- भुवन चन्द्र पन्त
जब स्त्री व पुरूष वैवाहिक सूत्र में बंधते हैं तो सनातन संस्कृति में इसे जन्म-जन्मान्तर का बन्धन अथवा सात जन्मों का बन्धन कहा जाता है. अगर कोई ये कहे कि हां, यह बात शत-प्रतिशत सही है तो संभव है कि उसे दकियानूसी ठहरा दिया जाय.
वर्तमान दौर वैज्ञानिक सोच का है, जब तक हम कारण व परिणाम पर तसल्ली नहीं कर लेते, उसे यों ही स्वीकार नहीं करते. वस्तुतः होना भी यहीं चाहिये, किसी भी विचार अथवा परम्परा को बिना तथ्यों व तर्कों के स्वीकार कर लेना कोई बुद्धिमानी भी नहीं है. लेकिन ये भी सच है कि सनातन संस्कृति की सभी अवधारणाऐं शोधपूर्ण एवं विज्ञानपरक एवं तार्किक हैं. ये बात अलग है कि हमने उनकी गहराइयों में न जाकर और मर्म को जाने बिना अपनी परम्परा का हिस्सा बना लिया. यही कारण है कि आज के युवा आनुवंशिकी के जनक ग्रेकर जॉन मेंडल के सिद्धान्तों पर तो विश्वास करते हैं, जिन्होंने उन्नीसवीं सदी में आनुवंशिकी का प्रतिपादन किया, लेकिन हमारे पुरखों ने हजारों-हजार साल पहले ही इस ज्ञान के आधार पर जो नियम बनाये, वे हमें बुर्जुवा अथवा दकियानूसी लगने लगते हैं. सनातन संस्कृति में गोत्र की अवधारणा एक ऐसी ही व्यवस्था है, जिसका किसी धर्म अथवा मजहब से कोई वास्ता नहीं है. दूसरे धर्मावलम्बियों का भी निश्चित रूप से कभी कोई न कोई गोत्र रहा होगा, लेकिन उन्होंने इसका अनुपालन ही नहीं किया तो आज उनके गोत्र का दूसरे गोत्र से घालेमेल के बाद कोई गोत्र ही नहीं रहा, जब कि सनातन संस्कृति जो गोत्र परम्परा में विश्वास करती है, आज भी गोत्र हमारी मान्यताओं का एक अभिन्न हिस्सा है. गोत्र परम्परा ही है कि हमें आज भी पता है कि हम किस ऋषिकुल कक वंशज हैं.हमारी
सनातन संस्कृति में गोत्र की छानबीन मुख्य रूप से विवाह के रिश्तों को तय करने में होती है. शादी की रस्म में भी गोत्राचार के माध्यम से पुरोहित
वर्ग अपने अपने पक्ष के यजमान का गोत्र, प्रवर, शाखा तथा किस वेद के अध्ययनकत्र्ता हैं, इसका स्पष्ट उल्लेख करता है. निम्न गोत्राचार का मंत्र द्रष्टव्य है, जब “किं गोत्रस्य, किं प्रवरस्य, किं शाखिनः,किं वेदाध्यायियनः, किं शर्मणः (यदि यजमान ब्राह्मण हो अन्यथा किं बर्मण) प्रपौत्री, किं गोत्रस्य, किं प्रवरस्य, किं शाखिनः,किं वेदाध्यायियनः, किं शर्मणः पौत्री , किं गोत्रस्य, किं प्रवरस्य, किं शाखिनः,किं वेदाध्यायियनः, किं शर्मणः पुत्री ,किं नाम्नी वराभिलाषिणी श्री रूपिणीम आयुष्मती कन्याम्?” धूल्यर्घ के समय दोनों पक्षो के पुरोहितों द्वारा एक दूसरे पक्ष से पूछा जाता है तथा परस्पर एक दूसरे को गोत्रादि का परिचय दिया जाता है.विवाह
गोत्र हमारी
एक पहचान है कि हम किस ऋषिकुल की वंश परम्परा के अंश हैं. प्रारम्भ में चार ऋषियों- अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगुं गोत्रों का प्रारम्भ हुआ और बाद में जमदग्नि, अत्रि, विश्वामित्र और अगस्त्य भी इस परम्परा में जुड़ गये. कालान्तर में जिस ऋषि परम्परा में जो श्रेष्ठ ऋषि हुए उनके नाम पर भी गोत्र का नाम दिया गया. इस प्रकार वर्तमान में कुल 115 गोत्र माने जाते हैं.
