एक लेखक की व्यथा…

  • ललित फुलारा

कल एक होनहार और उभरते हुए लेखक से बातचीत हो रही थी. उदय प्रकाश और प्रभात रंजन की चर्चित/नीचतापूर्ण लड़ाई पर मैंने कुछ लिखा, तो उसने संपर्क किया. शायद उसे मेरे लेखक होने का भ्रम रहा हो. उसकी बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर किया. उसने कहा, ‘मैं लिखने के लिए ही जी रहा हूं पर मेरे लिखे को कोई तवज्जो नहीं देता क्योंकि मुझे नहीं पता किसी के गैंग में कैसे शामिल हुआ जाए. कई पत्रिकाओं को कहानी भेज चूका हूं. एक उपन्यास का पूरा ड्राफ्ट एक बड़े प्रकाशक के यहां पड़ा हुआ है.

जब मैंने फोन किया तो मुझे औसत करार दिया गया. इससे पहले तक मुझसे आग्रह किया गया था कि किसी दूसरी पत्रिका में वो कहानी न भेजें, क्योंकि उसे हम छापेंगे. जब दूसरी पत्रिका को भेजा और उसके संपादक को फोन किया तो वो बोले ‘आपकी ये कहानी तो अमूक पत्रिका में आ रही थी.

देश का जाना- माना प्रकाशक. ऐसा प्रकाशक जिसके कर्ता-धर्ता ने अपने क्षेत्र/राज्य के गांव-गली से खोज-खोजकर लोगों को लेखक बना दिया. एक जानी मानी पत्रिका से पहले मेल आया कि आपकी कहानी छाप रहे हैं और फिर नहीं छपी! जब मैंने फोन किया तो मुझे औसत करार दिया गया. इससे पहले तक मुझसे आग्रह किया गया था कि किसी दूसरी पत्रिका में वो कहानी न भेजें, क्योंकि उसे हम छापेंगे. जब दूसरी पत्रिका को भेजा और उसके संपादक को फोन किया तो वो बोले ‘आपकी ये कहानी तो अमूक पत्रिका में आ रही थी. आपने पहले उसे ही चुना फिर अब हमें क्यों दे रहे हैं.’ मैं क्या बोलता? प्रणाम कर फोन रख दिया.

फेसबुक पर सारे बड़े लेखकों से मित्रता की और उनसे सलाह मांगी. आधे से ज्यादा लेखकों ने उत्तर देने के काबिल तक नहीं समझा. कुछ लेखकों ने अंतस के कहने पर संवाद स्थापित किया. सबसे पहले अपनी किताबों की सूची भेजी.  

किसी ने बताया कि एक वेबसाइट है, जो कहानियां छापती है. उसके दीजिए क्या पता वहां से आप पर लोगों की नजर जाए. तो उनसे संपर्क किया लेकिन दो महीने पास रखने के बाद उनका जवाब था. ‘अच्छी है कहानी. विचार कर रहे हैं.’ महीनों बीत गए जब विचार नहीं हुआ, तो मैंने फोन किया तो उनका जवाब था. ‘संपर्क में रहना पड़ता है. बातचीत करनी पड़ती है. अब आप खो जाते हैं तो कोई कैसे पूछेगा. सक्रिय रहिए. शामिल होइये.’

मैं समझ गया और वहां से भी निराशा हाथ लगी. फेसबुक पर सारे बड़े लेखकों से मित्रता की और उनसे सलाह मांगी. आधे से ज्यादा लेखकों ने उत्तर देने के काबिल तक नहीं समझा. कुछ लेखकों ने अंतस के कहने पर संवाद स्थापित किया. सबसे पहले अपनी किताबों की सूची भेजी. अपनी कहानियों के पीडीएफ भेजे. मैंने उनका वो सारा लिखा पढ़ा. अभी तक उनमें से किसी भी लेखक ने मेरे लिखे पर कोई जवाब नहीं दिया. आलोचना के काबिल भी नहीं समझा. जब भी मैं संपर्क करता, तो वो अपनी ही कहानियों और लिखे की तारीफ सुनने के मूड़ में होते. यहां से भी निराशा हाथ लगी.

