बाल साहित्य का स्पेस ‘मोबाइल’ की ‘स्क्रीन’ ने भर दिया

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बाल दिवस पर विशेष

प्रकाश उप्रेती

पिछले कुछ समय से हमारी दुनिया बहुत तेजी से बदली है. इस बदलाव में एक पीढ़ी जहाँ बहुत पीछे रह गई तो वहीं दूसरी पीढ़ी बहुत आगे निकल गई है. इस बदलाव में जिसने because अहम भूमिका निभाई वह मोबाइल की स्क्रीन और एक क्लिक पर सबकुछ खोज लेना का भरोसा देने वाला इंटरनेट है. आज  बाल पत्रिकाओं के मुकाबले बच्चे मोबाइल की स्क्रीन पर यूट्यूब के जरिए कहानियाँ देख रहे हैं. उनका पूरा बौद्धिक स्पेस मोबाइल और इंटरनेट तक सिमट गया है.

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हिंदी साहित्य के केंद्र में बाल साहित्य कभी नहीं रहा . हमेशा से बाल साहित्य को अगंभीर साहित्यिक कर्म के रूप में देखा गया . आज भी बाल साहित्य के अस्तित्व पर अलग से कम ही बात होती है. इसलिए कभी बचकाना साहित्य कह कर तो कभी साहित्यिक गंभीरता (जो कम ही दिखती है) के नाम पर बाल साहित्य को केंद्र because से बाहर ही रखा गया.  इसके बावजूद हिंदी में बाल साहित्य लेखन आरंभ से होता रहा . अगर बाल साहित्य पर एक नज़र दौड़ाएँ तो बाल साहित्य के रूप में हमारे यहाँ नीति-कथाओं से लेकर लोककथाओं तक का एक लंबा इतिहास रहा है जो एक ‘सीख’ के साथ-साथ बच्चों का मनोरंजन भी करता आया है.

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इन कथाओं में ‘पंचतंत्र’ एक ऐसी पुस्तक रही है जिसका संबंध  हर बचपन से जुड़ा रहा. इसके आतरिक्त मौखिक रूप से परियों की कहानियों से लेकर नानी और दादी की ‘होममेड’ किस्सों के कल्पना लोक में हर बाल मन विचरण करता आया है . ये किस्से और कहानियाँ बचपन को एक मानसिक संस्कार देती थी, because जिसमें मनोरंजन के साथ-साथ एक सीख, एक उपदेश अंतर्निहित होता था. समय के अनुसार इसमें भी परिवर्तन हुआ आज बच्चे कल्पना में नहीं बल्कि यथार्थ में विचरण करना चाहते हैं . बच्चे किसी भी बात को सहज स्वीकार नहीं करते हैं.

इस बदलाव में समय, परिस्थितियों के साथ परिवार के वातावरण की अहम भूमिका रही है. कहानी आरंभ से ही बाल साहित्य की प्रमुख विधा रही है पर आज उपन्यास से लेकर कविता, नाटक, because व्यंग्य आदि विधाओं में भी बाल साहित्य रचा जा रहा है . बाल साहित्य का प्रभाव आज बच्चों पर कितना पड़ रहा है? सूचना और विज्ञान के इस युग में बाल साहित्य की सार्थकता क्या है? कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके बारे में गंभीरता से विचार करने की जरूरत है .