धार्मिक
किसी धार्मिक अनुष्ठान के समय भी उपासक के नाम आदि सहित गोत्र का उल्लेख आवश्यकीय माना गया है. इससे व्यक्ति विशेष अपनी पहचान
तो कर्मकाण्ड के समय उजागर करता ही है और इसका एक लाभ ये भी है कि हर पूजा कार्य में गोत्र का स्मरण होने से आने वाली पीढ़ियों को अपने गोत्र की जानकारी रहती है. यह बात और है कि अपनी संस्कृति के प्रति आज के युवावर्ग में जिस तरह उदासीनता नजर जाती है, हो सकता है कि आने वाली पीढ़ियां अपनी गोत्र की जानकारी से भी वंचित हो जाय.वैश्य
गोत्र हमारी एक पहचान है कि हम किस ऋषिकुल की वंश परम्परा के अंश हैं. प्रारम्भ में चार ऋषियों- अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगुं गोत्रों का
प्रारम्भ हुआ और बाद में जमदग्नि, अत्रि, विश्वामित्र और अगस्त्य भी इस परम्परा में जुड़ गये. कालान्तर में जिस ऋषि परम्परा में जो श्रेष्ठ ऋषि हुए उनके नाम पर भी गोत्र का नाम दिया गया. इस प्रकार वर्तमान में कुल 115 गोत्र माने जाते हैं. अधिकांश लोग गोत्र को ऋषियों के वंशज से जोड़ते हैं, जब कि कुछ का यह भी मानना है कि जिस ऋषिकुल परम्परा से जिसने शिक्षा-दीक्षा ली, उन्हीं के नाम पर अपना गोत्र वरण किया. लेकिन इसमें पहले वाली अवधारणा ही अधिक तर्कसंगत प्रतीत होती हैं, हां , जिन ऋषियों की सन्तानें न थी, उस दशा में दूसरी अवधारणा भी स्वीकार की जा सकती है. अतः किसी न किसी रूप में हमारे आदिपुरुष ये ऋषि ही रहे.शूद्र
मेंडल ने आनुवंशिकी का सिद्धान्त दुनियां को उन्नीसवीं सदी में दिया, लेकिन गर्व कीजिए भारतीय सनातन परम्परा के मनीषियों को जिन्होंने
आज से हजारों- लाखों साल पहले इस रहस्य को जान लिया था और गोत्र परम्परा की शुरूआत् की. इसीलिए सगोत्रीय विवाह वर्जित माना गया. इसका कोई धार्मिक एवं आध्यात्मिक आधार हो न हो लेकिन विशुद्ध वैज्ञानिक आधार तो है ही.
एवं
संस्कृत में पुत्र व पुत्री को आत्मज अथवा आत्मजा कहा जाता है. आत्म+ज अथवा आत्म+जा , यानी आत्म (अपने को) पुनः ज अथवा जा (जन्म देना ).
पुत्र अथवा पुत्री को जन्म देकर एक तरह से माता-पिता अपने ही प्रतिरूप को पुनः जन्म देते हैं. गोत्र परम्परा भी इसी अवधारणा की उपज है. मेंडल ने आनुवंशिकी का सिद्धान्त दुनियां को उन्नीसवीं सदी में दिया, लेकिन गर्व कीजिए भारतीय सनातन परम्परा के मनीषियों को जिन्होंने आज से हजारों- लाखों साल पहले इस रहस्य को जान लिया था और गोत्र परम्परा की शुरूआत् की. इसीलिए सगोत्रीय विवाह वर्जित माना गया. इसका कोई धार्मिक एवं आध्यात्मिक आधार हो न हो लेकिन विशुद्ध वैज्ञानिक आधार तो है ही. हालांकि इसके पीछे के कारणों को न जानते हुए हम इसे परम्परा के रूप में ढोना हमारी अज्ञानता है. इसके बावजूद भी आज तक हम इन परम्पराओं का निर्वाह कर रहे हैं, यही सनातन धर्म की खूबी है.क्षत्रिय

आनुवंशिंकी के जीवविज्ञानी सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक जीव में गुणसूत्रों होते हैं जो उनकी होने वाली सन्तान में हस्तान्तरित होते हैं. मनुष्य में ऐसे गुणसूत्रों की संख्या 46 मानी गयी है, जो 23 युग्मों (जोड़ों) में होती है. 22 युग्म यानी 44 गुणसूत्र तो स्त्री व पुरूष में समान होते हैं,
