विकास की बाट जोहते सुदूर के गाँव…

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उतकै-उतकै नहीं!

  • डॉ. गिरिजा किशोर पाठक  

उत्तराखंड का राज्य पक्षी यद्यपि हिमालयन मोनाल है लेकिन जनमानस का सबसे लोकप्रिय पक्षी है घूघूती. घूघूती पर यहाँ के सैकड़ों गाने, कथाएं, किवदंतियाँ है. घूघूती के बोल “के करू पोथी उतकै-उतकै” (क्या करू बेटा बस इतना सा ही और इतना ही है) यह एक कहानी से भी जुड़ा है. उतकै-उतकै माने जिसमें परिवर्तन/बृद्धि नहीं हुई है परिश्रम के वाबजूद. घूघूती के ये बोल उतकै-उतकै, उत्तराखंड के सुदूर सीमांत गांवों के विकास की यात्रा पर फिट बैठते हैं. इस बार एक लंबे अंतराल के बाद सुदूर हिमालय की तलहटी में बसे अपने सीमांत गाँव डौणू, बेरीनाग, जिला पिथौरागढ़ 1 माह के प्रवास की तैयारी के साथ पहुच गया. सोच था जिन संस्थानों और संस्थाओं को वेब स्पीच देनी होगी वहीं से दे दूंगा. कुछ जाड़े के अहसास के साथ जीने का आनंद भी आ जाएगा. 1982 की फरवरी में मेरी छोटी बहिन का ब्याह हुआ था तब जाड़े में हम सब लोग गाँव में इकट्ठा हुए थे. गर्मियों में कई बार जाना हुआ पर जाड़े की बात ही और है.

लोक निर्माण विभाग की ग्रामीण सड़क. सभी फ़ोटो– दीप्ती

मैं इसी गाँव में पैदा हुआ, पला बड़ा. इस गाँव के खेत-खलिहान, ग्वैट, गाड़-गधेरे, छिन-डांडे, उकाव-ओलार, ढूनग–माट, बोट-बाट, गोरू-बाछा मेरी परवरिश के साक्षी रहे. जिस घर में मैं पैदा हुआ वह तो अब खंडहर में तब्दील हो गया है पर एक छोटा-सा आसियान हमने फिर खड़ा किया है ताकि गाँव से अपना रिश्ता और अपनी आगे की पीड़ी का रिश्ता बना रहे. उस समय गाँव में जो चाचा-चाची, ताऊ-ताई, आमा-बूबू, दीदी-भूली, भुला थे. कुछ संघर्ष से हार कर राजी-रोटी के चक्कर में पलायित हो गये. कुछ पुराने लोग गुजर गये. कुछ पेन्सेनर बैंक और स्वस्थ सुविधाओं के चक्कर में गाँव छोड़ कर भाभर चले गये. 150 पाठकों के घरों में अब मात्र 26 आबाद घर बचे हैं.वो भी ऐसे लोग हैं जिनकी हैसियत भाभर में घर खरीदने की फिलहाल नहीं है.अपने इस प्रवास में मेरी सकड़ों लोगों से बात हुई. कई बचपन के साथी मिले. कुछ युवा मिले. कई काकी-काका, दाज्यू -बोजी,भूला-भूली, मिले. सबके दुखड़े सुने. पहाड़ से उनके  मुक्ति चाहने के भाव को समझा.कुछ समस्याओ के समाधान के लिए स्थानीय अधिकारियों से बात भी की.इस यात्रा में मुझे हिमालय के दो स्वरूप समझ में आये.

