मंजू दिल से… भाग-29
- मंजू काला
फ़ागुन महीना…
फूली सरसों…
आम झरे..
अमराई….
मै अंगना में
चूप- चूप देखूँ
ऋतु बसंत की आई…..!!!!!
ऋतु …बसन्त की आई!
फ़ागुन का महीना… सरकती ठंड की फुरफुरी, गुन- गुन-गुनाता मौसम, सप्तपदी के फेरों सीं “दें” लगाती ऋतुएँ औऱ वनों के बीच बुराँश कचनार- आह टेशू भी फूल उठें होंगे शायद!
अरे भाई, पत्तों से भरी डालियों पर फ़ाख्ता भी बोल रही होगी शायद.! मेरे प्यारे पहाड़ों के गदेरों में चातकी भी बोल रही होगी मालूम!?
पीले पड़ते गेहूँ, जौ के खेतों में, कफू भी उड़ रही होगी शायद, औऱ… और, सरसों की वल्लरियों पर…मधुकरियाँ भी गुनती होंगी…..शायद! किसी रमणी का पति परदेश से अभी आया नहीं होगा शायद, युद्धरत होगा शायद, भूल गया होगा अपनी प्रिया को, शायद, वह पंछियों से शिकायत करती होगी शायद औऱ ऐसी ही विरहणी नायिका के लिये “बारह मासा” लिखा होगा शायद!
भारतीय लोकभाषाओं में भारतीय लोकमानस के अभिव्यक्ति धरातल सर्वत्र…समानांतर मिलते हैं। लोक कवियों ने इस परंपरा में विरहिणी नायिका के मन पर ऋतु प्रभावों के अनुरूप भावों को बड़ी सहजता और सरलता से व्यंजित किया है। ऐसे प्रयोगों में आंचलिक ऋतु परिवर्तन अपने नैसर्गिक सौंदर्य के साथ, वनस्पतियों की विविधता से प्रभावित,विरह पीडि़ता …..लोकनायिका की मनःस्थितियां बड़े सहज और प्रतीक रूप से वर्णित हैं। मैथिली, अवधी, ब्रज, राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी,डोगरी…औऱ मेरे पहाड….की….लोकभाषाओं में इस परंपरा की सुंदर एवं हृदयस्पर्शी रचनाएं मिलती है…
तभी न… पहाड़ी लोकनायिक कहती है-
कफू बासलो मेरा
मैतियों का मैती,
कफू बासलो
मेरा मैतियों
का तीर…
लोकगीतों में भी ‘बारहमासा’ की परंपरा मिलती है। इन रचनाओं में लोक कवियों ने वर्ष के बारह महीनों की प्रकृति संबंधी परिवर्तन विशेषताओं के परिप्रेक्ष्य में विरह पीडि़ता की मनःस्थिति को बड़ी सहजता से वर्णित किया है। ये गीत लोक नारी की …..प्राकृतिक स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में, विरह अवस्था में, अनुभूत मनःदशाओं की सहज, सरल एवं संवेद्य अभिव्यक्ति है। इनमें कल्पना द्वारा स्वप्निल संसार बनाने-बसाने की बात नहीं है। इनमें लोक कवि ने तो जो देखा और जैसा अनुभव किया, उसे जैसे भी कहना-सुनाना चाहा है, स्पष्ट, सरल एवं मधुर शब्दों में कह दिया है। यह काव्य शैली लोकनारी के विरहजनित हृदय की प्रवृत्तियों, चेतना, शारीरिक एवं मानसिक दशाओं आदि का पूर्ण बिंब उभारती है।
वे सभी स्थितियां जिनमें वह जीती है, जैसी अनुभूतियों को संजोती है, वे सब उजागर हो उठी हैं, इन गीतों में। हम उसकी मनःस्थिति से साम्यस्थापित करते, उसके प्रति संवेदनशील बन तदनुरूप भावों की प्रतीति करते, उन्हीं पंक्तियों को गुनगुनाने, दोहराने लगते हैं। इन गीतों की भाव एवं शिल्पगत विशेषता इसी सहजभाव में निहित है। बारहमासा ……लोककाव्य में परंपरित सतमासा (सात मास का वर्णन) में चैत्र मास से अश्विन मास तक तथा छह मासा (छह मासों के वर्णन) में चैत्रमास से आषाढ़ मास तक, मास दर मास प्राकृतिक-परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में, विरह पीडि़ता नारी द्वारा अनुभूत विरह भावनाओं का वर्णन मिलता है। इसी प्रकार त्रैमासा और दो मासा रूपों का कथानक मिलता है। ऐसे लोक काव्य को ऋतुगीतों के अंतर्गत रखना सही है, जिनका भाव लोक सहज होता हुआ भी अत्यंत मार्मिक है!
