‘गिदारी आमा’ के विवाह गीत

  • डॉ. मोहन चंद तिवारी

“पिछले लेखों में शम्भूदत्त सती जी के ‘ओ इजा’ उपन्यास के सम्बन्ध में जो चर्चा चल रही है,उसी सन्दर्भ में यह महत्त्वपूर्ण है कि इस रचना का एक खास प्रयोजन पाठकों को पहाड़ की भाषा सम्पदा और वहां प्रचलित लोक संस्कृति के विविध पक्षों तीज-त्योहार, मेले-उत्सव खान-पान आदि से अवगत कराना भी रहा है.जैसा कि लेखक ने अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है-

“पाठकों के समक्ष यह उपन्यास प्रस्तुत करते हुए मैं इस बात का निवेदन करना चाहता हूँ कि दिनोंदिन गांवों का शहरीकरण होने के कारण उसकी बोली, खान-पान, रहन-सहन, लोक-परम्पराएं और लोक भाषाएं विलुप्त होती जा रही हैं.इसलिए यहां मैंने कुमाऊंनी बोली (जो लगभग विलुप्त होने के कगार पर है) को अपनी बात कहने का माध्यम बनाकर प्रस्तुत उपन्यास में कुमाऊंनी हिंदी का प्रयोग किया है.”

इस उपन्यास में ‘झंडीधार’ गांव की ‘आमा’ का एक किरदार कुछ ऐसा ही है,जो गांव में गिदारी आमा के रूप में मशहूर है.विवाह, ब्रतबन्ध के अवसर पर गीत गाने का काम वही करती है और गांव की औरतों और बहु बेटियों को विवाह, ब्रतबन्ध आदि के गीत सिखाने में भी रुचि लेती है.

उपन्यास के घटनाक्रम के अनुसार मधुली की इजा के इकलौते बेटे चनिया की शादी जेठ महीने के बीस पैट को ठहरी है. चनिया भारतीय सेना में हाल में ही भर्ती हुआ है.उसने चिट्ठी में लिखा है कि वह शादी से बीस बाइस दिन पहले घर पहुच जाएगा. मगर अचानक ही पाकिस्तान से लड़ाई छिड़ चुकी है. चनिया की बटालियन जम्मू चली गई है. इसलिए चनिया की कोई चिट्ठी तो आई नहीं मगर गांव के दूसरे फौजी धरम सिंह के मार्फ़त खबर आ गई कि लड़ाई की वजह से चनिया को ज्यादा छुट्टियां नहीं मिलेंगी और शादी से दो तीन दिन पहले ही वह घर पहुंच पाएगा.

अब जेठ के महीने की पंद्रह पैट आ गई है. बीस पैट को बारात को जाना है. मधुली की इजा के घर पर चनिया के विवाह की तैयारियां जोर शोर से चल रही हैं.मेहमान लोग पहुचने लगे हैं.तल्ली गांव से ‘गिदारी आमा’ भी मधुली की इजा के घर पहुंच चुकी है.आमा जहां शादी होनी होती है वहां दो दिन पहले से ही डेरा डाल देती है.तभी वहां किसी ने कहा –

“आमा आज से तो अब काज शुरू हो ही गया ठहरा. अब तुम भी आ गयी हो.आमा चार आँखर शगुन के भी कह देती तो अच्छा ही होता. आमा कहती है, “अरे फिर एक जना ह्यो मिलाने (स्वर में स्वर मिलाने ) के लिए और भी तो चाहिए.” तब मधुली की इजा उससे कहती ,”क्यों हमारी धरम सिंह ज्यू की घरवाली तो शगुन आँखर भी कहने वाली ठहरी और आजकल के बनणे भी. बैठ भुलु बैठ,आमा के साथ बैठ जा.” धरम सिंह की घरवाली आमा के बगल में बैठ गयी.और शुरू हो गया शगुनाखर गीत –

शगुनाखर

“शकुना दे शकुना दे, सब सिद्धि,
काज ए अति नीको,शकुना बोल दईणा,
बाज छन शंख शब्द,दैणी तीर भरीयो कलेस,
अति नीको सो रंगीली पाटली
आँजलि कमल को फूल,
सोही फूल, मोलावन्त, गणेश,
रामीचन्द, लछीमन, लवकुश,
जीवना जनम आद्या यमरो ए,
सोही पाटो पैरी रैंना, सिद्धि बुद्धि,सीता देही,
बहूराणी आयुवन्ती पुत्रवन्ती होए.”

