सर्वहारा संस्कृति के ‘राष्ट्रदेवता’ शिव

महाशिवरात्रि पर विशेष

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

आज 11 मार्च के दिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की तिथि को महा शिवरात्रि का पर्व है. वर्ष में होने वाली 12 शिवरात्रियों में से फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की because महाशिवरात्रि का विशेष माहात्म्य है. माना जाता है कि इस दिन महादेव के विशालकाय स्वरूप अग्निलिंग के उदय से सृष्टि का आरम्भ हुआ. ऐसी भी लोक मान्यता रही है कि इसी दिन भगवान शिव का विवाह देवी पार्वती के साथ हुआ था. महाशिवरात्रि से संबधित कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं.इनमें से एक कथा के अनुसार महाशिवरात्रि के दिन समुद्र मंथन के समय निकले कालकूट नामक विष को भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण कर लिया था.

क्यों की जाती है शिव की पूजा अर्द्धरात्रि में

फाल्गुन मास की कृष्ण because चतुर्दशी की महाशिवरात्रि को ‘ईशानसंहिता’ में ‘महानिशा’ कहा गया है. इसी घोर अन्धकार की अर्धरात्रि में शिव करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी होकर पृथिवी से लिङ्ग रूप में प्रकट हुए थे. सभी देवताओं की पूजा प्रायः दिन में की जाती है किन्तु भगवान् शिव को रात्रि अति प्रिय है, वह भी फाल्गुन कृष्णपक्ष की घोर अन्धकारमय चतुर्दशी की रात्रि. पौराणिक मान्यता के अनुसार शिवरात्रि so के दिन शिव का पार्वती से विवाह हुआ था. महाकाल शिव की यह शक्ति भी महाकाली अथवा कालरात्रि के नाम से जानी जाती है जिसे शिव की अर्धांगिनी माना गया है. वस्तुतः शिव की रात्रिपूजा का कारण यह है कि जब संसार अन्याय और अत्याचार के घोर महानिशा काल से विचरण करता है तो धरती के उदर से प्रकट होता हुआ कोई सूर्य जैसा देव अपनी संहार शक्ति की तेजस्विता से उसे अन्धकारपूर्ण कालरात्रि से मुक्ति दिलाता है.

विश्वसंस्कृति के लोकप्रिय देव हैं शिव

सृष्टि के आदिकाल से ही शिवपूजा भारत में ही नहीं अपितु समूचे विश्व में लोकप्रिय रही है. भारत सहित मिश्र, रोम, फ्रांस, जर्मनी, इन्डो चायना आदि विश्व के अनेक देशों but तथा अनेक धर्मों के अनुयायियों के मध्य शिव लिङ्ग की पूजा-अर्चना के ऐतिहासिक अवशेष मिलते हैं. उत्तर अफ्रीका के ‘मेफिस’ और ‘अशीरिश’ नामक क्षेत्रों में नन्दी पर विराजमान तथा त्रिशूलधारी शिव की अनेक मूर्तियां हैं जिनकी वहां के लोग बेलपत्र से पूजा करते हैं और दूध से अभिषेक भी किया जाता है. इन्डो चायना में ऐसे 92 संस्कृत के अभिलेख मिले हैं जिनका प्रारम्भ ‘ऊँ नमः शिवाय’ महामन्त्र से होता है. तुर्किस्तान के बॉबीलौन नगर में विश्व का सबसे बड़ा शिवलिङ्ग विराजमान है जिसकी ऊँचाई बारह सौ फुट बताई जाती है. so रोम, युनान और मिश्र में उसी फाल्गुन मास के वसन्तोत्सव पर लिङ्ग पूजा का वार्षिक पर्व मनाया जाता था जिस मास में भारतवासी भी शिवरात्रि का पर्व मनाते हैं. पश्चिमी जगत् में लिङ्ग पूजा ‘फैल्लस वर्शिप’ के रूप में प्रचलित है. ‘फैल्लस’ की उत्पत्ति संस्कृत ‘फलेश’ से हुई है क्योंकि शिव यज्ञ, पूजा आदि फल शीघ्र देने के कारण ‘फलेश’ कहलाते हैं.

भारतीय परम्परा में शिव का स्वरूप

भारतीय परम्परा में शिव परब्रह्म, परमात्मा, रुद्र, महादेव आदि विभिन्न नामों से जाने जाते हैं. ‘शिव’ शब्द की एक व्याख्या के अनुसार अनन्त तापों से संतप्त होकर प्राणी जहां विश्राम हेतु because शयन करते हैं अथवा प्रलय की अवस्था में जगत् जिसमें शयन करता है उसे ‘शिव’कहते हैं – ‘शेरते प्राणिनो यत्र स शिवः’ अथवा ‘शेते जगदस्मिन्निति शिवः.’भगवान् राम का आविर्भाव त्रेता तथा कृष्ण का आविर्भाव द्वापर युग में होता है किन्तु शिव सृष्टि के आदिकाल से ही प्रत्येक युग में दीन-हीन, निर्बल, असहाय तथा सर्वहारा वर्ग के संरक्षक देव हैं. प्राणिमात्र के परम मित्र होने के because कारण शिव को ‘महादेव’ कहा जाता है. भारतीय देवशास्त्र में शिव ऐसे विलक्षण देव हैं जिनके आदि और अन्त का पता नहीं. उनके पास धन-ऐश्वर्य का अक्षय भण्डार है किन्तु रहने के लिए एक घर भी नहीं. शिव अर्द्धनारीश्वर होने के बाद भी कामवासना से सर्वथा शून्य हैं.अपनी आठों शक्तियों से पूरे ब्रह्माण्ड पर शासन करने के बाद भी वे श्मशानवासी हैं. शिव सरल इतने हैं कि पत्र, पुष्प और जल के अर्पण मात्र से प्रसन्न हो जाते हैं इसलिए ‘आशुतोष’ कहलाते हैं.