पलायन से सहमे गांव

हिमालय और पहाड़ के दो रूप हैं.एक रूप सैलानी और पर्यटकों के लिए है.इन्हें हिमालय बहुत भाता है.छह ऋतु और बारहों मास उसका आकर्षण एवं उसका सौन्दर्य अद्भुत और अतुल्य रहता है. शरद और हेमंत में पया (चेरी) के फूलों पर मधुमक्खियां लदी रहतीं हैं.हेमंत और शरद के बाद जो बसंत का आगमन होता है. प्योली, बुरांश,किल्मोड़ा, हिसालू, आड़ू, पोलम, खुबानी न जाने क्या-क्या फूल पत्ते पूरे हिमालय में अपनी  खुशबू विखेरते रहते हैं.जंगल में जंगली फलों की बहार आ जाती है. बरसात में चारों तरफ बहते निर्झर झरने, कल-कल करती नदियां, और ऊपर से चांदी के मुकुट की तरह फैला हिमालय सबके मन को चुंबक की तरह आकर्षित करता है. प्रदूषण मुक्त परिवेश और शुद्ध हवा गौरा-महेश्वर के देश में लोगों को खीच लाती हैं. कुमायूँ हिमालय की बोलती तस्वीर नैनीताल, रानीखेत, अल्मोड़ा, चंपावत, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, चौकोड़ी, ग्वालदम, सामा, मुनश्यारी, बिनसर और कौसानी से पर्यटकों के सामने दिखती है. इसी रूप पर राहुल सांकृत्यायन, धरमवीर भारती और कई लोग बहुत कुछ लिखे. लेकिन प्रारंभ से देखें तोकाल चिंतन में एडविन थामस एटकिनसन की 1884 में प्रकाशित हिमालयन गजेटियर को हिमालय के जीवन, भूगोल, जीवविज्ञान सभ्यता-संस्कृति पर प्रकाश डालने वाला एक प्रमाणिक दस्तावेज माना जा सकता है.

गाड़ियों के लिए बनी सड़क बदहाल सड़क पर खच्चर से ही समान की ढुलाई संभव

लेकिन हिमालय का एक दूसरा चेहरा भी है. जो निठुर, निर्मोही, कठोर है. गाँवों में मूलभूत सुविधाओं का आज भी अभाव है. ग्रामीण सड़कों का गड्ढों से संबंध सरकारी तंत्र और  जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा की दास्ताँ कहता हैं. ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ सुविधाएं नहीं के बराबर हैं. अगर कहीं डिस्पेंसरी होगी भी तो डाक्टर नहीं मिलेगा. दूरदराज के गांवों में गंभीर बिमारी से त्रस्त मरीजों अथवा प्रसूता महिलाओं को अस्पताल आने के लिए डोली का सहारा लेना पड़ता है. तहसील लेवल से नीचे अस्पताल नहीं मिलेंगे. आज से 40-50 साल पहले जो पैंसनर उत्तराखंड के गाँवों में ही बसते थे उन्होंने स्वास्थ सुविधाओं के अभाव में तराई क्षेत्रों को पलायन करना प्रारंभ कर दिया है.

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काठगोदाम से मुनस्यारी तक जोरहवासी हैं उनका जीवन कठोर है, कठिन है और दुर्गम भी. हर कदम पर पलकों के खुलने से पलकों के बंद होने तक संघर्ष है. अल्मोड़ा, नैनीताल, रानीखेत, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत के शहरी क्षेत्रों को छोड़ दीजिए तो सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों के रहवासियों का जीवन कठिन है.

गाँव के फौजी प्राणदा (प्राण दत्त पाठक) और बादुर दा (बहादुर राम) फौज से सूबेदार से रिटायर है. 25 साल रिटायरमेंट के बाद भी इन्होंने गाँव नहीं छोड़ा. लेकिन अब हल्द्वानी पलायन ये अपनी मजबूरी बताते हैं. 70-72 साल की उम्र में पैंसिन लेने स्टेट बैंक पाँखू जाना पड़ता है, जो सड़क से 20 किलोमीटर है. सड़क के हाल ये हैं कि 20 किमी चलने मैं 2 घंटा लग जाता है. बेरीनाग में समूदायिक स्वास्थ केंद्र है जो डौणू, दशोली, लचिम, ओखरणी, चुचेर से 30—50 किलोमीटर दूर है. सामान्यतः बेरीनाग से डाक्टर हल्द्वानी के अस्पतालों को रिफर कर देते है. दोनों फौजी माह में एक बार हेल्थ कारणों से हल्द्वानी जाते है. एटीएम की बात करो तो 50 किमी बेरीनाग जाना पड़ेगा डग्गामार जीप में. अब ये दोनों मन बना रहे हैं हल्द्वानी शिफ्ट होने का. इनकी तरह कराला, लचिमा, सगोड़, ओखरणी, चुचेर, डौणू और दशोली के कई पैंसनर हैं जो ये दंश झेल रहे हैं. ये रिटायर्ड लोग चाहते हैं की 5-6 गाँवों के बीच एक ग्रामीण बैंक की शाखा खुल जाय, एक डिस्पेंसरी खुल जाय, ग्रामीण यातायात और आवागमन में सुधार हो जाए.

