‘भारतराष्ट्र’ की पहचान है विक्रम संवत् 2080

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Hindu New Year 2023 Navratri

नव संवत्सर पर विशेष

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

आज चैत्र शुक्ल प्रतिपदा 22 मार्च 2023, बुधवार से विक्रम नव संवत्सर 2080 और शालिवाहन शक 1945 का प्रारंभ हो रहा है. इस संवत्सर का नाम ‘पिंगल’ है. इसके राजा बुध और मंत्री शुक्र होंगे.ज्योतिषगणना के अनुसार वर्ष के राजा बुध, मंत्री शुक्र,सस्येश चंद्र, मेघेश गुरु,दुर्गेश गुरु, धनेश सूर्य,रसेश बुध, धान्येश शनि,निरसेश चंद्र और फलेश गुरु रहेंगे.

अधिकमास का संवत्सर

नव संवत्सर 2080 की एक विशेषता यह रहेगी कि इसमें अधिकमास आ रहा है. यह अधिकमास श्रावण रहेगा. श्रावण अधिकमास 18 जुलाई से 16 अगस्त तक रहेगा. प्रथम शुद्ध श्रावण का कृष्ण पक्ष 4 जुलाई से 17 जुलाई तक रहेगा. शुद्ध श्रावण का शुक्ल पक्ष 17 अगस्त से 31 अगस्त तक रहेगा.

वासन्तिक नवरात्र का भी प्रारम्भ

भारतीय काल गणना पद्धति के अनुसार प्रतिवर्ष चैत्र मास के शुक्लपक्ष की जिस प्रतिपदा तिथि से नव संवत्सर विक्रम संवत् का आरम्भ होता है उसी पुण्यतिथि से वासन्तिक नवरात्र भी प्रारम्भ हो जाते हैं. हेमाद्रि के अनुसार इस दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था इसलिए इस पावन तिथि को प्रतिवर्ष नवसंवत्सर पर्व के रूप में भी मनाया जाता है-

“चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेऽहनि.
शुक्लपक्षे समग्रं तु तदा सूर्योदये सति..”

संवत्सर-चक्र के अनुसार सूर्य इस ऋतु में अपने राशि-चक्र की प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है. अभी एक सप्ताह पूर्व हमने वसंत के आगमन स्वरूप ‘फूल संक्रांति’ (फूलदेई) का पर्व मनाया है. भारतवर्ष में वसन्त ऋतु के अवसर पर नूतन वर्ष का आरम्भ मानना इसलिए भी हर्षोल्लास पूर्ण है क्योंकि इस ऋतु में चारों ओर हरियाली रहती है तथा नवीन पत्र-पुष्पों द्वारा प्रकृति का नव श्रृंगार किया जाता है. लोग इस दिन वन्दनवार,तोरण आदि से अपने घर-द्वार सजाते हैं तथा नवीन वस्त्राभूषण धारण करके ज्योतिषाचार्य द्वारा नूतन संवत्सर वर्ष का फल सुनते हैं. शास्त्र ग्रन्थों के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि के दिन प्रातःकाल स्नानादि द्वारा शुद्ध होकर हाथ में गन्ध,अक्षत,पुष्प और जल लेकर-‘ॐ भू र्भुवः स्वः सम्वत्सर-अधिपति!आवाहयामि पूजयामि च’ इस मंत्र का जप करते हुए नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिए.ऐसी मान्यता है कि नव संवत्सर के दिन नीम के कोमल पत्तों और ऋतुकाल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा,मिश्री,इमली और अजवायन मिलाकर खाने से रक्त विकार नहीं होते तथा पूरे वर्ष आरोग्य की प्राप्ति होती है.पूजन के अनन्तर नव वर्ष के विघ्नों के नाश और उसके कल्याणकारी होने के लिए ब्रह्माजी से इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए-

“भगवंस्त्वत्प्रसादेन वर्षं क्षेममिहास्तु मे.
संवत्सरोपसर्गा मे विलयं यान्त्वशेषतः..”

भारतवर्ष में इस समय देशी तथा विदेशी मूल के अनेक संवतों का प्रचलन है किन्तु भारत के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय संवत् यदि कोई है तो वह विक्रम संवत् ही है.आज से लगभग 2075 वर्ष पूर्व यानी 57 ई.पू. में भारतवर्ष के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने देशवासियों को शकों के अत्याचारी शासन से मुक्त किया था. उसी विजय की स्मृति में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से विक्रम संवत् का भी आरम्भ हुआ था.प्राचीन काल में नया संवत् चलाने से पहले विजयी राजा को अपने राज्य में रहने वाले सभी प्रजाजनों को ऋण मुक्त करना आवश्यक होता था. राजा विक्रमादित्य ने भी इसी परम्परा का पालन करते हुए अपने राज्य में रहने वाले सभी नागरिकों का राज्यकोष से कर्ज चुकाया और उसके बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से मालवगण के नाम से नया संवत् चलाया. शिलालेखों में मालव संवत् के नाम से प्रसिद्ध यही संवत् बाद में विक्रम संवत् के नाम से लोकप्रिय हो गया.धौलपुर से मिलने वाला संवत् 898 का शिलालेख सबसे पहला शिलालेख है जिसमें विक्रम संवत् का उल्लेख मिलता है. इससे पहले के सभी शिलालेख मालव संवत् के नाम से जारी किए गए थे.

