एक ऐतिहासिक-पुरातात्विक नगरी ‘लाखामण्डल’

  • इन्द्र सिंह नेगी

यमुना को यह वर प्राप्त है कि जिधर से भी इसका प्रवाह आगे बढ़ेगा, वहाँ समृद्ध सभ्यता/संस्कृति का विकास स्वतः ही होता चला जायेगा. उसके उद्भव से लेकर संगम तक के स्थान अपने आप में ऐतिहासिक-सामाजिक- सांस्कृतिक रूप से समृद्धशाली हैं. हिन्दुओं में यह भी मान्यता है कि ‘यम द्वितीया’ के दिन यमुना-स्नान से समस्त पापों से मुक्ति मिल, मोक्ष की प्राप्ति होती है. यमुना के तट पर 1095 मी. की ऊँचाई पर स्थित ‘लाखामण्डल’ नैसर्गिक सौन्दर्य से परिपूर्ण और ऐतिहासिक, सांस्कृतिक-धार्मिक व पुरातात्विक महत्व को सहेजे हुए हैं.

देहरादून के जौनसार-बावर परगने की चकराता तहसील के अन्तर्गत ‘लाखामण्डल’ दिल्ली-यमुनोत्तरी राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित जनपद उत्तरकाशी के बर्नीगाड से लगभग 5 किमी. की दूरी पर स्थित है. बर्नीगाड़ देहरादून से मसूरी होकर लगभग 107 किमी. व विकासनगर की ओर से आने पर 122 किमी. की दूरी पर है. इसी के समीप बर्नीगाड व यमुना का संगम होता है. लाखामण्डल तक पहुँचने के लिए एक मार्ग चकराता से भी है, जिसकी लम्बाई 65 किमी. है, यह गाँव गोठाड़ गाड़ व रिखनाड़ गाड़ के मध्य बसा है.

बर्नीगाड़ के समीप ‘गंगाणी धारा’ है, जिसका संगम यमुना से होता है. किवदन्ती है कि अर्जुन ने अपने बाण से गंगा की धारा पैदा की, इसलिए इसे ‘बाण गंगा’ भी कहते हैं.

लाखामण्डल के नामकरण से सम्बन्धित चार मान्यताएँ प्रचलन में हैं-एक यह कि कुरु राजकुमार दुर्योधन ने पाण्डवों को खत्म करने के लिए यहाँ लाख का महल बनाया था. वाल्टन के अनुसार- सम्भवतः यहाँ दुर्ग भी था. अभी यहाँ एक सुरंग मिलती है, जिससे होकर पाण्डव लाक्षागृह से भागे थे. ये सम्भवतः इस सुरंग का मुँह अब पट गया हो, जो दिखाई नहीं देता. दूसरी मान्यता यह है कि यहाँ लाख वृक्षों का जंगल था. तीसरी मान्यता के अनुसार, यहाँ लाख से अधिक मूर्तियाँ हैं व चौथी मान्यता यह है कि यह किसी राज्य का मुख्यालय था क्योंकि पुराने समय में किसी भी राज्य को ‘मण्डल’ की संज्ञा दी जाती थी, जैसे ‘केदारमण्डल’, ‘वालामण्डल’ आदि. लाखामण्डल का नाम अभी भी राजस्व गाँव के रूप में ‘महड़’ है, जो कि महल का तद्भव रूप है. यहाँ अधिकांशतः ब्राह्मण लोग निवास करते हैं. इसी के समीप ‘धौड़ा’ गाँव है. जौनसार-बावर के लोग इन गाँवों के लिए संयुक्त रूप से ‘धौड़े-मौड़े’ के रूप में सम्बोधित करते हैं.

