रिंगाल: उत्तराखंड की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का हरा सोना

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  • जे. पी. मैठाणी

पहाड़ की अर्थव्यवस्था के साथ रिंगाल का अटूट रिश्ता रहा है. रिंगाल बांस की तरह की ही एक झाड़ी है. इसमें छड़ी की तरह लम्बे तने पर लम्बी एवं पतली पत्तियां गुच्छी के रूप में निकलती है. यह झाड़ी पहाड़ की संस्कृति से जुड़ी एक महत्वपूर्ण वनस्पति समझी जाती है. पहाड़ के जनजीवन का पर्याय रिंगाल, पहाड़ की अर्थव्यवस्था का सुदृढ़ अंग रहा है. प्राचीन काल से ही यहाँ के बच्चों की प्राथमिक शिक्षा का श्री गणेश रिंगाल की बनी कलम से होता था. घास लाने की कण्डी से लेकर सूप, टोकरियां, चटाईयां, कण्डे, बच्चों की कलम, गौशाला, झोपडी तथा मकान तक में रिंगाल अनिवार्य रूप में लगाया जाता है.

वानस्पतिक परिचय-
वन विभाग के अनुसार रिंगाल एक वृक्ष है, परन्तु वन विभाग की 1926-1928 से सन् 1936-37 की कार्य योजना में रिगाल की परिभाषा-

“रिंगाल एक बहुवर्षीय पेड़ों के नीचे उगने वाली झाड़ी/ घास है जो नोड्स एवं इन्टर नोड्स में विभक्त है यह भूक्षरण को रोकने और सामाजिक -आर्थिक रूप से पिछड़े गरीब समुदाय की आजीविका का स्रोत है.”

सामान्यतः  रिंगाल हस्तशिल्पियों या रूडिया समुदायों से मिली जानकारी के अनुसार रिंगाल क्राफ्ट बनाने में सर्वाधिक उपयोग देव रिंगाल का किया जाता है लेकिन देव रिंगाल के साथ-साथ मालिंगा और गडेलु की भी सींकें एवं पत्तियां बनाकर कम लगने की वजह से मालिंगा, गडेलु और भटपुन्तरू रिंगाल का उपयोग शिल्प बनाने में किया जा रहा है.

चमोली के सभी विकासखण्डों के दूरस्थ आंतरिक क्षेत्रों में प्रमुखतः रिंगाल कार्य आज भी बदस्तूर चला आ रहा है. सड़क व उससे जुडे़ गाँवों में अवश्य परिवर्तन आये हैं, और वे परम्परागत उद्यमों से दूर होते जा रहे हैं. ग्रामीण जन वनाधारित उद्योगों पर कहीं न कहीं निर्भर है. आज भी रिंगाल के कार्य का चलन यहाँ के अधिकाँश गाँवों में है. रिंगाल से बना सामान चमोली और रूद्रप्रयाग के प्रमुख यात्रा एवं तीर्थ मार्गों पर बेचा जाता है. यही नहीं रिंगाल हस्तशिल्पी अपने बनाये हुए सामान को बेचने ऋषिकेश व देहरादून भी आने लगे हैं.

रिंगाल की पौध लगाते हुए महिला सरपंच श्रीमती गोदाम्बरी देवी, ग्राम—किरूली, . फोटो: देवेन्द्र कुमार