दरअसल,भारतीय परम्परा में चक्रवर्ती राजा विक्रमादित्य शौर्य, पराक्रम, प्रजाहितैषी कार्यों के लिए प्रसिद्ध माने जाते हैं. उन्होंने 95 शक राजाओं को पराजित करके भारत को विदेशी राजाओं की दासता से मुक्त किया था. राजा विक्रमादित्य के पास एक ऐसी शक्तिशाली विशाल सेना थी जिससे विदेशी आक्रमणकारी खौफ खाते थे.

ज्ञान-विज्ञान,साहित्य,कला,संस्कृति व ज्योतिर्विज्ञान को विक्रमादित्य ने विशेष प्रोत्साहन दिया था. ज्योतिर्विदाभरण’ ग्रन्थ के अनुसार धन्वन्तरि जैसे महान् वैद्य,वराहमिहिर जैसे महान् ज्योतिषी और कालिदास जैसे महान् साहित्यकार विक्रमादित्य की राज्यसभा के नवरत्नों में शोभा पाते थे. प्रजावत्सल नीतियों के कारण ही विक्रमादित्य ने अपने राज्यकोष से धन देकर दीन दुःखियों को साहुकारों के कर्ज से मुक्त किया था. एक चक्रवर्ती सम्राट् होने के बाद भी विक्रमादित्य राजसी ऐश्वर्य भोग को त्यागकर भूमि पर शयन करते थे. वे अपने सुख के लिए राज्यकोष से धन नहीं लेते थे. अपने पीने के लिए जल भी वे स्वयं क्षिप्रा नदी से लाया करते थे. विक्रमादित्य के इन्हीं राष्ट्ररक्षा सम्बन्धी कृत्यों और प्रजाहितैषी नीतियों के कारण उनके द्वारा चलाए गए संवत् को राष्ट्रीय आस्थाभाव से देखा जाने लगा.

पिछले दो हजार वर्षों में अनेक देशी और विदेशी राजाओं ने अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षा  की तुष्टि करने तथा इस देश को राजनैतिक दृष्टि से पराधीन बनाने के प्रयोजन से अनेक संवतों को चलाया किन्तु ‘भारतराष्ट्र’ की सांस्कृतिक पहचान केवल मात्र विक्रमी संवत् के साथ ही जुड़ी रही है.

अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज भले ही सर्वत्र ईस्वी संवत् का बोल बाला हो और भारतीय तिथि-मासों की काल गणना से लोग अनभिज्ञ होते जा रहे हों परन्तु एक ठोस सच्चाई यह भी है कि देश के सांस्कृतिक पर्व-उत्सव तथा राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरुनानक आदि महापुरुषों की जयंतियां आज भी भारतीय काल गणना के हिसाब से मनाई जाती हैं, ईस्वी संवत् के अनुसार नहीं. विवाह-मुण्डन का शुभ मुहूर्त हो या श्राद्ध-तर्पण की पुण्य तिथि सबका निर्धारण भारतीय पंचांग पद्धति के अनुसार ही किया जाता है, ईस्वी सन् की तिथियों के अनुसार नहीं.

विक्रम संवत् को भारत का राष्ट्रीय संवत् इसलिए भी माना जाता है क्योंकि केवल यही एक ऐसा धर्मनिरपेक्ष संवत् है जो किसी धर्म या सम्प्रदाय प्रवर्तक की यादगार से नहीं जुड़ा है बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के षड् ऋतुचक्र और सूर्य के वार्षिक संवत्सरचक्र की ज्योतिषवैज्ञानिक  अवधारणाओं से अनुप्राणित है.भारतीय कालगणना के अनुसार वसन्त ऋतु और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अति प्राचीनकाल से सृष्टि प्रक्रिया की भी पुण्य तिथि रही है. ब्रह्मा के द्वारा सृष्टि निर्माण की अवधारणा हो या मत्स्यावतार और सत्ययुग के प्रारम्भ होने की तिथि, सृष्टि के आदिकाल से चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के साथ उनका कालगणनापरक सम्बन्ध रहता आया है. वसन्तु ऋतु में आने वाले वासन्तिक नवरात्र का प्रारम्भ भी सदा उसी पुण्यतिथि से होता है.विक्रमादित्य ने भारत राष्ट्र की इन तमाम सांस्कृतिक परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए ही चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से ही अपने नवसंवत्सर संवत् को चलाने की परम्परा शुरु की थी.समस्त देशवासियों को वासन्तिक नवरात्र एवं नवसंवत्सर पर्व 2080 की हार्दिक शुभकामनाएं !

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित।)

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