नीलम पांडेय नील, देहरादून
आ कौवा आ, घुघुती कौ बड़ खै जा
मैकेणी म्येर इजैकी की खबर दी जा.
आ कौवा आ, घुघुती कौ बड़ ली जा
मैकेणी म्येर घर गौं की खबर दी जा.
आ कौवा,अपण दगड़ी और लै पंछी ल्या,
सबुकैं घुघुती त्यारै की खबर दी आ.
इस बार घुघुती के प्रचलित गीत को एक नए सुर में गाना चाहती हूं, मेरी उम्र के असंख्य बच्चे जो आज खाने कमाने की दौड़ में बड़े – बड़े महानगरों में व्यस्त हो गए हैं, और व्यस्क होकर जीवन की ढलान में बढ़ रहे हैं, वे इन त्योहारों की आहट पर अपने देश, गांव लौट जाना चाहते हैं. जैसे पक्षी लौट आते हैं दूरदराज से वापस अपने देश.
घुघुती के त्योहार के दिन हम महानगरों में किसी चिड़िया को खोजने लगते हैं. कौवे को बुलाने की कोशिश करते हैं….पर वे नही दिख रहे हैं. जब हम छोटे थे ….आज के दिन असंख्य कौवे घर के आसपास घूमने लगते थे और घर की मुंडेर, आंगन में घुघुती बड़े रखते ही फुर्र से उठाकर उड़ जाते थे. चारों ओर से बच्चों में जैसे होड़ लग जाती थी, सब अपने अपने घर से कौवे को आवाज लगाकर बुलाते और कौवे के झुण्ड को देखते ही खुशी से चिल्लाते थे.
परंपरा के अनुसार माघ मास के पहले दिन घरों में लोक संस्कृति से जुड़ी घुघूती पर्व धूम-धाम से मनाया जाता है.
कुमाऊं में लोक संस्कृति से जुड़े उत्तरायणी पर्व को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता रहा हैं. हमारे लिए ये त्योहार बहुत बड़ा त्योहार होता रहा है. गांव घरों की महिलाएं दिन से ही घुघुते बनाने की तैयारी करने लगती हैं, बच्चे, बूढ़े और जवान सब घुघुती बनाने में सहयोग करते थे. पहले घुघुती बड़े कौवों के हिस्से में निकाले जाते हैं. आज के दिन खूब घुघुती बड़े बनते हैं..क्योंकि अड़ोस पड़ोस से लेकर शहर कस्बों में रहने वाले खास रिश्तेदारों तक घुघुती पहुंचाई जाती है. कई – कई दिन तक बच्चों का चाय के साथ नाश्ता भी घुघुती के बड़े ही होते थे.
मकर संक्रांति पर्व पर मनाया जाने वाला घुघुती के त्योहार में मीठे आटे में सूजी मिलाकर घुघुते, खजूरे, तलवार, डमरू चक्र आदि कई चीजें बनायी जाती हैं. घुघुते मुलायम रहें, इसमें घी के मोयन के साथ दूध, सौंफ आदि मिलाकर खूब भूरा होने तक पूरी की तरह से उन्हें तला जाता है. घुघुती का आटा गुथना मशक्कत का काम होता है. आटा थोड़ा सख्त गॅूथा जाता है, ताकि न तो वह घुघुते बनाने में टूटे और न इतना गीला हो कि तलने पर घुघुते कड़कड़े हो जायें अथवा तलने से पूर्व ही आपस में चिपकने लगें. घुघुते करारे और खसखसे बने तो बहुत स्वादिष्ट होते हैं. सुबह कौव्वौ के घुघुते खाने के बाद घुघुतों को घर में अन्य लोगों को बांटा जाता है. इस पर्व में खासकर बच्चों में अधिक उत्साह देखने को मिलता है. घुघुतों की माला में घुघुतों के अलावा पूरी, बड़ा तथा एक दाना नरिंगी का भी गच्छाया जाता है. घर के बच्चे इन घुघुतों की मालाएं बनाकर गले में लटकाते हैं और इच्छानुसार इन्हें तोड़ कर खाते रहते हैं और गाते है ….
‘काले कौवा काले घुघुति माला खा ले’.
काले कौवा काले, घुघुति माला खा ले’.
‘लै कौवा भात में कै दे सुनक थात’.
‘लै कौवा लगड़ में कै दे भैबनों दगड़’.
‘लै कौवा बौड़ मेंकै दे सुनौक घ्वड़’.
ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों की आवाज से पूरा गांव गूंज उठता है. लोग एक दूसरे के घरों में जाकर घुघुतों की मालाएं बांटकर बधाई देते हैं. इस दौरान कई जगहों पर मंदिरों व घरों में पूजा अर्चना होती है एवम् मकर संक्रान्ति के अवसर पर कुमाऊँ – गढ़वाल क्षेत्र के कई नदी घाटों एवं मन्दिरों पर उत्तरायणी मेले लगते हैं. गोमती, सरयू व अदृश्य सरस्वती संगम पर स्थित बागेश्वर में पहले यह मेला कई दिनों के लिए लगता था. नदी घाटों में पवित्र स्नान का दौर भी चलता है. उतैरणी के एक दिन पूर्व ततवाणी होती है, जिस दिन तात् पाणि यानि गर्म पानी से नहाने की परम्परा है. उतरैणी के त्योहार दिन सुबह सिवाणी यानि ठण्डे पानी से स्नान होता है. ठंडे पानी से स्नान वाले दिन से माना जाता है कि उतरैणी के दिन से ठंडे पानी का स्नान शुरू हो जाता है.
कुमाऊं के गांव, घरों में इस त्योहार से संबंधित कई कथाएं भी प्रचलित है. विश्व में पशु पक्षियों से सम्बंधित कई त्योहार मनाये जाते हैं पर कौओं को विशेष व्यंजन खिलाने का यह अनोखा त्यौहार उत्तराखण्ड के कुमाऊँ के अलावा शायद कहीं नहीं मनाया जाता है. यह त्यौहार विशेष कर बच्चो और कौओ के लिए बना है. वास्तव में हमारे पूर्वज एक समावेशित समाज की कल्पना करते थे यह हमारे त्योहारों के विभिन्न रिवाजों और परंपराओं को देखकर पता चलता है. समाज में रहने वाले प्रत्येक जीव को सोचकर उत्सव एवम त्यौहार आदि मनाए गए हैं जिनमें बच्चे, पशु पक्षी, युवा, वृद्ध जन आदि सभी को किसी न किसी तरह से शामिल किया गया है.
(लेखिका कवि, साहित्यकार एवं पहाड़ के सवालों को लेकर मुखर रहती हैं)