बर्नीगाड़ के समीप ‘गंगाणी धारा’ है, जिसका संगम यमुना से होता है. किवदन्ती है कि अर्जुन ने अपने बाण से गंगा की धारा पैदा की, इसलिए इसे ‘बाण गंगा’ भी कहते हैं. यहाँ पर्यटन विभाग द्वारा विश्राम हेतु व्यवस्था की गई है. इस स्थान पर आराम करने के साथ-साथ, जलधारा से स्नान का लुत्पफ भी लिया जा सकता है. बर्नीगाड़ पुल से एक मार्ग धारी-कफनौल और दूसरा यमुनोत्री मार्ग तक, आगे कई धाराओं में विभक्त होकर निकलता है. यहाँ पर खाने-पीने की कुछ सामान्य दुकानें व वन-विभाग का पुराना विश्राम-गृह सुन्दर-से टीले पर स्थित है. यहीं से यमुनोत्री मार्ग पर चलकर बायीं हाथ की ओर चकराता के लिए एक मार्ग बना है. यमुना पर पुल से पार लाखामण्डल की ओर जैसे-जैसे बढ़ते हैं, दायीं ओर एक उन्नत सेरे का दृश्यावलोकन होता है, जो यमुना के तट तक फैला हुआ है. यहाँ अधिकाशतः आलू, टमाटर, धान की पैदावार की जाती है. आगे पुड़िया बैण्ड है, जहाँ से एक मार्ग नाड़ा गाँव की ओर जाता है. यह मार्ग किसी समय वन-विभाग के आधिपत्य में था, अब लोक निर्माण विभाग को हस्तान्तरित कर, इसका जीर्णोद्वार किया गया है.

पुड़िया बैण्ड (मोड़) से जब लाखामण्डल की ओर घूमते हैं तो आगे बढ़कर दायीं ओर एक बड़ी-सी गुफा है, जिसका उपयोग स्थानीय लोग घास-पात रखने के लिए कर रहे हैं. खाला-पार कर लाखामण्डल में प्रवेश करते हैं. यहाँ सड़क के इर्द-गिर्द चाय, खाने की दुकानें तथा ठहरने के लिए होटल हैं. इसी मार्ग पर जब चकराता की ओर मुड़ते हैं तो बायीं ओर पुरातत्व विभाग द्वारा निर्मित द्वार है. यहाँ से लेकर मुख्य मन्दिर तक पुरातत्व विभाग द्वारा सी.सी. मार्ग का निर्माण कराया गया है तथा आस-पास के क्षेत्रा को विनियमित क्षेत्रा घोषित कर दिया है, जिससे यदि लोग अपने भवन की गिरी हुई दीवार भी बनाना चाहें तो पुरातत्व विभाग की अनुमति आवश्यक है. इसे लेकर स्थानीय लोगों में आक्रोश है. मुख्य मन्दिर तक पत्थर की सीढ़ियों के माध्यम से पहुँचा जा सकता है. मन्दिर के प्रांगण में प्रारम्भ में बायीं ओर बैठने के लिए छप्परनुमा चबूतरा है, जिससे आस-पास के दृश्यों का अवलोकन किया जा सकता है.

मुख्य मन्दिर सुव्यवस्थित रूप से तराशे गये पत्थरों से निर्मित है. मन्दिर के द्वार के दोनों ओर पत्थर की सुवर्ण नदी की मूर्तियाँ हैं. मन्दिर के अगले भाग, जो कि पटालों /तख़्तों के छत से ढका हुआ है, में कई तरह के शिवलिंग विराजमान हैं तथा मन्दिर के भीतर शिव-पार्वती, गणेश, महिषासुर, दुर्गा आदि की मूर्तियाँ है . मन्दिर की बनावट कई कोनों वाली है. इस मन्दिर की विशेषता यह है कि आमलक को ढकते हुए एक के स्थान पर तीन छज (च्तेंवसे) हैं. मन्दिर के दीवारों पर पत्थर की तराशी हुई सुन्दर मूर्तियाँ हैं. यमुना घाटी के मन्दिरों में काष्ठ प्रयोग की अपनी दो प्रकार की शैलियाँ हैं. एक सम्पूर्ण संरचना में काष्ठ प्रयोग, दूसरा प्रस्तर निर्मित ‘छज रेखा-प्रासाद शैली’, जिसमें मात्रा छजों पर काष्ठ का प्रयोग किया जाता है. डॉ. यशवन्त सिंह कटोच के अनुसार ‘लाखामण्डल का मन्दिर छज-रेखा प्रासाद शैली का उत्कृष्ट नमूना है.’ इस प्रकार के मन्दिर छठी, सातवीं शताब्दियों में निर्मित हुए हैं.