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बाल साहित्य यानी बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य. साहित्य के माध्यम से बच्चों में ‘खास तरह’ का संस्कार पैदा करना बाल साहित्य का ध्येय होता है. खास तरह से आशय यहाँ बच्चों को अपनी परंपरा, संस्कृति और महानता से परिचय कराना होता है. दिविक रमेश एक आलेख में बाल साहित्य का आशय स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि- “बालसाहित्य का मूल आशय बालक के लिए सृजनात्मक साहित्य से है” लेकिन बालसाहित्य के संदर्भ में हरिकृष्ण देवसरे का मत थोड़ा अलग है, वे लिखते हैं कि- “ किसी भी बालक का मानसिक और चारित्रिक विकास को जो तत्व प्रभावित करते हैं उनमें बच्चों का अपना सामाजिक और पारिवारिक because परिवेश, माता-पिता की विचारधारा और स्कूल के वातावरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. किंतु इन सबसे अधिक पैना और गहरा प्रभाव वह साहित्य छोड़ता है जिसे वे अपना समझ कर पढ़ते हैं, जो उनकी रुचि के अनुकूल होता है, जिससे वे तादात्म्य स्थापित करते हैं और जिसमें वे अपने मन की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति पाते हैं. वस्तुत: यही साहित्य ‘बालसाहित्य’ कहलाता है. पुराने जमाने में यह बालसाहित्य अलिखित या मौखिक रूप में था”.  मूलत: बाल साहित्य वह साहित्य है जो मनोरंजन के साथ-साथ बच्चों में पठन–पाठन का संस्कार विकसित करता है.

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बालसाहित्य की आरंभिक धारा को बाल कविता के जरिए ही अपेक्षित विस्तार मिला जिसकी स्पष्ट झलक उन्नीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध काल से ही देखने को मिल जाती है. भारतेन्दु युग में हिंदी की प्रथम बाल पत्रिका ‘बाल दर्पण’ (1882) निकलती है, इसके साथ ही बाल साहित्य लेखन का आविर्भाव हिंदी में होता है. हिंदी कविता में श्रीधर पाठक से बाल कविता लेखन की शुरुआत होती है . इस दौर में श्रीधर पाठक (बाल भूगोल, भारत गीत) के अतिरिक्त बाल मुकुन्द गुप्त (खिलौना) महावीर प्रसाद द्विवेदी (बालविनोद), अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (बाल-विभव, चंद्र खिलौना) आदि ने भी बाल कविताएं लिखीं. इस युग में विद्याभूषण विभु जैसे कवि भी थे जिन्होंने ने प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य लिखा इनकी कविता ‘घूम हाथी झूम हाथी’ because बड़ी चर्चित रही है. इसके अलावा महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर आदि कवियों ने भी ‘शिशु’,  ‘बालसखा’ जैसी बाल पत्रिकाओं के माध्यम से बाल साहित्य को समृद्ध किया और उसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई . इस पूरे कालखंड की बाल कविताओं में ‘नीतिपरक’ संदर्भ अधिक देखने को मिलते हैं लेकिन समय, काल और परिस्थितियों के अनुसार बाल साहित्य के विषय और कलेवर में परिवर्तन आया. आजादी के बाद बाल साहित्य की भाषा तुतलाने की बजाय सीधे-सीधे तौर पर संवाद करने लगी और ‘नीति’ की जगह उसमें अब बच्चों की रुचि और एक नए समाज की कल्पना का समावेश दिखाई देने लगा .

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 आजादी के बाद की बाल कविता को एक दिशा देने तथा व्यापक पहचान दिलाने का काम कवि शेरजंग गर्ग ने किया. बदलती मनोवृति के अनुरूप कविता की भाषा और शिल्प में परिवर्तन बालकवि शेरजंग गर्ग की कविताओं में देखा जा सकता है. लेकिन इस पूरे परिवर्तन को अखिलेश श्रीवास्तव परिस्थितिजन्य मानते हैं और इन परिस्थितियों का बाल मन व बाल कविता से रिश्ते को कुछ ऐसे व्याख्यायित करते हैं “स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में आए व्यापक सामाजिक परिवर्तन के साथ ही बच्चों के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में भी भारी बदलाव आया. अभी तक परिवार तथा समाज में बच्चों की रुचियों तथा आवश्यकताओं को गंभीरता से because नहीं लिया जाता था. लेकिन स्वतंत्रता के बाद बच्चों के अस्तित्व को मान्यता मिली, परिवार, समाज में उनको महत्व मिलने लगा उनमें शिक्षा के प्रचार- प्रसार पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा”. इस परिवर्तन का प्रभाव बाल कविता पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. इन बदलती परिस्थितियों के साथ बाल कविता लेखन में कवि भवानीप्रसाद मिश्र का पदार्पण होता है. आजादी के बाद आपातकाल आजाद भारत की एक बड़ी घटना थी इस घटना ने समाज के सभी लोगों को प्रभावित किया . भवानी प्रसाद मिश्र को इस दौर में सत्ता का विरोधी घोषित कर जेल में डाल दिया गया. इस दौरान उन्होंने बाल कविताएं लिखी जो ‘तुकों के खेल’ नामक संग्रह में संगृहीत हैं.

