पर्यावरण की रक्षा राष्ट्रधर्म है

विश्व पर्यावरण दिवस (5 जून) पर विशेष

  • डॉ. मोहन चन्द तिवारी

5 जून को हर साल ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाने का खास दिन है. पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से स्वीडन स्थित स्टॉकहोम में विश्व भर के देशों का पहला पर्यावरण सम्मेलन 5 जून, सन् 1972 को आयोजित किया गया था, जिसमें 119 देशों ने भाग लिया और पहली बार एक ही पृथ्वी के सिद्धान्त को वैश्विक धरातल पर मान्यता मिली. इसी सम्मेलन में ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम’ (यूएनईपी) का भी जन्म हुआ. तब से लेकर प्रति वर्ष 5 जून को भारत में भी ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ मनाया जाता है तथा प्रदूषण एवं पर्यावरण की समस्याओं के प्रति आम जनता के मध्य जागरूकता पैदा की जाती है.पर चिन्ता की बात है कि अब ‘पर्यावरण दिवस’ का आयोजन भारत के संदर्भ में महज एक रस्म अदायगी बन कर रह गया है.

दुनिया के तमाम देश भी ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से चिन्तित तो नज़र आते हैं‚ किन्तु इस समस्या से निपटने के लिए ये देश कोई ठोस उपाय नहीं निकाल पाए हैं. हाल ही के वर्षों में पृथ्वी के पर्यावरण तथा ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के सम्बन्ध में पर्यावरणवादी संस्थाओं ने जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की रिपोर्टें दी हैं वे भारत के लिए तो बेहद चिंताजनक हैं.

‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम’ (यूएनईपी) की एक रिपोर्ट के अनुसार हिमालय क्षेत्र के हिम ग्लेशियर जिस तेजी से पिघल रहे हैं उसके कारण 21वीं सदी के अन्त तक भारत और पड़ोसी देशों की नदियां पानी न मिलने के कारण सूख जाएंगीं. उधर ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ी एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार ‘युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल’, लंदन के वैज्ञानिक शोधकर्ताओं ने भी चिन्ता जतलाई है कि वायुमंडल में तापवृद्धि के कारण अंटार्कटिका में बर्फ की निचली परत इतनी तेजी से पिघल रही है,जिसकी वजह से पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में भारी परिवर्तन आ रहा है. अंटार्कटिका की बर्फ 2009 तक लगभग स्थिर रही थी लेकिन बीते वर्षों में अचानक हर वर्ष चार मीटर पिघलने के कारण तापमान में बेतहाशा वृद्धि हो रही है तथा समुद्र का जल गर्म होता जा रहा है. इस जलवायु परिवर्तन के कारण संकेत ये भी मिल रहे हैं कि तापमान में वृद्धि के परिणाम स्वरूप पृथ्वी का समूचा वृष्टिचक्र गड़बड़ा सकता है‚ समुद्र का जल स्तर बढ़ सकता है और नदियां जलविहीन हो सकती हैं.

‘केन्द्रीय भूजल बोर्ड’ के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 20 वर्षों में राजधानी दिल्ली का भूमिगत जलस्तर 8 मीटर से भी ज्यादा नीचे चला गया है तथा यह जलस्तर एक फुट अर्थात् 30 से.मी.वार्षिक की औसत दर से कम हो रहा है जो दिल्लीवासियों के लिए विशेष चिन्ता का विषय है.

एक अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘आईसीआरएस’ में भी देश विदेश के वैज्ञानिकों ने ग्लोबल वार्मिंग पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा है कि विश्व में 33 से.मी. प्रति वर्ष की दर से भूजल का स्तर गिर रहा है और वह जल रिचार्ज नहीं हो रहा. ‘केन्द्रीय भूजल बोर्ड’ के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 20 वर्षों में राजधानी दिल्ली का भूमिगत जलस्तर 8 मीटर से भी ज्यादा नीचे चला गया है तथा यह जलस्तर एक फुट अर्थात् 30 से.मी.वार्षिक की औसत दर से कम हो रहा है जो दिल्लीवासियों के लिए विशेष चिन्ता का विषय है.

आज भारत सहित समूचे वैश्विक धरातल पर जल‚ जंगल और जमीन जैसे मूलभूत प्राकृतिक संसाधनों का इतनी निर्ममता से संदोहन किया जा रहा है‚ जिसके कारण प्राकृतिक जलचक्र गड़बड़ा गया है.भारत के लगभग अस्सी प्रतिशत गांव कृषि एवं पेयजल के लिए आज भी भूमिगत जल पर ही निर्भर हैं परन्तु बढ़ती आबादी तथा व्यावसायिक योजनाओं के कारण जल की मांग बढ़ती जा रही है तथा जलापूर्ति के स्रोत दिन-प्रतिदिन घटते जा रहे हैं.