समजात अथवा. Autosomes कहे जाते हैं, लेकिन 23वां युग्म विषमजात अथवा Heterosomes कहलाता है, इसी के आधार पर लिंग निर्धारण होता है. स्त्रियों में यह युग्म X X और पुरूषों में X और Y होता है. जब पत्नी का गुण सूत्र X पति के X गुणसूत्र से मिलता है तो लड़की होगी. इस स्थिति में दोनों के गुण सूत्रों की जो गांठ बनेगी (crossover होगा), उससे 50 प्रतिशत गुणसूत्र लड़की में अपने पिता से प्राप्त होंगे जब कि 50 प्रतिशत माता से प्राप्त होंगे. यदि पत्नी का गुण सूत्र X पिता के गुण सूत्र Y से मिलेगा तो असमान गुणसूत्रों के कारण पूरी गांठ crossover नहीं होता. फलतः 95 प्रतिशत या उससे भी अधिक गुणसूत्र Y का ही रहता है. क्योंकि Y गुणसूत्र तो पिता से ही आता है, मां में तो Y गुण सूत्र होता ही नहीं और माता का गुण सूत्र 5 प्रतिशत या उससे भी कम रह जाता है. इसलिए पुत्र होने की दशा में 95 या उससे अधिक प्रतिशत पिता के गुणसूत्र होने के कारण पिता के नाम पर गोत्र का निर्धारण होता है.ब्राह्मण
एक तरह से पितृ सत्तात्मक
व्यवस्था की शुरुआत यहीं से होती है. इसीलिए गोत्र परम्परा में गुणसूत्र के आधार पर पुत्र का गोत्र चला. अब क्योंकि गुण सूत्र उसे पिता से मिला, उसके पिता को गुणसूत्र भी अपने पिता से मिला और इसी तरह हम अतीत में पहुंचते पहुंचते उस ऋषि तक पहुंच जाते हैं, जिनसे हमारा गोत्र चला. इसीलिए शादी तय करते समय गोत्र को प्रमुखता दी जाती है. यदि एक ही गोत्र के पुरूष एवं स्त्री का विवाह हो जाता है तो एक तरह से वे भाई-बहिन माने जायेंगे जो मर्यादा के भी विपरीत है. दूसरी ओर समान गोत्र के स्त्री-पुरूष से जो सन्तान होगी, वर्तमान आनुवंशिक विज्ञान की बात मानें तो समान गोत्रीय स्त्री-पुरूष से होने वाली सन्तान आनुवंशिक विकार लिये होगी, जो किसी बीमारी से ग्रस्त, मानसिक विकलांगता के रूप में भी हो सकती है. दोनों से लगभग समान गुण सूत्र मिलने से उसमें में नयापन तथा रचनात्मक का अभाव होगा.अन्य गोत्र

परिणय सूत्र में बंधते समय अग्नि के समक्ष सात फेरे कर सप्तपदी में सात वचन परस्पर स्वीकार किये जाते हैं अथवा यों कहें कि अग्नि को साक्ष्य मानकर ताउम्र उन का पालन करने की एक तरह से कसमें दी जाती हैं. साथ ही इस पवित्र रिश्ते को जन्म-जन्मान्तर अथवा सात जन्मों के
साथ का रिश्ता कहा जाता है. आइये! आनुवंशिक विज्ञान के चश्मे से देखें, ये कैसे संभव है. जैसा कि बताया गया है, कि लड़के में 95 प्रतिशत पिता के गुण सूत्र और लगभग 5 प्रतिशत मां के गण सूत्र होते हैं. शादी के उपरान्त उनका यदि पुत्र होता है, तो जैसा कि बताया गया है कि असमान गुणसूत्रों की गांठ बनने बतवेेवअमत होने पर Y गुण सूत्र 95 प्रतिशत ज्यों का त्यों रहता है, जब कि X गुण सूत्र 5 प्रतिशत ही लड़के में हस्तान्तरित होता. यही क्रम उनके पुत्र में, फिर उनके पुत्र में क्रमानुसार हस्तान्तरित होते रहता है. अर्थात जिस पुरूष व स्त्री ने लड़के को जन्म दिया, उसकी आने वाली पीढ़ियों तक माता-पिता के गुणसूत्र उन सन्ततियों में मौजूद रहेंगे, इस प्रकार माता-पिता के गुण सूत्र साथ-साथ रहेंगे. यही है जन्म-जन्मान्तर के साथ की सच्चाई.इसी तरह
पूर्व में बता चुके हैं कि लड़की होने पर 50 प्रतिशत माता के गुण सूत्र और 50 पिता के गुण सूत्र उसे मिलते हैं. उनकी पुत्री की भी यदि पुत्री होती है तो उनका हिस्सा ठीक उसका आधा यानी 25-25 प्रतिशत रह जायेगा. फिर उनकी आने वाली पीढ़ी में पुत्री होने पर उसका भी 50 प्रतिशत यानी 12.5 व 12.5 प्रतिशत रह जायेगा. इसी तरह क्षीण होते होते सातवीं पीढ़ी तक पहुंचने पर इनकी संख्या पीढ़ी दर पी़ढ़ी आधा होते होते 1 प्रतिशत से भी कम या यों कहें, कि नगण्य सी हो जाती है. यही है – पति-पत्नी के सात जन्मों के साथ का रहस्य. ये बात अलग है कि हमारी सोच गलत दिशा में जाने पर हम ये मान लेते हैं कि अगले सात जन्मों तक वही पति-पत्नी रहेंगे, जब कि सच्चाई ये है कि सात जन्मों तक सन्तानों में उनके गुण सूत्र साथ-साथ रहकर पुनः पुनः जन्म लेते रहेंगे.