बारहमासा रूपों में वर्ष के प्रत्येक मास के प्राकृतिक परिवर्तन के प्रभाव से लोकनायिका के शरीर पर पड़ते प्रभाव और उसकी बदलती मानसिकता या सोच को सरल एवं सहज शब्दों में व्यंजित किया गया है। हर महीने की अपनी प्राकृतिक… सुषमा, त्योहारीय आकर्षण, लोकाचार-परंपरा एवं भौगोलिक प्रभाव हैं। नायिका उन्हीं प्रभावों-परिवर्तनों तथा आकर्षणों से प्रभावित उन्हीं का बहाना बनाती… आकर्षण जताती प्रिय…परदेशी प्रियतम को घर आने या घर पर ही रहने का आग्रह करती है। अथवा उसके विरह में… उस मास में आए प्राकृतिक परिवर्तनों के प्रभाव से… जनित सुख-दुख की अनुभूतियों को व्यक्त करती अपनी विरह वेदना की सहज व्यंजना करती है… औऱ….. देखिए न…!
मास की प्राकृतिक विरह उद्दीपनता कम नहीं होती कि अचानक चुपके-चुपके लुका-छिपी करता…… बैसाख मास अपने प्राकृतिक हाव-भाव से उससे छेड़खानी करने लगता है. ऋतुओं को भला क्या लेना देना किसी के सुख-दुख से। उन्हें तो कालचक्र में बंधे निरंतर क्रम से आना-जाना है….खिलना-मुरझाना है, तपना-बरसना है। सावन की पुरवाई, पपीहे का क्रंदन… बादलों की गर्जन, बिजुरी की कड़कन … बिसूरती….विरहिणी को सताती-खिझाती नहीं थकती।
नदियों में बाढ़ का पानी उतर गया….रास्ते सूखने लगे, बरसात के रुके यातायात फिर चल पड़े, सूने मार्ग महकने, गमकने-बतियाने लगे, परंतु कहीं-कहीं तो दिवाली तथा होली के त्योहार अपनी तिथियों पर आते लोकरंजन करते, लोकजीवन में रंग-रस, गंध बिखरेते, सब सूने-सूने बीत गए, चित्तचोर की प्रतीक्षा करते-करते, दिन गिनते-गिनते अंगुलियों के पोर घिस गए। न पिया आए, न घर सजा, न गीत गूंजे, न सुहागिन सजी, न हिंडोले-पींहगे झूलीं, न सहेलियों ने रिझाया, न ….प्रिय न…मनाया…हठी…जो ठहरा… सूरज की तरह!
सब फीका-फीका सा, सूना-सूना सा रहा, उसकी अनुपस्थिति के खालीपान को कोई नहीं भर सका। विकल्प भी तो नहीं है लोकनारी के स्वच्छ प्रतिबद्ध हृदय में। निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि सरल शब्दावली में व्यक्त, कल्पना रहित सपाट बयानी की खूबसूरती में इन बारहमासों में, लोकनारी के विरह-वियोग की मनस्थितियों का सहज, सुंदर तथा प्रभावपूर्ण वर्णन मिलता है।
इन्हें सुनते या पढ़ते समय नायिका द्वारा अनुभूत एवं भोगी हर स्थिति का पूर्ण बिंब साकार हो उठता है। अंजुआं हार परोआं, खाण-पीण नी भौएं, पापी विरह सताए, पौण चले पुरवाई, कालजा निकली जांदा बाहर, भाद्रूं न्हेरियां रातीं, बदलैं गरजी डराई, खाणा पौंदी पहाड़ी आदि सहज भाव में प्रयुक्त वाक्यांश एवं मुहावरा प्रयोग नायिका के मन में निहित भावों का अर्थ देते पूर्ण स्थिति को साकार संप्रेषित करते पाठक के मन में विरह व्यथिता नारी की कारुणिक स्थिति को उजागर करते, पूर्व बिंब उभारते हैं। उसकी स्थितियों से जोड़ते हैं। श्रोता-पाठक में तद्गत भावों की सहज प्रतीति और रस-निष्पत्ति अनायास होने लगती है। यही इन रचनाओं की खूबसूरती है, अर्थ एवं गीति-सौंदर्य है। यही इनकी सरसता, निरंतरता और जीवंतता का मूल कारण है।
बारहमासे… लोकसाहित्य एवं लोक संस्कृति की उत्कृष्ट रचनाएं हैं, जिनकी संवेदना शिष्ट साहित्य में रचित बारहमासा परंपरा के समानांतर है। ये रचनाएं कल्पना और शब्द प्रयोेग के आडंबर से रहित, भाव व्यंजना में पूर्ण हैं। इनमें प्रतीक रूप में वर्णित भाव तथा प्रयुक्त सहज शब्द विरहिणी नायिका की ऋतु से प्रभावित मानसिक, शारीरीक स्थितियों के स्पष्ट बिंब उभारने तथा वैसे ही भावों की प्रतीति कराने में पूर्ण सफल एवं समर्थ हैं। सामाजिक सरोकारों के दस्तावेज हैं ये गीत..है न!