वर्तमान में बद्रीनाथ-केदारनाथ मंदिर समितियों द्वारा मंदिरो में चढावे के प्रसाद को इको-फ्रैंडली रिंगाल की टोकरियों में रखकर बेचने की व्यवस्थायें और प्रयास किये जा रहे हैं. लेकिन इन टोकरियों का मूल्य आज भी 20  साल बाद भी बहुत कम रखा गया है, आपको यह जानकार आश्चर्य होगा की श्री बद्रीनाथ प्रसाद टोकरी का मूल्य वर्ष 2000से 2005 में 4-5 ईंच ऊंची और 4 इंच व्यास की प्रयास टोकरी का मूल्य 3 रूपये 60 पैसे था, जबकि इसकी लागत 5 रूपये से अधिक आ रही थी. और टोकरी का डिजाइन भी आकर्षक नहीं था. आज वर्तमान में कोई भी प्रसाद टोकरी 100 रुपये से कम की बन ही नहीं सकती लेकिन आज भी प्रसाद टोकरी की बातें– वोकल टू लोकल और स्वदेशी- स्वरोजगार के नारों के बीच धक्का खा रही हैं, यह हाल तब है जब बद्रीनाथ मंदिर समिति का पूर्व सीईओ एक वनाधिकारी है और अब देवस्थानम बोर्ड बन गया है लेकिन उन्होंने अपने और से रिंगाल प्रसाद टोकरी को मंदिरों विपणन के लिए स्थान नहीं दिया और ना ही कोई आउट लेट दिए हैं.

आगाज फेडरेशन द्वारा निर्मित रिंगाल की विभिन्न प्रकार की टोकरियां एवं लैम्प शेड. फोटो: हरीकृष्ण ​​डीबी.

अभी कुछ दिन पहले माननीय मुख्यमंत्री जी से पहले जिला अधिकारी  चमोली ने अमेज़न पर बद्रीनाथ प्रसाद को दिए जाने की बात कही लेकिन रिंगाल की टोकरियों की बजाय जूट बैग पर जोर दिया है जबकि सरकार – भीमल, भांग  और हिमालयन नेटल को बढ़ावा दे रही हैं! दूसरी और पिछले 10 सालों के बीच रिंगाल वनों में लगातार आग लगने की घटनायें बढती जा रही है. साथ ही फूल लगने से भी रिंगाल वन नष्ट हो रहे हैं.

किरूली गांव में यूसर्क एवं आगाज के सहयोग से रिंगाल के राइजोन का रोपण. फोटो: देवेन्द्र कुमार

जनपद चमोली के केदारनाथ एवं बद्रीनाथ वन प्रभाग के वन क्षेत्र- चोपता, मक्कूमठ, रूद्रप्रयाग, स्यूण, बेमरू, डुमक कल गोठ पाखी, टंगणी के अतिरिक्त घाट क्षेत्र में भेंटी बंगाली, सुतोल कनेाल, कुरूड, कांडई, माणखी और बेरासकुण्ड क्षेत्र, पोखरी विकास खण्ड में कलसीर, गुडम, मसोली, दशोली विकसखण्ड में धानाखर्क घुडधार, बण्डी, धुर्रा, थराली विकासखण्ड में रतगाँव, रूसाण, लेटाल, रणकोट, कर्णप्रयाग विकासखण्ड में सुनाली आदि क्षेत्रों में देव रिंगाल और थाम रिंगाल पर वर्ष 2002-2003 में अधिक फ्लावरिंग देखी गयी. लेकिन आजकल इन क्षेत्रों में मालिंगा, देव् रिंगाल , गडेलु, भटपुन्तरू रिंगाल से हस्तशिल्पी अपने उत्पाद बना रहे हैं धोतीधार, चोपता, तोलीताल, लुदाऊ, स्यूण क्षेत्र में भ्रमण के दौरान हमने देखा कि कहीं-कहीं अभी तक देव रिंगाल और थाम रिंगाल के कुछ वन क्षेत्र हरे-भरे हैं जबकि दूसरी तरफ पास ही में देव रिंगाल पूरी तरह नष्ट हो गया है. लेकिन इन क्षेत्रों में गडेलु, मालिंगा, सरडु रिंगाल पर फ्लावरिंग नहीं देखी गयी. वन विभाग के अधिकारियों से वार्ता करने पर यह जानकारी नहीं मिल पायी कि जनपद रूद्रप्रयाग और चमोली में किन-किन वन रेंजों में कहाँ-कहाँ कितने क्षेत्रफल में रिंगाल के जंगल है.

