बच्चों के हिस्से में हिंसा-ही-हिंसा है? जिस दिन हमारी शिक्षा में इन प्रश्नों को स्थान मिलेगा, उस दिन वह बदलाव का हथियार बनेगी.’ (पृष्ठः 85)

यह पुस्तक इस मामले में भली है कि लेखक ने शैक्षिक पेशे में रहते हुए अपने निजी अनुभवों की डायरी भी सार्वजनिक की है. इससे पूर्व मैंने शिक्षक मित्रों की ‘एक अध्यापक की डायरी के कुछ पन्ने’ (हेमराज भट्ट) और ‘मेरी स्कूल डायरी’ (रेखा चमोली) को पढ़ा है. रेखा चमोली जी ने अपनी पुस्तक की भूमिका के प्रारम्भ में ही डायरी लेखन की महत्वा को बताया है. वो कहती हैं कि ‘शिक्षण का पेशा काफी चुनौती भरा है. इस पेशे में यदि आनन्द की अनुभूति को कायम रखना है, तो बहुत जरूरी है कि शिक्षक अपने सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में खुद से निरन्तर सवाल-जवाब करें और अपने अनुभवों के आधार पर अपनी चुनौतियों से निकलने के रास्ते तलाशे. आमतौर पर शिक्षक अपने अनुभवों के आधार पर ही अपने सीखने-सिखाने के तरीकों को निखारते रहते हैं, लेकिन कई बार अपने अनुभवों को दर्ज नहीं कर पाते हैं. परिणाम स्वरूप उनकी खुशी और परेशानियों के ढेर सारे पल समय के साथ कहीं खो जाते हैं.’ महेश पुनेठा ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया है. मुझे लगता है कि कई शिक्षक मित्र शैक्षिक डायरी लिखते होंगे. उन्हें सुझाव है कि वो उसके प्रकाशन में संकोच न करें.

महेश पुनेठा ‘दीवार पत्रिकाः एक अभियान’ के संस्थापक संचालनकर्ताओं में शामिल हैं. बच्चों की रचनात्मकता को बढ़ाने और पढ़ने की आदत को विकसित करने के लिए ‘दीवार पत्रिकाः एक अभियान’ देश भर में लोकप्रिय हो रहा है. अब तक देश के 1 हजार से अधिक स्कूलों में यह विचार फलीभूत हो गया है. दीवार पत्रिका के बारे में महेश पुनेठा पुस्तक में लिखते हैं कि ‘यह एक हस्तलिखित पत्रिका है, जो दीवार पर कलैंडर की तरह लटकाई जाती है. इसमें साहित्य की विभिन्न विधाओं, बच्चों के अनुभवों, रोचक गतिविधियों और चित्रकला को स्थान दिया जाता है…..इसे भित्ति पत्रिका या वाॅल मैग्जीन के नाम से भी पुकारा जाता है’ (पृष्ठ-74).

यह पुस्तक हमें बताती है कि बुद्धि और प्रतिभा का असली परीक्षण यह नहीं है कि हम क्या-क्या जानते या कर सकते हैं, वरन इसमें है कि जब हम न जानते हैं और न करना आता है, तब हमारा व्यवहार किस तरह का होता है. शिक्षक जो पाठ कक्षा में पढ़ा रहा है यदि वो बच्चों को यह समझााने में सफल हो जाता है जीवन के किस मोड़ पर यह पाठ काम आयेगा तो उसका शिक्षण प्रभावी होगा. इसे दूसरे तरीके से यह कह सकते हैं कि शिक्षक की बताई गई सीख और पाठ जब हमें जीवन की किसी विशेष परस्थिति से उभारने में मदद करते हुए प्रतीत होती है तो वही सार्थक शिक्षा है.

मित्र महेश पुनेठा की ‘शिक्षा के सवाल’ पुस्तक को पढ़कर शिक्षाविद जॉन होल्ट की ‘हाऊ चिल्ड्रन फेल’ पुस्तक में लिखा याद आया कि ‘ऐसे स्कूल हों, जहां बच्चों को अपनी तरह से अपनी जिज्ञासाओं को संतुष्ट करने की छूट हो. वे स्वयं ही निजी क्षमताएं विकसित करें. अपनी रुचियों एवं रुझानों को पनपाएं. हमारे स्कूल, बुद्धि, ज्ञान, हुनर और सृजनात्मकता का ऐसा विशाल मंच बने जहां प्रत्येक बच्चा अपने स्वाभाविक गुणों के साथ जीवन जीने की कला सीख सकें’. महेश पुनेठा के मन-मस्तिष्क में विराजमान जीवंत स्कूल की अवधारणा भी यही है.

शिक्षा के सवाल जीवन, जगत और जीविका के सवालों से इतर नहीं हैं वरन इनके केन्द्र में रहकर ही वे हर समय उथल-पुथल मचाते रहते हैं. उनका निदान तो दूर है, पर अभी हम उनको जान-समझ तो लें. और, उसके लिए आपको इन पुस्तकों से बतौर पाठक दोस्ती करनी होगी.

ग्रामचामी, पोस्टसीरौ– 246163
पट्टीअसवालस्यूं, ब्लाककल्जीखाल
जनपदपौड़ी (गढ़वाल), उत्तराखण्ड

Share this:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *