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साहित्य के निकष ‘अज्ञेय’

साहित्य के निकष ‘अज्ञेय’

स्मृति-शेष
अज्ञेय के जन्म दिवस पर विशेष प्रो. गिरीश्वर मिश्र रवि बाबू ने 1905 में एकला चलो की गुहार लगाई थी कि मन में विश्वास हो तो कोई साथ आए न आए चल पड़ो चाहे , खुद को ही समिधा क्यों न बनाना पड़े - जोदि तोर दक केउ शुने ना एसे तबे एकला चलो रे । हिंदी के कवि , उपन्यासकार , सम्पादक , प्राध्यापक , अनुवादक , सांस्कृतिक यात्री , और क्रांतिकारी सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन के लिए जिस ‘ अज्ञेय ‘ उपनाम को बिना पूर्वापर सोचे जैनेंद्र जी द्वारा अचानक चला दिया गया वह इनके पहचान का स्थायी अंग बन गया या बना दिया गया । प्रेमचंद जी द्वारा ‘ जागरण ‘ में प्रकाशित कहानी के लेखक के रूप में अज्ञेय नाम दिए जाने के बाद उसे हिंदी के अनेक साहित्यकारों द्वारा उसे एक विभाजक और एक क़िस्म के अनबूझ आवरण रूप में ग्रहण कर लिया गया और प्रचारित भी किया गया । यह अलग बात है कि उस आकस्मिक नामकरण ने वात्स्यायन जी के लिए जीवन ...