आजादी के 73 साल बाद भी सरकार ने न तो इनके हुनर को बढ़ावा दिया न ही इनके उत्पाद के मार्केटिंग की कोई व्यवस्था की है. सरकार गाँवों से इनके उत्पाद को खरीदने का कोई सिस्टम बनाए तो इनकी आमदनी बढ़ेगी और इनका मनोबल भी बढ़ेगा. इससे पलायन भी रुकेगा.

ये नहीं हुआ तो 10-12 गाँवों का यह समूह आने वाले समय में धीरे—धीरे वीरान हो जाएगा.

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कोरोना काल में कई युवा गाँव आए. नेट सुविधा न होने के कारण वे वर्क फ्राम होम नहीं कर पाए अंततः हताश होकर लौट गये शहरों को.

गाँव के नैनीहल लेखक के साथ- विकास इनके लिए

किसानों का अपना रोना है. खूब पालक, लौकी, गडेरी, राजमा, भट्ट, गहत, फरासबीन, लोबिया गाँव के लोग पैदा कर रहे हैं. लेकिन थल, बेरीनाग के बाजार में इतनी डिमाँन्ड नहीं है. हल्द्वानी माल पहुचाना और वहाँ इसकी विक्री इनके बूते की बात नहीं है. कुमेर सिंह बताते हैं की इस सीजन में 30-40 क्विंटल गडेरी उन्होंने पैदा की, अदरक, आलू,केला और भी बहुत कुछ. लेकिन बाजार के अभाव में ये सब हतोत्साहित है. फल, सब्जी और अनाज किसान पैदा करता है बाजार और स्थानीय माँग न होने के कारण मिट्टी के भाव इसे बेचना पड़ता है. गाँव के परम राम, करमु और उनकी टीम निगालू के डोके, डाले, सूप, टोकरे, मोस्टे बनाने मे मास्टर हैं और लोकल आवश्यकताओं को पूरा करते हैं. अगर इनको सरकार बाजार उपलब्ध करा दे  तो ये कुटीर उधोग का स्वरूप ले सकता है.

आजादी के 73 साल बाद भी सरकार ने न तो इनके हुनर को बढ़ावा दिया न ही इनके उत्पाद के मार्केटिंग की कोई व्यवस्था की है. सरकार गाँवों से इनके उत्पाद को खरीदने का कोई सिस्टम बनाए तो इनकी आमदनी बढ़ेगी और इनका मनोबल भी बढ़ेगा. इससे पलायन भी रुकेगा.

नेशनल हाई वे—309 कोटमुन्यासे कुमाऊं की प्रसिद्ध कोटगाड़ी देबी के मंदिर को सड़क जाती है जो पुंगराऊ पट्टी को कवर करते हुये थल बैंड पर नेशनल हाई वे 309 में मिल जाती है. इस  सड़क का सर्वे 1972-73 में हुआ था. तब में कक्षा 8 में पढ़ता था. आज 2020 में, में सेवा पूरी कर चुका हूँ 47 साल बाद भी लोक निर्माण विभाग की यह सड़क बन विभाग के मास्टरोल अथवा नरेगा के तहत बनी सी लगती है. टूटी-फूटी, आगे-पीछे, दाहिने-बाये गढ्डे ही गड्डे. यह सड़क पूरी पुंगरौ पट्टी को बेरीनाग और थल से जोड़ती है. सड़क की हालत इतनी खराब है कि हजारों तीर्थ यात्री और दर्शनार्थी सरकार को कोसते हुए दर्शन करते है. कोटमुन्या पाँखू लिंक रोड से ग्राम दशौली प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क से जुड़ता है. ये टार सड़क भी चलने लायक ही नहीं है. मैंने हजारों प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़कें देखीं हैं पर इतनी बदहाल कहीं नहीं देखी. इसी सड़क को आगे लोक निर्माण विभाग ने डौणू, लछिमा, ओखरानी, चुचेर, झींडियाँ को जोड़ा है. यह कच्ची सड़क है. गत वर्षात में प्रधान मंत्री ग्रामीण सड़क का एक हिस्सा मलवे में धस गया वह आज तक मरम्मत की बाट जोह रहा है. बड़े 4 पहिये वाहनों का आवागमन तब से ठप्प है. जिन सड़कों पर बाहन दौड़ने चाहिये उनमें लोग खच्चरों से समान ढो रहे हैं. गाँव में बारात नहीं आती. लोग कहते हैं कि आपके गाँव बस और टैक्सी से हम नहीं आ सकते अतः लड़की वाले हल्द्वानी, बेरीनाग या चौकोडी बारात की व्यवस्था करें. बीपीएल का राशन भी सड़क होने के बाद भी खच्चरों से राशन की दुकान तक पहुंच रहा है. ये विकास की त्रासदी ही है. कदाचित, सरकार के खाते में यह पक्की सड़क होगी.