रिंगाल एवं पहाड़ का अन्तर्सम्बन्ध

जल, जमीन और वनस्पति जीवन के पर्याय हैं. फिर इसके अस्तित्व को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. वनस्पति का पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान है. मानव एवं जीवजन्तु जो पर्यावरण के मुख्य अंग है, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वनस्पति पर निर्भर रहते, हैं. हर वनस्पति किसी न किसी रूप में उपयोगी है. अतः वनों के बहुआयामी महत्व को देखते हुए इनकी सहायता से पनपने वाले स्थानीय कुटीर उद्योगों की ओर ध्यान केन्द्रित होना स्वाभाविक ही है. लेकिन आर्थिक प्रतिस्पर्धा की दौड़ में यह उद्यम लुप्त होते चले गये. यही नहीं ग्रामीण अस्मिता पर शहरी भाग दौड़ का असर पड़ने लगा और ग्रामीण अपनी मौलिकता को छोड़ कर दिखावे की तरफ दौड़ने लगे, ग्रामीण कारीगर अपने उद्योग के प्रति हतोत्साहित होने लगे. इन्हीं सब परिस्थितियों को देखते हुए सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में पुराने समय से चला आ रहा रिंगाल उद्योग उपेक्षित होने लगा. अतः रिंगाल जो कि ऊँचे पहाड़ी क्षेत्रों में पाया जाता है वर्तमान में एक बहुमूल्य वनस्पति के रूप में ग्रामीण कारीगरों के द्वारा प्रयोग किया जाने लगा. रिंगाल आधारित उद्योग गढवाल एवं कुमाऊ क्षेत्रों के दूरस्थ गाँवों का परम्परागत उद्योग है. यह दूसरे नम्बर का सबसे बड़ा एवं विकेन्द्रित उद्योग है जो कि स्थानीय कच्चे माल एवं स्थानीय बाजार पर आधारित है. रिंगाल उद्यमी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और गाँव में रह रहे प्रत्येक प्रकार के उद्यमी परिवार के लिए आवश्यक है.

आगाज की नर्सरी में देव रिंगाल. फोटो: पूनम पल्लवी

रिंगाल दूरस्थ ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों की दस्तकारी हस्तशिल्प का ना केवल सर्वोत्तम माध्यम है. वरन् यहाँ की सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक जन जीवन का महत्वपूर्ण अंग भी है. रिंगाल बांस प्रजाति की झाड़ी है जो सामान्यतया 3 मीटर से 25 मीटर तक लम्बी होती है. यह झाड़ी मानसूनी शीतोष्ण जलवायु में समुद्रतल से 4000 फीट से लेकर 10,000 फीट तक ही ऊँचाई, शत प्रतिशत आर्द्रता वाले स्थानों में सभी जगह उपलब्ध होती है. रिंगाल अरून्डिनेरिया प्रजाति की एक बहुपयोगी झाड़ी है. पूरे विश्व में इसकी लगभग 80 प्रजातियां है. जिनमें से 26 प्रजाति भारत में पायी जाती है. इन विभिन्न प्रजातियों में थाम, देव रिंगाल, गिवास, गडेलू आदि रिंगाल का प्रयोग इस क्षेत्र में स्थानीय निवासियों द्वारा काश्तकारी के लिए किया जाता है. रिगाल यहाँ के जीवन में रच बस गई है. स्कूल में प्रवेश करते ही बच्चों को इसकी कलम की आवश्यकता पड़ती है. परम्परागत् वस्तुएं जैसे टोकरी, डाला, चटाई, अनाज भण्डारण बनाने में तथा साथ ही घरों की दीवार तथा छत बनाने में भी इसका प्रयोग किया जाता है. इन वस्तुओं का प्रयोग प्रत्येक कृषक परिवार के लिए आवश्यक होता है. ये वस्तुएं जहाँ एक ओर बहुत आवश्यक है वहीं इसे दूसरी ओर गरीबों की लकड़ी का नाम दिया गया है. ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों में इसे गरीबों की खेती भी कहा जाता है. यह मुख्यतः बांज के जगलों में पाया जाता है.