हमारे लिए चिन्ता का विषय यह है कि पर्यावरण विज्ञान का एक गौरवशाली इतिहास रखने वाला भारत जैसा देश भी विश्व पर्यावरण सम्मेलनों में ग्लोबल वार्मिंग की समस्या का सही मायने में निदान और समाधान रखने में असमर्थ रहा है.

ग्लोबल वार्मिंग तथा जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न होने वाले इस संकट की समस्या का समाधान करने का कोई उपाय आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी के पास भी नहीं है क्योंकि इसी प्रौद्योगिकी ने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन द्वारा ग्लोबल वार्मिंग की परिस्थितियां उत्पन्न करके इस संकट को गहराया है. किन्तु हमारे लिए चिन्ता का विषय यह है कि पर्यावरण विज्ञान का एक गौरवशाली इतिहास रखने वाला भारत जैसा देश भी विश्व पर्यावरण सम्मेलनों में ग्लोबल वार्मिंग की समस्या का सही मायने में निदान और समाधान रखने में असमर्थ रहा है.

तपोवन संस्कृति का पुरोधा और नदियों तथा वृक्षों की उपासना करने वाला हमारा यह देश भारत पर्यावरण के प्रति कितना उदासीन और संवेदन शून्य हो चुका है‚ इसका अन्दाजा तो इन्हीं समस्याओं से लगाया जा सकता है कि आज हमारे पास पीने के शुद्ध जल और सांस लेने के लिए शुद्ध हवा का सर्वथा अभाव है. नदियों के प्रदूषण ने एक ज्वलंत समस्या का रूप धारण कर लिया है.मोक्षदायिनी गंगा आज प्रदूषण से खुद मोक्ष पाने की राह देख रही है.गंगा को पुराणों और धर्मशास्त्रों में पतित पावनी और पुण्यसलिला अवश्य कहा गया है, मगर असलियत यह है कि आज गंगा न तो मोक्षदायिनी है, न पतितपावनी है और न पुण्यसलिला.नगरों और फैक्ट्रियों के कूड़े कचरे ने इसके जल को बुरी तरह से प्रदूषित कर दिया है. पर्यावरण के रक्षक जंगल कटते जा रहे हैं और जल के प्राकृतिक स्रोत नष्ट हो रहे हैं. भारत की अस्सी प्रतिशत आबादी जो कभी गांवों में रहती थी अब वह शहरों की ओर पलायन कर चुकी है जिसकी वजह से गांवों के अधिकांश खेत-खलिहान‚पशु-चरागाह और वन-प्रान्त नष्ट हो चुके हैं.

‘विश्व पर्यावरण दिवस’ के अवसर पर पर्यावरण विकृति के इन खतरनाक संकेतों को गम्भीरता से समझने और इनका समाधान खोजने की भी आज बहुत बड़ी जरूरत आ पड़ी है. बाढ़, सूखा,भूकम्प तूफान,आदि प्राकृतिक आपदाएं पिछले अनेक वर्षों से लगातार यह चेतावनी देती आ रहीं हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए यदि तुरन्त कोई उपाय नहीं किए गए तो सभी प्राणधारी जीवों सहित आज पृथ्वी का अस्तित्व संकट में पड़ सकता है. पर्यावरण की इन नई पैदा हुई समस्याओं से निपटना इसलिए भी आज आवश्यक है ताकि मानव अस्तित्व को बचाया जा सके और पर्यावरण विकृति के संकट से प्राणिमात्र को आश्रय देने वाली पृथ्वी के पर्यावरण की भी सुरक्षा हो सके.

भारत की अस्सी प्रतिशत आबादी जो कभी गांवों में रहती थी,अब वह शहरों की ओर पलायन कर चुकी है. खेत-खलिहान‚ पशु-चरागाह और वन-प्रान्त नष्ट होते जा रहे हैं. बाढ़, सूखा‚ भूकम्प‚ तूफान आदि प्राकृतिक आपदाएं पिछले अनेक वर्षों से यह चेतावनी देती आ रहीं हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए यदि तुरन्त कोई उपाय नहीं किए गए तो सभी प्राणधारी जीवों सहित समूची पृथ्वी का अस्तित्व ही संकट में पड़ सकता है.