सौन्दर्य हिमालय के गाँवों का एक रूप.

गाँव के इर्द गिर्द स्कूलों की भरमार है पर विधार्थी कम हैं. पब्लिक स्कूल के क्रेज के कारण  प्राइमरी, जूनियर हाईस्कूल के मास्टरों के बच्चे भी चौकोड़ी के पब्लिक स्कूलों में पढ़ रहे हैं. बिजली आपूर्ति के मामले में सरकार की तारीफ करना मैं उचित समझता हूँ.

इस क्षेत्र में पलायन रुके इसके लिए ग्रामीण पेन्सनरों के लिए बैंक की एक ब्रांच, जीवन रक्षा के लिए एक डिस्पेंसरी, ग्रामीण कृषकों के उत्पाद हेतु बाजार व्यवस्था अतिआवश्यक है. सड़क के होते हुए भी मरीजों और प्रशव पीड़िताओं को डोली में ले जाने के दंश से मुक्ति के लिए खस्ताहाल सड़कों की मरम्मत आवश्यक है. उत्तराखंड बनने के बाद लोगों को लगता था कि विकास चौमुखी और जनोन्मुखी होगा लेकिन ढाक के तीन पात. सीमावर्ती जिलों पर तो सरकार को ज्यादा ध्यान देना चाहिये. विकास का मतलब चार धाम यात्रा के लिए आल वेदर रोड का बन जाना या रुद्रप्रयाग तक रेल लायन का बन जाना ही नहीं है. विकास का मतलब प्रदेश के मुखिया  को सभी जिलों की समस्याओं के हिसाब से समाधान देकर रहवासियों की खुशहाली और विकास का मार्ग प्रशस्त करना भी है. शायद यह कहानी हर सुदूर गाँव की होगी जिनकी आवाज प्रशासन अथवा उनके जनप्रतिनिधियों के द्वारा देहरादून तक सत्ता के कान में नहीं पहुंचाई जाती. पुराने बुजुर्ग तो यहाँ तक कहते हैं की जब उत्तरप्रदेश सरकार थी तो काठगोदाम से लखनऊ पहुंचना सरल था काम भी सरलता से हो जाते थे. उत्तराखंड बनने के बाद विकास तराईमुखी हो गया है और पलायन की बाढ़ आ गयी है. ये लोग पूरे पुंगरौ पट्टी के राठवार घरों के पलायन का हिसाब बताते है. वास्तव में इस क्षेत्र के विकास की बात करें तो विगत 25 सालों में इनके हिस्से के विकास का अंश लगभग शून्य है. एक प्रशासनिक अधिकारी ने तो स्वीकार भी किया कि यहाँ  सारे सड़कों के पूर्व निर्माण में भ्रष्टाचार की जांच चल रही है. प्रशासनिक अमलाभी इस सीमांत जिले में कदाचित टाइम पास मोड में रहता होगा ऐसा विकास के इंफ्रास्ट्रक्चर और प्रगति को देख कर लगता है. जो भी हो लोग सरकार की उपेक्षा से हताश और निराश हैं उनको समाधान चाहिये.