इन्हें सुनते ही विरहिणी लोक नायिका से जुड़ा कथावृत, परिवेशगत स्थितियां, मनोदशाएं, पारिवारिक संबंध, व्यवहार आदि स्वतः अनावृत होने लगते हैं। इनमें कथा न होने पर भी एक अव्यक्त कथानक साकार होने लगता है। स्थितियों के द्वंद्व में पात्रों के चेहरे उभरने लगते हैं। सामाजिक, आर्थिक, वैकासिक तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी इन रचनाओं को महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। लोक-समाज की वैकासिक परंपरा के अध्ययन में इन रचनाओं की भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण उपयोगिता है,जितनी लोक संपदा के अन्य रूपों की। समाज-शास्त्र, नृ-विज्ञान एवं मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में भी इनका मूल्य नकारा नहीं जा सकता है। समग्रतः विभिन्न दिशाओं में इनके अध्ययन के व्यापक आयाम खुले हैं।
बाहरमासा में वर्णित कृष्ण लोकनारी का प्रवासी प्रियतम है, जो जैविक समस्याओं के कारण वर्षों बाद घर लौट पाता है। पर्वतीय जनजीवन आर्थिक संघर्षों का जीवन रहा। यहां युवा वर्ग अवयस्कता में ही मैदानी शहरों या सीमांती क्षेत्रों में चल रहे विकास कार्यों में नौकरी ढूंढने चला जाता। तब मजदूरी की दरें कमी थीं, यातायात के साधन कठिन तथा महंगे थे। घर को कुछ और अधिक कमाकर लाने की लालसा उसे मजबूर करती कि वह जब घर से निकला ही है तो क्यों नहीं साल-दो साल लगाकर कुछ कमा कर ही घर लौटे!
माता-पिता तथा पत्नी भी सहते रहते, इसी लालसा में लंबे अलगाव को। उसकी पत्नी या प्रेमिका को उसकी प्रतीक्षा में राह बिसूरते वर्षों बीत जाते। घर में सास-ससुर तथा जेठ-जेठानी से स्नेह भरे व्यवहार एवं वातावरण का अभाव उसके हृदय को प्रिय परदेशी प्रियतम की चिंता में और भी संवेदनशील तथा आकुल-व्याकुल बना देते। युवा प्रेमी परदेशी नायक भी उसी परिपे्रक्ष्य में राहें बिसूरता, प्रिया मिलन के संयोगी सपने बुनता जीवन के मीठे-कड़वे घूंट निगलता, विवश घर नहीं लौट पाता। संभवतया लोकनायक एवं लोकनायिका की इन संवेदशील स्थितियों से प्रभावित होकर ही लोक कवि ऐसी बारहमासा रचनाएं करने में मजबूर हुआ होगा….
एक तरफ जैविक…… समस्याओं की मजबूरी दूसरी ओर गृहस्थी में व्यावहारिक विसंगतियों की भीड़, दोनों प्रेमी हृदयों को…. परस्पर स्मरण में गुनगुनाते…..विरह पीड़ा में सुलगते जीवन व्यतीत करने को विवश करती रही होगी। शायद… इन्हीं स्थितियों में जन्मा होगा बारहमासा..!
लोककाव्य। वास्तव में विशेष स्थितियों में ही जन्मती हैं अनुभूतियां और प्रतीति साकार होती है अभिव्यक्ति में। आकार पाते हैं… शब्द….वाक्य…रंग….और स्वर।
उभरते हैं चित्र….गूंजने लगते हैं गीत-गाथाएं, गमकते हैं ताल-वाद्य, थिरकते हैं पांव…. जन्म लेती हैं लोककलाएं और जीवन पाती हैं परंपराएं….!!
तो….
बनिये
रंगरेज!
(मंजू काला मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल से ताल्लुक रखती हैं. इनका बचपन प्रकृति के आंगन में गुजरा. पिता और पति दोनों महकमा-ए-जंगलात से जुड़े होने के कारण, पेड़—पौधों, पशु—पक्षियों में आपकी गहन रूची है. आप हिंदी एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं. आप ओडिसी की नृतयांगना होने के साथ रेडियो-टेलीविजन की वार्ताकार भी हैं. लोकगंगा पत्रिका की संयुक्त संपादक होने के साथ—साथ आप फूड ब्लागर, बर्ड लोरर, टी-टेलर, बच्चों की स्टोरी टेलर, ट्रेकर भी हैं. नेचर फोटोग्राफी में आपकी खासी दिलचस्पी और उस दायित्व को बखूबी निभा रही हैं. आपका लेखन मुख्यत: भारत की संस्कृति, कला, खान-पान, लोकगाथाओं, रिति-रिवाजों पर केंद्रित है.)