- कविता ‘करुणा’ कोठारी
जिसे गर्भ में भी सम्मान न मिला,
जो कभी फूल बनकर न खिला।
उसके अस्तित्व का नया दौर चलाओ,
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!
जिसके होने से
उसके होने पर छायी उदासी,
काश! उसके दर्द का हिस्सा,
तुम्हें भी पहुंचाता चोट जरा-सी
चाहे मंदिरों में पूजा न कराओ!
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!
जगत
न उसका हिस्सा,
बाबुल के आंगन में जो खिलखिलायी,
जिसने बनाकर मिट्टी के खिलौने,
घर के खाली कोने सजोय,
लेकर विदा! जब चली जाए एक दिन
पीछे से दु:ख की न बातें जताओ!
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!
जगह
काश! की
फौलाद की जंजीरे पहनाते,
बेटे की तरह उसे भी वतन पर,
हंसते—हंसते मर—मिटना सिखाते,
कंधों पर सितारे संजाकर तुम उसके
हौसले को सिर्फ एक बार आजमाओ!
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!
संस्कृति
काश! की
पत्थरों और कांटों की चुभन होती,
फिर किसी घर में बेटीहोने का,
मातम न होता,
उस पर कमजोर होने का इल्जाम न लगाओ!
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!
का
क्या विरांगनायें सिर्फ कथाओं के लिए हैं?
क्या नारीवाद सिर्फ व्यवस्थाओं के लिए है?
क्या पुरुष प्रधान समाज में नारी
आज भी पर्दे की प्रथाओं के लिए है?
इन प्रश्नों के उत्तर वहीं से ढूंढ लाओ!
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!
अस्तित्व
लाचारी में बेटी
सौदों में कितने जख्मों को न्यौते,
उसके वजूद का हिस्सा न छीनो
जीना उसे भी है कभी तो ये समझो
उसे तुम उसके जख्म न दिखाओ!
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!
संस्कृति
कथाओं को छोड़ों,
बेटी—सी सरिता को सही राहों पर मोड़ों
एक दिन बनेगी ये पावन गंगा,
नजर के आईनों को लेकर ता दौड़ों,
गंगा की राहों में कीचड़ न लाओ!
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!
मूरत
कुम्हार! माटी
कास्तकार! भाव से उसे सजाता
जौहरी! गहनों से श्रृंगार करता,
पंडित! गंगाजल से उसे नहलाता,
अब! पवित्र आंखों में प्रेम लाओ!
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!
भाव
वो भी पढ़ेगी, वो भी लिखेगी,
सस्ते दामों में सड़कों पर न बिकेगी,
उसे भी खुलकर मुस्करा लेने दो,
तुम्हारी तरह वो भी हसेंगी,
उसके हंसने पर न हृदय को जलाओ,
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!
से उसे
कलेजे सभी के वो
कलम की सिपाही आखों में नीर देती,
हृदय के अधीर—अंधेरों में जकार,
रोशनी आशा की हल्की किरण हौसला बढ़ाओ!
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!
सजाता
(बेसिक हेल्थ वर्कर, राजकीय एलोपैथिक डिस्पेंसरी गडोली, उत्तरकाशी उत्तराखंड)