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 अब तक बाल कविता बाल साहित्य की एक सशक्त विधा बन चुकी थी. बच्चे आरंभ में लोरियों और शिशुगीतों के माध्यम से कविताएं सीखते हैं. किन्तु हिंदी में अधिकांशत: जो कविताएं लिखी गई वे छोटे बच्चों को ध्यान में रख कर लिखी गई . बड़े बच्चों के लिए जो कविताएं लिखी गई हैं, वे या तो राष्ट्रीय भावना की कविताएं because रही हैं, या उन्हें कुछ सीखाने के उद्देश्य से लिखी गई थीं. बढ़ती उम्र के बच्चों यानी किशोर वय के बच्चों की मानसिकता और उनकी सोच को अभिव्यक्ति देने वाली कविताओं का नितांत अभाव रहा. भवानी प्रसाद मिश्र इस अभाव को काफी हद तक दूर करते हैं.

भवानी की नेहरू पर लिखी कविता ‘याद तुम्हारी’ हो या ‘पंद्रह अगस्त’ कविता या फिर ‘भाईचारा’ सभी बाल कविताओं में राष्ट्रीय भावना व सीख के साथ एक सोच व विज़न स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. भवानी की कविताओं के शब्दों में भी ध्वनि खनक गहरी होती है. उनकी बाल कविता ‘भाईचारा’ शब्दों के माध्यम से बाल मन पर because लंबे समय तक असर छोड़ने वाली कविता है अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,/ दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,/हाट से लौटे, ठाट से लौटे/ एक साथ एक बाट से लौटे…/  मगर एक कोई था फक्कड़/ मन का राजा, कर्रा-कक्कड़…/  उसने कहा, सही वाणी में/ डुबो चुल्लू भर पानी में/ताकत लड़ने में मत खोओ/चलो भाई-चारे को बोओ!. याद रहे यह वह कवि है जिसका उस समय की जटिल सामाजिक और राजनैतिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण दख़ल था. उन जटिल संरचनाओं के बीच से, इस तरह की बाल सुलभ और कोमल कविता भी कवि लिख रहा था जो बालकोचित भाव से पूर्ण थी. इसी से बाल साहित्य के सामर्थ्य का अंदाजा लगाया जा सकता है.

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देखा जाए तो आज के बच्चों के पास अनंत जिज्ञासाएँ हैं . वे इतना कुछ जानना चाहते हैं कि सब कुछ बता पाना शायद संभव नहीं. बच्चे वह सब कुछ जानने के लिए उत्सुक रहते हैं जो उनके आस-पास घट रहा होता है. चाहे वह चाँद पर आदमी पहुँचने की घटना हो, बलात्कार की घटना हो, दंगों की घटना या फिर विज्ञापनों के because माध्यम से दिखाई जाने वाली सामग्री के बारे में हो. इसलिए आज जरूरी है कि उन्हें बदलते परिवेश के लिए तैयार किया जाए. यह समय चंदा-मामा की कहानियों का नहीं रहा न ही ‘मोगली’ की जंगल गाथा का यह समय ‘टॉम एंड  जेरी’ से भी आगे बढ़ चुका है आज का समय ‘हथोड़ी’ और ‘छोटा भीम’ का समय है जिसके पास करामाती शक्तियाँ हैं जो बच्चों की फांतासी को बहुत दूर तक ले जाता है. इसमें भले ही बाजार की अहम भूमिका हो पर बच्चों की बदलती मानसिक संरचना को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है.

 

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