पश्चिम में पृथ्वी दिवस के रूप में पर्यावरण संरक्षण तथा पृथ्वी बचाओ का आन्दोलन आज से 50 वर्ष पहले 1970 में शुरु हुआ है किन्तु भारत एक ऐसा देश है जिसने आठ हजार वर्ष पहले पर्यावरण संरक्षण को ‘राष्ट्र धर्म’ बना दिया था. ‘ऋग्वेद’ में ‘धर्म’ की जो सनातन परिभाषा दी गई है उसके अनुसार कोई भी राष्ट्र यदि अपना भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास चाहता है तो उसे सर्वप्रथम ब्रह्माण्ड को संचालित करने वाले ‘ऋत’ एवं ‘सत्य’ नामक प्रकृति के नियमों तथा संसाधनों की रक्षा को अपना प्रधान ‘धर्म’ मानना होगा-

“तानि धर्माणि प्रथमान्यासन”
-ऋग्वेद‚ 10.90.16

दरअसल‚ धरती को माता और द्युलोक को पिता मानने का पर्यावरणवादी विचार उसी ‘भारतराष्ट्र’ के अनुयायियों का हो सकता है जो स्वरूप से प्रकृतिमूलक हो. वस्तुतः अपने देश को तथा अपनी जन्मभूमि को मातृतुल्य मानने की अवधारणा का विकास ऋग्वेद के काल में इसी प्रयोजन से हुआ था ताकि पृथ्वी के पर्यावरण की मातृभाव से रक्षा हो सके.देश को मातृभूमि मानने की अवधारणा से देश के प्रति रागात्मक सम्बन्ध मजबूत होते हैं और एक ही धरती माता के उदर से उत्पन्न होने वाले (पृश्निमातरः) लोग आपसी भेदभावों को भुलाते हुए ‘राष्ट्र’ को पृथिवी माता’ मानकर  देश के विकास में जुट जाते हैं. ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में ‘पृथिवी माता’ का यह विचार बार बार  दोहराया गया है-

“बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयम्”
                 -ऋग्वेद‚ 1.164.33

अथर्ववेद के ‘पृथिवीसूक्त’ में वैदिक राष्ट्रवाद को पूर्ण अभिव्यक्ति मिली है. अथर्ववेद के अनुसार जिस देश में जो लोग रहते हैं उनके लिए वह देश मातृभूमि के तुल्य वन्दनीय है. जिस तरह माता के रक्तमांस आदि से बच्चे का शरीर बनता है उसी तरह मातृभूमि में उत्पन्न होने वाले अनाज‚ पानी‚ हवा और वनस्पतियों से समस्त देशवासियों का पालन पोषण होता है तथा उनमें पर्यावरण विज्ञान की राष्ट्रीय चेतना भी विकसित होती है. इसी कारण से अथर्ववेद में भूमि को माता तथा वहां के निवासी को उसका पुत्र बताया गया है-

“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः”
-अथर्ववेद‚ 12.1.12

‘भारतराष्ट्र’ की अवधारणा से जुड़ा ‘वन्दे मातरम्’ का विचार भी इसी अथर्ववेद के ‘पृथिवीसूक्त’ से उपजा विचार है. मगर आज विडम्बना यह है कि हमारे आधुनिक नेता ‘वन्दे मातरम्’ की रट लगाते हुए स्वयं को राष्ट्रवादी सिद्ध करने में तो लगे रहते हैं किन्तु वैदिक कालीन ‘भारतराष्ट्र’ और ‘वन्दे मातरम्’ के मूल विचार को व्यावहारिक धरातल पर राजधर्म का अंग बनाने में उनकी कोई रुचि नहीं.

केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें चिंता इस बात की भी होनी चाहिए कि भारत की अस्सी प्रतिशत आबादी जो कभी गांवों में रहती थी,अब वह शहरों की ओर पलायन कर चुकी है. खेत-खलिहान‚ पशु-चरागाह और वन-प्रान्त नष्ट होते जा रहे हैं. बाढ़, सूखा‚ भूकम्प‚ तूफान आदि प्राकृतिक आपदाएं पिछले अनेक वर्षों से यह चेतावनी देती आ रहीं हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए यदि तुरन्त कोई उपाय नहीं किए गए तो सभी प्राणधारी जीवों सहित समूची पृथ्वी का अस्तित्व ही संकट में पड़ सकता है. पर चिंता की बात है कि पर्यावरण विकृति के इन खतरनाक संकेतों को समझने और इनका समाधान खोजने की चिंता न तो केंद्र सरकार को है और न ही राज्य सरकारों को.

चिंता इस बात की भी होनी चाहिए कि भारत जैसे देश में जहां वृक्षों की पूजा होती है तथा जल संरक्षण की दृष्टि से जिनकी अहम भूमिका मानी जाती है वहां आज केवल ग्यारह प्रतिशत वन क्षेत्र ही सुरक्षित रह गए हैं. जबकि यूरोप,अमेरिका,आदि विकसित देशों में आज भी तीन गुना और चार गुना ज्यादा वन क्षेत्र सुरक्षित हैं.

केवल ‘वन्दे मातरम्’ का नारा देकर हम पृथ्वी माता के पर्यावरण की रक्षा नहीं कर सकते. इसके लिए पर्यावरण मूलक विकास योजनाओं को ‘राष्ट्रधर्म’ बनाने की जरूरत है ताकि विकास के नाम पर जो प्राकृतिक  संसाधनों का निर्ममतापूर्ण दोहन हो रहा है उस पर अंकुश लगाया जा सके.