फेसबुक पर लिखता हूं तो वाह-वाह तो काफी मिलती है लेकिन मुझे वह वाह-वाह नहीं चाहिए. मैं साहित्यकारों का मार्गदर्शन चाहता था जिसके लिए मैंने कई साल खपाए. आगे-पीछे घूमा. फोन किया. हर संवाद में वो कुर्सी पर बैठे और मुझे दरी पर ही बैठाये रखा. अब मुझे लगता है कि लेखक देशकाल/टाइम से परे नहीं बल्कि इसलिए लिखता है कि उसके लिखे को तारीफ मिले….

फेसबुक पर लिखता हूं तो वाह-वाह तो काफी मिलती है लेकिन मुझे वह वाह-वाह नहीं चाहिए. मैं साहित्यकारों का मार्गदर्शन चाहता था जिसके लिए मैंने कई साल खपाए. आगे-पीछे घूमा. फोन किया. हर संवाद में वो कुर्सी पर बैठे और मुझे दरी पर ही बैठाये रखा. अब मुझे लगता है कि लेखक देशकाल/टाइम से परे नहीं बल्कि इसलिए लिखता है कि उसके लिखे को तारीफ मिले और उसको लेखकों का मार्गदर्शन ताकि उत्साह मिल सकें. एक वक्त ऐसा आया जब मैंने भी एक-दो गुट चुने और उनमें शामिल हुआ लेकिन…. ऐसा हाल है मेरे बौद्धिक श्रम और बौद्धिक श्रम के कद्रदानों का. क्या किया जाए…

किसी और के पीछे सालों तक भागने, उसकी ही तारीफ करने और कहानी सुनने से बेहतर है. अपना समूह बनाओ. खुश रहो. अपनी उम्र वाले लोगों को तवज्जो दो, तो तुमको तवज्जो मिलेगी और प्रचार भी. और हां. लेखक के लिखे हुए को तवज्जो दो. लेखकों को भगवान मत बनाओ. औकात में ही रहने दो. जो भला इंसान हो उस लेखक का दिल से सम्मान करो. बाकी को ठोक दो बिना डरे…

मैंने बस इतना कहा. ‘भाई. सबसे पहले अभी सोचे. सब झाएं भाड़ में. कोई बड़ा-वड़ा नहीं है. तुम काबिल हो और तुम ही बड़े हो. तुम्हें कोई बनाएगा नहीं, खुद तुम बनोगे. वक्त बना देगा जो बनने वाले होओगे. हिम्मत आई थोड़ा. अब लिखते जाओ. ज्यादा ही खुजली है तो किसी प्रकाशक को पैसे देने से बेहतर है कि खुद ही खुद कि किताब ले आओ. अपने लोगों को चुनो. अपनी पब्लिसिटी खुद करो. अपने लिए लेख और समीक्षा खुद लिखाओ. खुद ही अपनी किताब को बेचो. युवा हो और युवा पीढ़ी के पीछे बुजुर्ग भी भाग रहे हैं/  बुजुर्ग होने की कगार पर खड़े लेखक भी. किसी और के पीछे सालों तक भागने, उसकी ही तारीफ करने और कहानी सुनने से बेहतर है. अपना समूह बनाओ. खुश रहो. अपनी उम्र वाले लोगों को तवज्जो दो, तो तुमको तवज्जो मिलेगी और प्रचार भी. और हां. लेखक के लिखे हुए को तवज्जो दो. लेखकों को भगवान मत बनाओ. औकात में ही रहने दो. जो भला इंसान हो उस लेखक का दिल से सम्मान करो. बाकी को ठोक दो बिना डरे…

अगर तुम इसे पढ़ रहे हो तो और हिम्मत ले आओ. खूब लिखो क्योंकि कोई तुमसे यह नहीं कहेगा तुम अच्छे लिखते हो. एक दिन ऐसा आएगा, लोगों की यह मजबूरी होगी कहना कि तुमने अच्छा लिखा है.

(लेखक अमर उजाला में चीफ सब एडिटर हैं. ज़ी न्यूज और न्यूज 18 सहित कई संस्थानों में काम कर चुके हैं.)

ललित फुलारा को अधिक पढ़ने के लिए click करें … www.lalitfulara.com

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