सन् 1962 के युद्ध के पश्चात् तिब्बत और भारत के बीच चल रहे परम्परागत व्यवसाय तथा आवाजाही पर रोक लग गये जिससे कुमाऊं के बुनकरों जो कि मुनसारी के उत्तरी क्षेत्र में रह रहे थे को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था. उनको वस्तुओं को बनाने के लिए काफी दूरी से कच्चा माल लाना पड़ रहा था उन स्थानों पर आसानी से नहीं पहुचा जा सकता था. वे लोग महीनों तक कच्चा माल एकत्रित करने के लिए अपने घरों को छोड़ कर जाते थे जिसमें उनका काफी पैसा खर्च हो जाता था.

देवरिंगाल का एक चित्र. फोटो पूनम पल्लवी

घर आंगन बुहारने के लिए रिंगाल की कोंपले झाडू के रूप में प्रयुक्त होती हैं. रिंगाल का तना पाल वाले मकान के रूप में तथा छप्पर में घास को उड़ने से बचाने के लिए सेफ्टी के रूप में प्रयुक्त होता है. रिंगाल टोकरी के लिए सब्जी की डलिया, गाय व बैल के लिए घास की कन्डी व सोल्टे के लिए, माप के सेर पाथे के लिए, बडी माप के डाले के लिए, अनाज के भूसे को छानने के लिए देवताओं का छत्तर डोली, फटकने के सुप्पे के लिए, बच्चों के झूले के लिए, अनाज को सुरक्षित रखने के लिए, मछली पकड़ने के गोते के लिए, बांसुरी बनाने आदि के लिए प्रयोग किया जाता है. रिंगाल की प्रथम फसल सितम्बर में शुरू होती है. और ठीक छः महीने बाद अर्थात् फरवरी के महीने में इसकी कोंपले रिंगाल के रूप में तैयार हो जाती है. इस कोमल रिंगाल का प्रयोग ऊपरी इलाकों में काश्तकारों द्वारा छप्पर आदि बनाने के लिए, रस्सी के रूप में किया जाता है. यह रिंगाल अत्यन्त लचीला एवं मजबूत होता है.

देव रिंगाल काश्तकारी के लिए सबसे अच्छी प्रजाति मानी जाती है. इसकी छडे़ं सामान्यतः 10 से 20 मीटर लम्बी होती है. तथा दो हिस्सों में फाड़ने में अत्यन्त सुविधाजनक होती है. इस पर आधे मीटर की दूरी पर गांठे बनी होती है. गांठों पर गुच्छेदार घास होती है. यह अत्यन्त शुद्ध व पवित्र छुआछूत से परे मानी जाती है. यह देव अर्चना के लिए प्रमुख होती है इसलिए देंव रिगाल कहलाती है.

कोरोना के दौर में बंजर जमीन पर रिंगाल रोपते किरूली की महिलाएं.

रिंगाल एशिया अफ्रीका में फैला हुआ है. भारत में रिगाल की लगभग 9 प्रजातियां पायी जाती है. इसमें से कुछ प्रजाति मुख्य रूप से चटाईयां बनाने के लिए उपयोग में लायी जाती है. अधिकांशतः रिंगाल एक सीधा झाड़ीनुमा पौधा है. जिस पर लम्बी खोखली और अधिकतर हरी छड़े होती हैं. जिसकी लम्बाई 9 मीटर, गोलाई 0.6 से 2.6 सेमी0 होती है. इनमें फूल अन्य प्रजातियों के रिगाल की तरह ही खिलते है.

रिंगाल की अच्छी पैदावार के लिए छायादार स्थान उपयुक्त रहता है. इसके लिए चिकनी मिटटी एवं नमी वाला स्थान होना चाहिए. क्योकि यह जल शून्य अथवा शुष्क भूमि को सहन नही कर सकता. इसकी पैदावार 9 से 36 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान पर अच्छी होती है. इसको पुराने पौधों से अलग करके फैलाया जा सकता है. अर्थात इसकी कलमे काट कर लगाई जाती है. अच्छे परिणाम के लिए पहले इसे गमले में ग्रीन हाउस में रखा जाता है.

