Tag: किताबें कुछ कहती हैं

गागर में सागर भरती है ज्ञान पंत की कविता

गागर में सागर भरती है ज्ञान पंत की कविता

पुस्तक-समीक्षा
कॉलम: किताबें कुछ कहती हैं… रेखा उप्रेती ज्ञान पंत जी की फेसबुक वॉल पर सेंध लगाकर कुछ ‘कणिक’ चख लिए तो ‘टपटपाट-सा’ पड़ गया. जिज्ञासा स्वाभाविक थी, ‘किताब’ कहाँ से मिलेगी!! संकेत समझ कर ज्ञान दा ने झट ‘भिटौली’ वाले स्नेह के साथ अपने दोनों काव्य-संग्रह भिजवा दिए... ‘कणिक’ और ‘बाटुइ’... कुमाउनी में रचित इन दोनों रचनाओं से गुज़रना अपने पहाड़ को फिर से जी लेने जैसा है. ज्ञान दा के भाव-बोध की जड़ें पहाड़ के परिवेश में गहरें धँसी हैं. प्रवासी-मन की पीड़ा इन कविताओं के केंद्र में है. पहाड़ में न रह पाने की पहाड़-सी पीड़ा उन्हें रह-रह कर सालती नज़र आती है. गाँव जाकर होटल में रहने की विवशता, अपने ही ‘घर’ जाने के लिए किसी बहाने की दरकार, पहाड़ के ‘अपने घर’ की राह भूल जाने और ‘अपने ही गाँव’ में भटक जाने का पछतावा, “आपनैं/ गौं में/ पौण भयूँ”, “पहाड़ में/ नि खै सक्यूँ/ मैं/ ले” की कचोट और यह बिडम्बना भी क...
आत्मकथा में बस ‘अ’ और ‘ह’ बाकी कथा

आत्मकथा में बस ‘अ’ और ‘ह’ बाकी कथा

पुस्तक-समीक्षा
कॉलम: किताबें कुछ कहती हैं… प्रकाश उप्रेती किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला, कटा ज़िंदगी का सफर धीरे-धीरे. जहाँ आप पहुँचे छ्लांगे लगाकर, वहाँ मैं भी आया मगर धीरे-धीरे.. रामदरश मिश्र जी की इन पंक्तियों से विपरीत यह because आत्मकथा है. स्वयं उनका जिक्र भी आत्मकथा में है. ज्योतिष आत्मकथा 'स्व' से सामाजिक होनी की कथा है. वर्षों के 'निज' को सार्वजनिकता में झोंक देने की विधा आत्मकथा है. बशर्ते वह 'आत्म' का 'कथ्य' हो. 20वीं सदी के मध्य हिंदी साहित्य में because अनेक चर्चित आत्मकथाएं लिखी गईं  जिनमें निजी अनुभवों के साथ–साथ एक विशिष्टता बोध भी रहा . दरअसल आत्मकथा से जिस नैतिक ईमानदारी की अपेक्षा की जाती है वह इन आत्मकथाओं में कम ही देखने को मिली. रूसो ने आत्मकथा को ‘कंफैशन्स’ नाम दिया तो उसके पीछे का भाव था, स्वीकार्य करने का साहस लेकिन हिंदी में जो भी आत्मकथाएँ खासकर  पुरुषों के द्वार...
जो मजा बनारस में, न पेरिस में, न फारस में…

जो मजा बनारस में, न पेरिस में, न फारस में…

पुस्तक-समीक्षा
कॉलम: किताबें कुछ कहती हैं... प्रकाश उप्रेती इस किताब ने 'भाषा में आदमी होने की तमीज़' के रहस्य को खोल दिया. 'काशी का अस्सी' पढ़ते हुए हाईलाइटर ने दम तोड़ दिया. लाइन- दर- लाइन लाल- पीला करते हुए because कोई पेज खाली नहीं जा रहा था. भांग का दम लगाने के बाद एक खास ज़ोन में पहुँच जाने की अनुभूति से कम इसका सुरूर नहीं है. शुरू में ही एक टोन सेट हो जाता और फिर आप उसी रहस्य, रोमांस, और औघड़पन की दुनिया में चले जाते हैं. यह उस टापू की कथा है जो सबको लौ... पर टांगे रखता है और उसी अंदाज में कहता है- "जो मजा बनारस में, न पेरिस में, न फारस में". ज्योतिष "धक्के देना और धक्के खाना, जलील करना और जलील होना, गालियां देना और गालियां पाना औघड़ संस्कृति है. अस्सी की नागरिकता के मौलिक अधिकार और कर्तव्य. because इसके जनक संत कबीर रहे हैं और संस्थापक औघड़  कीनाराम. चंदौली के गांव से नगर आए एक आप्रवासी संत....