चिंता इस बात की भी होनी चाहिए कि भारत जैसे देश में जहां वृक्षों की पूजा होती है तथा जल संरक्षण की दृष्टि से जिनकी अहम भूमिका मानी जाती है वहां आज केवल ग्यारह प्रतिशत वन क्षेत्र ही सुरक्षित रह गए हैं. जबकि यूरोप,अमेरिका,आदि विकसित देशों में आज भी तीन गुना और चार गुना ज्यादा वन क्षेत्र सुरक्षित हैं. सूखा‚ बाढ़ और नदियों के गिरते जलस्तर से राहत पाने के लिए कटे हुए वृक्षों और वनों को फिर से उगाना होगा. ये वृक्ष और जंगल भूमिगत जल स्तर को ऊपर उठा सकते हैं तथा ग्लोबल वार्मिंग के प्रकोप को भी शान्त कर सकते हैं.

दरअसल,भूमि को माता मानने के विचार का सर्वप्रथम जन्म देवभूमि हिमालय की गिरि कन्दराओं में हुआ,जिसका प्रयोजन मातृभूमि के पर्यावरण की रक्षा करना था. यह नदियों, जलस्रोतों और वृक्ष आदि वनसंपदा का मातृभाव की भावना से संरक्षण करने का विचार भी था. किंतु आज उत्तराखंड हिमालय की इस देवभूमि में जिस प्रकार अन्धविकासवाद की योजनाओं द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का निर्ममता से दोहन हो रहा है और पहाड़ों के विस्फोटन से जल, जंगल और जमीन खतरे में हैं,उनका सर्वाधिक ख़ामियाज़ा भी यहां रहने वाले  पहाड़ के लोगों को ही भुगतना पड़ रहा है.

इतिहास साक्षी है कि मैसोपोटामिया‚ हडप्पा तथा महाभारतयुगीन उन्नत सभ्यताएं भी केवल इसलिए विनष्ट हो गईं क्योंकि अपने युग की पर्यावरण विकृतियों से बचने का सुरक्षा कवच उन विकसित सभ्यताओं के पास नहीं था.

शुक्ल यजुर्वेद में प्रतिपादित राष्ट्र विषयक परिकल्पना में सर्वाधिक चिन्ता प्राकृतिक पर्यावरण के प्रति प्रकट की गई है जिसमें कहा गया है कि हमारे राष्ट्र में समय समय पर आवश्यकता के अनुसार मेघों की वर्षा होती रहे. हमारा राष्ट्र फल‚औषधि एवं अन्न से भरपूर होकर ‘योगक्षेम’ अर्थात् खुशहाली देता रहे –

“निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु
फलवत्यो नः ओषधयः पच्यन्तां
योगक्षेमो नः कल्पताम्”
                              -यजुर्वेद‚ 22.22

वर्तमान पर्यावरण संकट की ग्लोबलवार्मिंग जैसी चेतावनियों को देखते हुए पृथ्वी रक्षा के  पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी वैदिक चिन्तन को आज पुनः ताजा करने की आवश्यकता है ताकि भारत ही नहीं समूचे विश्व के पर्यावरण की रक्षा की जा सके तथा धरती को ग्लोबल वार्मिंग की विभीषिका से बचाया जा सके. इतिहास साक्षी है कि मैसोपोटामिया‚ हडप्पा तथा महाभारतयुगीन उन्नत सभ्यताएं भी केवल इसलिए विनष्ट हो गईं क्योंकि अपने युग की पर्यावरण विकृतियों से बचने का सुरक्षा कवच उन विकसित सभ्यताओं के पास नहीं था.

वैदिक चिन्तन हमें प्रकृति के साथ जीने तथा उसके साथ तादात्म्य स्थापित करने की एक ऐसी पर्यावरण दृष्टि प्रदान करता है जिसके अन्तर्गत स्वर्ग लोक,अन्तरिक्ष लोक,पृथिवी लोक के पर्यावरण की शांति के साथ-साथ वनस्पति जगत्‚ देव जगत् आदि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की पर्यावरण शान्ति का शुभ संकल्प संन्निहित है. वैदिक धर्म के अनुयायी आज भी इस विश्व पर्यावरण की शान्ति का पाठ प्रतिदिन करते हैं-

“द्यौः शान्तिः अन्तरिक्षं शान्तिः
पृथिवी शान्तिरापः शान्तिः‚
ओषधयः शान्तिः. वनस्पतयः
शान्तिः  विश्वेदेवाः शान्तिः‚
ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः
शान्तिरेव शान्तिः सा मा
शान्तिरेधि.”
           -यजुर्वेद‚ 36.17

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)

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