बदरीनाथ प्रसाद टोकरी एवं रिंगाल कमंडल. फोटो : जेपी मैठाणी

हिमालयी क्षेत्र में उत्तराखण्ड राज्य का अपना एक विशिष्ट स्थान है. उत्तराखण्ड पर्वतीय प्रदेश की आर्थिकी का प्रमुख स्रोत राज्य में धार्मिक पर्यटन/ तीर्थ यात्रा तथा पर्यटन है. हालांकि पिछले 7-8 वर्षों में राज्य में एडवेंचर टूरिज़्म को बढ़ावा मिला है. और जहाँ पहले सिर्फ ट्रैकिंग, माउंटेनियरिंग, स्कीइंग तथा रिवर राफ्ंिटग को ही एडवेंचर टूरिज़्म का प्रमुख माध्यम माना जाता था अब उसके स्थान पर साहसिक पर्यटन की नई विधायें जैसे- बंजी जम्पिंग, हाॅट एअर बैलून, पैराग्लाइडिंग, रॉक क्लाइम्बिंग, स्नो सर्फिंग, रिवर क्रॉसिंग और साइक्लिंग के साथ-साथ इकोटूरिज़्म की नई विधा एग्रो टूरिज़्म और नेचर गाइड से सम्बन्धित क्रिया कलाप एवं आजीविका के संसाधन बढ़े हैं. इन सबसे इतर वर्ष 2001-02 से जनपद चमोली के पीपलकोटी कस्बे में स्थानीय युवाओं ने स्थानीय हस्तशिल्प जैसे- हिमालयन बैम्बू या रिंगाल आधारित हस्तशिल्प कला और स्थानीय स्तर पर पर्यटन की समस्त विधाओं को विकसित करने के लिए प्रदेश के पहले बायोटूरिज़्म पार्क की स्थापना पीपलकोटी में की. आगाज़ के नाम से गाँव-गाँव जाकर शुरूआत में चमोली के विकासखण्ड दशोली, जोशीमठ, पोखरी, घाट के रिंगाल हस्तशिल्पियों  के समूह बनाये गये. उनको फैडरेशन से जोड़ा गया. बाजार को विकसित करने और रिंगाल हस्तशिल्पियों को प्रोडक्ट को लाभकारी बनाने के लिए हिमालयी स्वायत्त सहकारिता और अलकनन्दा स्वायत्त सहकारिता का गठन वर्ष 2006 में किया गया. संस्था में अध्ययन और शोध के आधार पर इस विचार को सदैव आगे रखा कि उत्तराखण्ड पर्वतीय क्षेत्रों में स्थानीय संसाधन जैसे- जल, जंगल, जमीन, प्राकृतिक सुंदरता, प्राकृतिक रेशे, जड़ी-बूटी, उद्यानिकी, कृषि, जैविक खेती, पर्यटन, तीर्थाटन से ही किसानों, हस्तशिल्पियों, लघु उद्यमियों और युवाओं को रोजगार देकर पलायन को रोका जा सकता है.

