वो गाँव की लड़की

  • एम. जोशी हिमानी

गाँव उसकी आत्मा में
इस कदर धंस गया है कि
शहर की चकाचौंध भी
उसे कभी अपने अंधेरे गाँव से
निकाल नहीं पाई है
वो गाँव की लड़की बड़ी
बेढब सी है
खाती है शहर का
ओढ़ती है शहर को
फिर भी गाती है
गाँव को
उसके गमले में लगा
पीपल बरगद का बौनसाई
जब पंखे की हवा में
हरहराता है
और उसके बैठक में
एक सम्मोहन सा पैदा करता है
वो गाँव की लड़की
खो जाती है
चालीस साल पहले के
अपने गाँव में
और झूलने लगती है
अपने खेत में खड़े
बुजुर्ग मालू के पेड़ की
मजबूत बाहों में पड़े
प्राकृतिक झूलों में
अब किसी भी गाँव में
उसका कुछ नहीं है
सिवाय यादों के

वर्षों से वीरान पड़ी मेरी जन्मभूमि

वो लड़की थी
इसलिए किसी
खसरा-खतौनी में
उसका जिक्र भी नहीं है
शहर में ब्याही
वो गाँव की लड़की
अपनी साँसों में
बसाई है अब तक
काफल, बांज, चीड़-देवदार
बड.म्योल उतीस के पेड़ों को
सभी नौलों धारों गाड़-गधेरों और
बहते झरनों को
लाल-काले रसीले काफलों को
पीले रस टपकाते हिसालुओं को
सभी डानों और
बुग्यालों को
वो गाँव की लड़की
बहुत खुदगर्ज है
केवल अपनी देह को
शहर में लाई है
आत्मा अपनी
बचपन के उसी गाँव में
कहीं छोड़ आई है.

लेखिका पूर्व संपादक/पूर्व सहायक निदेशक— सूचना एवं जन संपर्क विभागउ.प्र.लखनऊ. देश की विभिन्न नामचीन पत्र/पत्रिकाओं में समय-समय पर अनेक कहानियाँ/कवितायें प्रकाशित. कहानी संग्रह-पिनड्राप साइलेंस’  ‘ट्यूलिप के फूल’, उपन्यास-हंसा आएगी जरूर’, कविता संग्रह-कसक’ प्रकाशित)

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