लोक- मान्यता है कि इसका निर्माण पाण्डवों द्वारा किया गया. यह भी मत है कि दुर्योधन ने पाण्डवों को जलाकर मारने की योजना के तहत लाक्षागृह का निर्माण किया. पाण्डव तो बच निकले, यह महल जल गया तथा जिस सुरंग से पाण्डव निकले थे, वह समय के साथ सम्भवतः यहीं कहीं दबी हुई है.

इस मन्दिर के निर्माण के सन्दर्भ में लोक- मान्यता है कि इसका निर्माण पाण्डवों द्वारा किया गया. यह भी मत है कि दुर्योधन ने पाण्डवों को जलाकर मारने की योजना के तहत लाक्षागृह का निर्माण किया. पाण्डव तो बच निकले, यह महल जल गया तथा जिस सुरंग से पाण्डव निकले थे, वह समय के साथ सम्भवतः यहीं कहीं दबी हुई है. पुरातत्व विभाग को प्राप्त अभिलेख के अनुसार राजा भास्कर वर्मन व महारानी जयवती, जो कि सिंहपुर रियासत के शासक थे, उनकी पुत्री ईश्वरा का विवाह जालन्धर राज्य के राजकुमार चन्द्रगुप्त के साथ हुआ था. एक दिन हाथी की सवारी करते हुए चन्द्रगुप्त की गिरकर, मृत्यु हो गई . चन्द्रगुप्त की स्मृति में ईश्वरा ने इस स्थल पर शिव मन्दिर का निर्माण कराया . यह प्रशस्ति छठी शताब्दी की है. इसमें भास्कर वर्मन से पूर्व की बारह पीढ़ियों के क्रमवार नामों जैसे-सेन बर्मन, दत्त बर्मन, जन वर्मन आदि का उल्लेख मिलता है. इसके अन्तिम में ईश्वरा द्वारा कामना की गई है कि- जब तक धरती, पर्वत, समुद्र रहें, सूर्य, चन्द्र व नक्षत्रा रहें, तब तक चन्द्रगुप्त का यह कीर्तिस्थल रहे. सिंहपुर, पाँवटा साहिब से उत्तर-पूर्व की ओर यमुना-टोंस से दायीं ओर के राज्य को माना गया है. एक अन्य प्रशस्ति, जो पाँचवीं शती की है, में छागलेश राजा जयदास के वंशजों जयदास, गुरेश, अचल, छागलेस दास, रुद्रेशदास, अजेश्वर छागलेश अथवा छागलेश केतु का वर्णन मिलता है यह प्रशस्ति अधिकांशतः क्षतिग्रस्त है.

मन्दिर की दांयीं ओर विशाल चबूतरा है. यह जमीन से काफी ऊपर उठा हुआ है तथा पत्थरों से निर्मित है, इसके मध्य एक वृहद् शिवलिंग यह है. ठीक इसके पीछे दो मानव-मूर्तियाँ चबूतरे पर खड़ी हैं, जिनका मुख प्रांगण की दीवार व पीठ मन्दिर की ओर है. इनके एक हाथ में गदा तथा दूसरे हाथ जंघाओं पर रखे हुए हैं. सिर पर मुकुट सुशोभित हैं, गले में मोतियों की माला है. मान्यता यह है कि यह भीम व अर्जुन हैं. इसी से आगे चल कर पुरातत्व विभाग का संग्रहालय है, जिसमें विभिन्न प्रकार की मूर्तियाँ हैं, जो प्रायः बन्द ही रहता है. यहाँ समय-समय पर मूर्तियों की चोरी की घटनाएँ होती रहती हैं. इसके बावजूद सुरक्षात्मक व्यवस्थाएँ नगण्य हैं. अधिकांश मूर्तियाँ लोगों द्वारा उपलब्ध करवाई गई हैं. कुछ समय पूर्व पुरातत्व विभाग द्वारा इस परिसर में खुदाई के प्रयास किये थे, जिस पर वहाँ मन्दिर के अवशेष मिलने प्रारम्भ हुए, किन्तु न जाने क्यों इस कार्य को बन्द कर दिया गया.