गोत्र अथवा
दरअसल जिन
ऋषियों की परम्परा से गोत्र की शुरुआत हुई, उस समय समाज में वर्ण व्यवस्था थी ही नहीं. वर्ण व्यवस्था तो बाद में उसके कार्यों के आधार पर बनी. फिर उन वर्णों में भी उनके द्वारा किये गये कर्म, स्थान विशेष के वाशिन्दे होने के कारण, अथवा वैयक्तिक विशेषताओं के कारण ये वर्ण उपजातियों में बंटते गये.
गोर
इसीलिए सनातन धर्म के मनीषियों ने लड़की के पिता के गोत्र का त्याग करने को कन्यादान नाम दिया. इस शब्द में कन्या को किसी वस्तु के रूप में दान नहीं दिया जाता बल्कि दिये जाने वाले कुल में वंशवृद्धि के निमित्त दिया जाने वाला पवित्र महादान माना गया है. कन्यादान के
बाद लड़की अपने पति का गोत्र वरण कर उस परिवार की कुलवधू हो जाती है, लेकिन भौतिक शरीर में डीएनए में वह अब भी विद्यमान रहेगा ही, इसलिए मायका यानी माता का रिश्ता बना रहता है. रिश्ता तय करते समय केवल लड़का या लड़की का ही गोत्र नहीं देखा जाता ,बल्कि उभय पक्ष के ननिहाल का गोत्र का भी ध्यान रखा जाता है. क्योंकि ननिहाल से भी उसे अपनी मां के माध्यम से गुण सूत्र मिलते है. इसलिए ननिहाल तो वर्जित है ही, ननिहाल की नजदीकी बिरादरी में भी रिश्ता मान्य नहीं है. क्योंकि उनके पूर्वजों से भी गुणसूत्रों का हस्तान्तरण कमोवेश होता ही है.भारद्वाज
यही हमारे गोत्र
की वैज्ञानिक अवधारणा का सच भी है. कई लोगों के दिमाग में ये प्रश्न भी अवश्य तैर रहा होगा कि ये गोत्र तो हिन्दुओं के हर वर्णों में समान होते हैं. निःसंदेह एक ही गोत्र कई वर्णों व जातियों में समान रूप से होता है. भारद्वाज गोत्र अथवा इसी तरह अन्य गोत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र एवं वैश्य सभी वर्णों में मिल जायेंगे. अब आप सोचेगें कि ये कैसे संभव है? दरअसल जिन ऋषियों की परम्परा से गोत्र की शुरुआत हुई, उस समय समाज में वर्ण व्यवस्था थी ही नहीं. वर्ण व्यवस्था तो बाद में उसके कार्यों के आधार पर बनी. फिर उन वर्णों में भी उनके द्वारा किये गये कर्म, स्थान विशेष के वाशिन्दे होने के कारण, अथवा वैयक्तिक विशेषताओं के कारण ये वर्ण उपजातियों में बंटते गये. उपजातियों के नामों का यह क्रम सतत् जारी है. वर्तमान में जो उपजातियां हैं, संभव है कि आने वाले दिनों में उपजातियों में वैयक्तिक विशेषताओं के आधार पर पुनः नई उपजातियों का जन्म हो.चार
लेकिन विडम्बना है कि नयी
पीढ़ी के कई तथाकथित आधुनिक युवावर्ग को अपने गोत्र की जानकारी तक नहीं है और उनकी सन्तति से तो ये उम्मीद करना ही दूर की बात है. आवश्यकता है, अपनी समृद्ध गोत्र परम्परा को अक्षुण्ण रखने की, अन्यथा हमें सन्तति में आने वाली आनुवंशिक बुराई से बचने के लिए शादी से पहले जोड़े का प्रयोगशाला के माध्यम से गुणसूत्रों का परीक्षण करवाना पड़ेगा अन्यथा इससे होने वाले दुष्परिणामों को भावी पीढ़ी को भुगतना ही पड़ेगा.गोत्र
(लेखक भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल से सेवानिवृत्त हैं तथा प्रेरणास्पद व्यक्तित्वों, लोकसंस्कृति, लोकपरम्परा, लोकभाषा तथा अन्य सामयिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन के अलावा कविता लेखन में भी रूचि. 24 वर्ष की उम्र में 1978 से आकाशवाणी नजीबाबाद, लखनऊ, रामपुर तथा अल्मोड़ा केन्द्रों से वार्ताओं तथा कविताओं का प्रसारण.)