सड़कों के हालत

सांसद अल्मोड़े से है और विधायक गनाई से. कई गांवों में मूलभूत आवश्यकताओं की लड़ाई लड़ने के लिए भी लोग नहीं बचे हैं. पहाड़ में भी सुदूर गाँवों, कस्बों और अल्मोड़ा, नैनीताल, देहरादून, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग के विकास के बीच एक बहुत बड़ी खाई है. भारत माल प्रोजेक्ट से रुद्रप्रयाग से ग्वालदम, डन्गोली, बागेश्वर कपकोट जुड़ जाएंगे. उधर टनकपुर, पिथौरागड़, थल, धरचूला जुड़ेंगे. पर समस्या हल्द्वानी से अल्मोड़ा से बागेश्वर, कांडा, कोटमुन्या, चौकोड़ी, बेरीनाग, सेराघाट, गंगोगोलीहट की सास्वत बनी रहेगी. अतः हल्द्वानी से 4 लयान सड़क का लिंक सीधे थल तक होना जरूरी है. कुमाऊं जाने वाले 70% यात्री हल्द्वानी अल्मोड़ा दन्या, सेराघाट अथवा ताकुला बागेश्वर से ही आगे जाते है. 4 लयान सड़क का इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ेगा तो डाक्टर, अफसर, उद्योगपति, फल और कृषि उत्पादन से क्रेता सब सुदूर क्षेत्रों तक बेहिचक पहुचेंगे. इंफ्रास्ट्रक्चर विकास की जननी है. आज हर गाँव में बूढ़ों, विधवाओं, पेन्सनियरों के अतिरिक्त किसानों के खातों में धनराशि डाली जा रही है. बूढ़े 70-80 साल के पेन्सनर कहां 30 किलोमीटर दूर बैंक जा सकते हैं. एटीम का तो गाँवों में सोच ही नहीं सकते. चौकोड़ी और  बेरीनाग में नेट के कारण एटीम काम नहीं करता. मैंने 12 दिन बाद अल्मोड़ा शहर में एटीम से पैसा निकाला.

गाँव के किसान को उत्पादन के विपणन की सुविधा चाहिये, बूढ़े, विधवाओं, पेन्सनरों और किसानों इलाज को डिस्पेंसरी और धनराशि की निकासी के लिए बैंक की ब्रांच और सरकार की बनाई सड़क पर खच्चरों से आवागमन की जगह वाहनों के चलने लायक सड़क चाहिये. गाँव में इंटरनेट की सुविधा आज की जरूरतों के हिसाब से आवश्यक है. जिलाधीश, जिला उद्योग केंद्र, कृषि विपणन अधिकारी, महाप्रबंधक स्टेट बैंक, निदेशक स्वस्थ, चीफ इजीनीयर, लोक निर्माण  और प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना अधिकारी ध्यान देंगे तो कायाकल्प नहीं तो सुधार तो संभव है ही. यह समस्या इन 10—15 गाँवों की ही नहीं है पूरे उत्तराखंड के सभी सुदूरवर्ती गाँवों की है. उनकी आवाज सही जगह नहीं पहुच पाती. तंत्र से समय पर मदद न मिलने के कारण थक हारकर अंत में वे पलायन कर जाते हैं. घूघूती की उतकै-उतकै से विकास के सार्थियों की मुक्ति आवश्यक है. पलायन रोकना आज के उत्तराखंड की प्रथम आवश्यकता है.

    इस बार तो मैं 15 दिन में ही अपनी यात्रा समेट कर भारी मन से वापस लौट आया.  कारण था, मेरे प्रोफेशन के हिसाब से ऑनलाइन स्पीच के लिए गाँव में इंटरनेट का नहीं मिलना. लेकिन उम्मीद है अगले प्रवास तक नेट की समस्या के साथ सारी समस्याओं का समाधान मिल जाए और हम स्थायीरूप से अपने गाँव में ही रहने लग जायें अपनों के बीच.

(लेखक पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में काशी हिन्दू विश्व विधालय से पीएचडी, संयुक्त राष्ट्र संघ में यूरोप में सेवा के दौरान पहाड़ी राष्ट्रों के विकास का विशेष अनुभव. गाँव और पहाड़ की समस्याओं पर चिंतन एवं लेखन के साथ—साथ विभिन्न समाचार पत्रों में संपादकीय लेखन एवं अखिल भारतीय एवं राज्य की एकडमियों/विश्वविद्यालयों/संस्थाओं में आख्यान.)

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