मन्दिर परिसर से लगभग 150 मी. की दूरी पर एक चमकीला शिवलिंग है, जिसके ऊपर पानी डालने पर अपना प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है. इस शिवलिंग की उत्पत्ति के सन्दर्भ में भी एक कहानी है कि इस स्थान पर कुछ समय पहले गाँव का कोई व्यक्ति भवन बनाने के लिए समतलीकरण कर रहा था तो स्वप्न में भगवान शिव प्रकट हुए. उन्होंने उस व्यक्ति से कहा कि फ्जिस स्थान को तुम खोद रहे हो, वहाँ पर मेरा स्थान है, जब उस व्यक्ति ने वहाँ पुनः खोदना प्रारम्भ किया, तो उसे बैंगनी रंग का दुर्लभ शिवलिंग प्राप्त हुआ. वर्तमान में एक स्वामी जी इसकी देख-रेख करते हैं. पुरातत्व विभाग द्वारा यहाँ तक पहुँचने के लिए भी कंकरीट-सीमेन्ट के मार्ग का निर्माण करवाया गया है किन्तु चकराता मार्ग से जुड़े इस मार्ग पर गन्दगी का साम्राज्य है. झाड़ियाँ रास्ते को दबा रही हैं. यहाँ कोई दिशा-चिन्ह भी नहीं है.

चकराता-लाखामण्डल मार्ग पर खाला पार कर पहाड़ी पर दो बड़ी गुफाएँ हैं. देख-रेख के अभाव में ये क्षत-विक्षत है. गुफाएँ मिट्टी व पत्थर से इस प्रकार निर्मित हैं कि एक टुकड़ा तक निकालना कठिन कार्य है. यहाँ से लाखामण्डल सहित यमुना पार के अनेक स्थलों का नयनाभिराम अवलोकन किया जा सकता है. लाखामण्डल में वर्ष भर स्थानीय लोगों द्वारा कई मेले/त्यौहार मनाये जाते हैं. यहाँ आयोजित किया जाने वाला बिस्सू मेला यमुना घाटी में काफी प्रसिद्ध है. यह बोन्दर पट्टी ;खतद्ध के लोगों द्वारा 15 अप्रैल के दिन आयोजित होता है. खत के सभी गाँव ढोल-बाजे के साथ यहाँ उपस्थित होते हैं. समय-समय पर लोगों को खुदाई-जुताई करते समय सिक्के व मूर्तियाँ प्राप्त होती रहती हैं.

लाखामण्डल ऐतिहासिक, पुरातात्विक महत्व का स्थान होने के बावजूद पुरातत्व विभाग व पर्यटन विभाग द्वारा इसके उचित संरक्षण व प्रचार-प्रसार के लिए व्यापक प्रयास नहीं किये गए. यहाँ उपलब्ध मूर्तियाँ स्थानीय लोगों द्वारा ही अधिकांशतः उपलब्ध करवाई गई हैं. पर्यटकों को यदि कहीं ठहरना हो तो नौगाँव, बड़कोट या मसूरी-चकराता की ओर रुख करना होगा. अल्प समय में यहाँ का अध्ययन करना भी सम्भव नहीं है. सरकार के सम्बन्धित विभागों को चाहिए कि भिन्न स्थानों पर दिशा-चिन्ह स्थापित करें. पर्यटकों को किसी प्रकार की कोई समस्या न हो. पर्यटन आवास-गृह का निर्माण किया जाय. यहाँ का उचित प्रचार-प्रसार हो तथा स्थानीय निवासियों के हितों की अनदेखी किये बगैर यहाँ के विकास का खाका तैयार किया जाय.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पहाड़ के सरोकारों से जुड़े हैं)

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