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वैदिक साहित्य में पितर अवधारणा और उसका उत्तरवर्त्ती विकास

वैदिक साहित्य में पितर अवधारणा और उसका उत्तरवर्त्ती विकास

साहित्‍य-संस्कृति
डॉ. मोहन चंद तिवारी पितृपक्ष चर्चा पितृपक्ष के इस कालखंड में पितर जनों के स्वरूप और उसके ऐतिहासिक विकासक्रम की जानकारी भी बहुत जरूरी है. इस लेख में वैदिक काल से लेकर धर्मशात्रों और निबन्धग्रन्थों (मध्यकाल) तक की पितर परम्परा का विहंगमावलोकन किया गया है. भारतीय चिंतन परम्परा में वैदिक काल से ही समूचे ब्रह्मांड व्यवस्था के सन्दर्भ में मुख्य रूप से तीन लोकों की परिकल्पना की गई है. ये तीन लोक हैं- देव लोक, पितृ लोक और मनुष्य लोक. देव लोक में रहने वाली दिव्यात्माओं और पितृलोक रहने वाली पितर आत्माओं से ही मनुष्य आदि की उत्पत्ति होती है और ये आत्माएं बहुत शक्तिशाली मानी जाती हैं. पक्ष, मास,ऋतुओं के कारक भी देवता और पितृगण ही माने गए हैं. पितृपक्ष में यदि पितर गण श्राद्ध कर्म से प्रसन्न हो जाएं तो अपनी संतानों को दीर्घायु,संतति, धन, यश एवं सभी प्रकार के सुख का आशीर्वाद देते हैं.चौरासी लाख योनि...