आगाज़ ने  वर्ष 2001 से 2004 तक अलकनन्दा घाटी, फूलों की घाटी, हेमकुण्ड साहिब और बद्रीनाथ क्षेत्र में जल स्रोतों के निकट हो रहे प्लास्टिक, पॉलिथीन प्रदूषण का अध्ययन संयुक्त रूप से यू0एन0डी0पी0 एवं पर्यावरण शिक्षण केन्द्र के साथ किया. और देखा कि अकेले श्री बद्रीनाथ धाम प्रतिदिन डेढ़ कुन्तल से अधिक पॉलिथीन का उपयोग प्रसाद की पैकिंग एवं अन्य वस्तुओं को लाने ले जाने में किया जाता है. जिसका एक बड़ा हिस्सा बद्रीनाथ धाम में ही कूड़े-कचरे के रूप में एकत्र हो जाता है और उस समय कूड़े-कचरे के प्रबंधन के लिए बेहतर संसाधन एवं प्रबंधन, कूड़े-कचरे के पृथक्करण की कोई व्यवस्था मौजूद नहीं थी. इस सम्बन्ध में आगाज़ के पदाधिकारियों ने लगातार हैस्को, उत्तराखण्ड बांस एवं रेशा विकास परिषद तथा जनपद चमोली के जिला प्रशासन और डी0आर0डी0ए0 से विचार विमर्श किया. कालान्तर में जनपद चमोली के तत्कालीन मुख्य विकास अधिकारी शैलेश बगोली की अध्यक्षता में बद्रीनाथ में प्रसाद को पॉलिथीन की बजाय रिंगाल की सुंदर, आकर्षक टोकरियों में दिये जाने का प्रयास शुरू हुआ. आगाज़ फैडरेशन ने उत्तराखण्ड बांस एवं रेशा विकास परिषद के डिजाइनरों के साथ मिलकर प्रथम चरण में  किरूली-चातोली, पाखी गरूड़ गंगा, बेडूमाथल, उर्गम, मल्ला टंगणी, पाताल गंगा, कुजौं मैकोट, कलसीर, वल्ली, बैरासकुण्ड, कूनीगाड़ और गाँधीग्राम बछेर के 200 से अधिक रिंगाल हस्तशिल्पियों को विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत नये नये प्रकार के रिंगाल हस्तशिल्प उत्पाद जिनमें कच्चे माल की कम खपत हो तैयार करने का प्रशिक्षण दिया. इसी दौरान द्वितीय चरण में लगभग 40 रिंगाल हस्तशिल्पियों को स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना, उत्तराखण्ड बांस एवं रेशा विकास परिषद की सर रतन टाटा ट्रस्ट के माध्यम से संचालित परियोजनाओं के अंतर्गत प्रसाद टोकरी की 16 से अधिक अभिनव डिजाइन बनाने और उनके वृहद उत्पादन पर जोर दिया गया.

प्रसाद टोकरी के नाम वसुधारा, नीलकंठ, अलकनन्दा, नंदा देवी, सुदर्शन, सरस्वती, वैतरणी आदि रखा गया. टोकरियों का मूल्य उत्पादन लागत, फिनिशिंग, वार्निश, पैकिंग और बद्रीनाथ तक ढुलान व्यय के आधार पर सहकारिता ने हस्तशिल्पियों की सलाह से तय किये. बद्रीनाथ व्यापार संघ के प्रसाद विक्रेता संघ के तत्कालीन अध्यक्ष श्री भुवन डिमरी ने टोकरियों को पॉलिथीन की थैलियों के स्थान पर स्थान उपलब्ध कराने का प्रयास किया. प्रचार-प्रसार में तत्कालीन मंदिर समिति के अध्यक्ष अनुसूया प्रसाद भट्ट ने भी मदद की. लेकिन प्रशासनिक स्तर पर  प्रसाद टोकरी कार्यक्रम को 3 वर्षों तक तत्कालीन मुख्य विकास अधिकारी आई0ए0एस0 श्री शैलेश बगोली ने सबसे अधिक प्रोत्साहित किया.

विभिन्न प्रकार की रिंगाल प्रजातियों से बनने वाले रिंगाल उत्पादों का वास्तविक मूल्य

क्र.सं. उत्पाद का नाम बिक्री मूल्य रुपये
1. लैम्प शेड— फुटबॉल, नैचुरल कलर, वार्निश किया हुआ 180—250/-
2. रोट/चपाती बास्केट ढक्कन वाली 120—150/-
3. रोट/चपाती बास्केट बिना ढक्कन 80—100/-
4. पैन स्टैंड 60—75/-
5. सुप्पा छोटा 120—150/-
6. फ्रूट बास्केट 120—150/-
7. फूलदान 100—120/-

आगे जारी है ……………

(लेखक पहाड़ के सरोकारों से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार एवं पीपलकोटी में ‘आगाज’ संस्था से संबंद्ध हैं)
‘आगाज’ के बारे में जानने के लिए click करें https://www.biotourismuk.org/

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