सर्वहारा संस्कृति के ‘राष्ट्रदेवता’ शिव

शिव भारतवर्ष की प्राचीन राष्ट्रीय संस्कृति के प्रेरक देव हैं . उत्तर में कैलाश, अमरनाथ, केदारनाथ से लेकर धुर दक्षिण में कन्या कुमारी तथा सेतुबन्ध रामेश्वरम् तक, पूर्व में असम से because लेकर पश्चिम में द्वारका तक शिव आराधना के ऐतिहासिक अवशेष मिलते हैं जिनसे सहज में ही अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रागैतिहासिक काल से लेकर आधुनिक काल तक पूरे भारतराष्ट्र में शिवपूजा का व्यापक प्रचार व प्रसार रहा है. भारत की राष्ट्रीय संस्कृति के निर्माण में केवल एक धर्म और जाति की भूमिका नहीं है बल्कि आर्य-अनार्य, देव-राक्षस, शक-यवन, because यक्ष-किन्नर, नाग-गन्धर्व आदि विभिन्न धर्मावलम्बियों और जनजातियों ने भारत की मिली-जुली, साझा संस्कृति का निर्माण करने में अहम भूमिका निभाई है पर देखने की बात यह है कि आर्य और अनार्य तथा आभिजात्य और सर्वहारा दोनों धर्म चेतनाओं को एक राष्ट्र के रूप में जोड़ने की प्रेरणा आदि देव शिव के देवत्व से ही प्राप्त होती है.

‘भारतराष्ट्र’ की पहचान हैं आदिदेव शिव

शिव भारत की राष्ट्रीय because संस्कृति में रचे-बसे अत्यन्त लोकप्रिय देव हैं. भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, तन्त्र, मन्त्र, गीत, संगीत यहां तक की व्याकरण शास्त्र भी शिव तत्त्व के गुरुत्वाकर्षण से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा. कहीं नटराज के रूप में तो कहीं महेश्वर-सूत्रों के रूप में शिव ज्ञान-विज्ञान के भी अधिपति देव बन गए. धर्म, संस्कृति तथा सामाजिक उत्सव-महोत्सवों में भी महादेव शिव, उनकी अर्द्धांगिनी पार्वती,पुत्र so गणेश और कार्तिकेय सहित समूचे शिव परिवार का वर्चस्व बढ़ता गया. शिवपुत्र गणेश तो इतने लोकप्रिय हुए कि उनकी पूजा के बिना कोई भी काज अधूरा ही माने जाने लगा.

शिवपुत्र

दरअसल,भारत की but लोक संस्कृति के मूल्यों से जुड़े आदिदेव शिव पुरातन आध्यात्मिक भारतराष्ट्र की पहचान हैं. शिव के इस आदिकालीन देवता विज्ञान ने ‘भारतराष्ट्र’ के आध्यात्मिक चरित्र का निर्माण किया अथवा भारतीय राष्ट्रवाद के सतत प्रवाह ने विश्व को शिव जैसा अद्भुत देवचरित्र दिया कहना कठिन है किन्तु यह सत्य है कि पुराणों में शिव के जिन लक्षणों को गिनाया गया है वे लक्षण ‘भारतराष्ट्र’ के सन्दर्भ में भी उतने ही प्रासंगिक सिद्ध होते हैं.

आज भी प्रासंगिक हैं ‘राष्ट्रदेवता’ शिव

भारतीय संस्कृति के व्याख्याता स्वामी करपात्री जी शिव को ‘राष्ट्रदेवता’ के रूप में मूल्यांकित करते हुए कहते हैं – ‘समुद्र मन्थन में निकलने वाले कालकूट विष का भगवान् शंकर ने because पान किया और अमृत देवताओं को दिया. राष्ट्र के नेताओं का भी यही कर्त्तव्य है कि उत्तम वस्तु राष्ट्र के अन्यान्य लोगों को देनी चाहिए और अपने लिए परिश्रम, त्याग तथा तरह तरह की कठिनाइयों को ही रखना चाहिए. विष का भाग so राष्ट्र को देने से उसका सर्वनाश हो जाएगा.’आज हमारा देश शिव के इस लोकोपकारी चरित्र को भूल जाने के कारण राष्ट्र की अनेक समस्याओं को झेल रहा है. समस्त देशवासियों को महाशिवरात्रि के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएं.

शिवपुत्र

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में विद्या रत्न सम्मानऔर 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा आचार्यरत्न देशभूषण सम्मानसे अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्रपत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

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