गीत खत्म होते ही आमा धरमसिंह की घरवाली को डांटते हुए कहती, “दै तेरे लिए भी बित्थ पड़ जाए,तेरी तो आवाज ही नहीं निकल रही है.” धरमसिंह की घरवाली कहती है, “दै आमा तुम भी कहां की बात कर रही हो,हम तुम्हारे जैसे न गा सकने वाले ठहरे और न वैसा गला ठहरा.” आमा कहती, “मेरी सत्तर साल की उमर हो गयी है, तू तो कल की ठहरी, तेरी खोरि में तो बिल्कुल ही बज्जर पड़ गया है.” आमा वहां सब को डांटते हुए कहती,”अरे तुम क्या सोच रहे हो, मैं कब तक बैठी रहूंगी, आज मरी तो मरी, कल मरी तो मरी,अब तुम नयी दुल्हैणियों में से कोई सीखो.जहां से नहीं आएगा तो मैं तुम्हें बता दूंगी, अब तुम तो कोई ध्यान देती हो ही नहीं.”

गांव की सारी बहु बेटियां आमा की तरह गिदारी बनना चाहती थी. आमा से सारे गीत सुनने की फरमाइश करने लगी. इस पर आमा बोली, “अब इतने गीत ठहरे क्या क्या तुम्हें सुनाऊं. परसों शादी के दिन तुम शुरू से बैठ जाना मैं तुम्हें बताती जाऊंगी कि ये गीत गणेशपूजा का है,ये पुण्यवाचन का है, ये कलश स्थापना का है,ये नवग्रहों की पूजा का है,ये संजवाली का है. परसों ये धरम की मुये (घरवाली) को बताया तो सही संजवायी का गीत”.

तभी धरमसिंह की घरवाली कहती, “आमा मरेंगे तुम्हारे दुश्मन.अभी तो आमा तुम चनिया के बेटे की शादी देख कर जाओगी.और आमा, सीखने का हमको तुम्हारे जैसा शउर कहां से आ सकता है.हम तो खाली आमा तुम्हारे पीछे लगे ठहरे.”

तब आमा ने मातृपूजा के समय देवी देवताओं को न्यौतने का गीत शुरू कर दिया-

मातृपूजा और देवताओं को न्योतने का गीत

“कैरे लोक उबजनीं, नारायण पूत्र,
कैरे कोखी उबजनीं, रामीचन्द पुत्र ए,
चली तुमी माई मात्र, इनूं घरी आज ए,
इनूं घरी धौली हरा,काज सोहे ए,
कौशल्या राणी कोखी,उबजनीं लछीमन पुत्र ए,
माथ लोक उबजनीं,माई मात्र देव ए”

आमा इस प्रकार सारे देवताओं का नाम लेकर उन्हें न्योंतने का गीत गाती रही.

गांव की सारी बहु बेटियां आमा की तरह गिदारी बनना चाहती थी. आमा से सारे गीत सुनने की फरमाइश करने लगी. इस पर आमा बोली, “अब इतने गीत ठहरे क्या क्या तुम्हें सुनाऊं. परसों शादी के दिन तुम शुरू से बैठ जाना मैं तुम्हें बताती जाऊंगी कि ये गीत गणेशपूजा का है,ये पुण्यवाचन का है, ये कलश स्थापना का है,ये नवग्रहों की पूजा का है,ये संजवाली का है. परसों ये धरम की मुये (घरवाली) को बताया तो सही संजवायी का गीत”. और अब आमा संजवायी का गीत सुनाने लगी-

संजवायी का गीत

“साँज पड़ी संजवाली पाया चली ऐन,
आसपास मोत्यूं हार,बीच चलिन गंगा,
लछिमी पुछना छन स्वामी, आपण नाराइण,
किनु घरी आनन्द बधाई,
किन घरी सुलछिणी राणि ए,
दियड़ा तैन जाग हो सैगली रात्रि,
जाग हो दियड़ा इनूं घरी रात्रि ए,
रामिचन्द घर, लछिमन घर,
सांज को दियो जगायो,
सुहागिलि सीता देहि,बहूराणी जनम ए वान्ति,
पुत्र कल्याणी ए, इन बहुअन की शोभुण कोख ए,
दियड़ा तैन जाग हो, सगली रात्रि ए,
अगर चंदन को दियड़ा,कापुर सारी बाति,
जाग हो दियड़ा इनूं घरी रात्रि ए,
जाग हो दियड़ा सुलछीणि रात्रि ए.”

अब आमा वहां औरतों को समझाने लगी संजवायी के गीत को इसी तरह आगे बढ़ाते रहो “बस ऐसे ही पहले देवताओं का नाम, फिर अपने घर वालों  का और इष्टमित्रों का नाम लेते जाओ.”

आमा उस समय धरम सिंह की घरवाली को गीत गाने की जो ट्रेनिंग दे रही थी, वहां बैठी सारी बहु बेटियां और औरतें टकटकी लगाए देख रही थीं कि आमा को ये सब गीत कैसे याद रह जाते हैं. उधर वहां बैठी औरतों को आमा सारे पहाड़ के गीतों का ब्यौरा देती जा रही थी कि किस समय क्या कर्मकांड होते हैं, और उस समय कौन सा गीत गाया जाता है. बच्चे के जन्म से लेकर विवाह तक के गीतों की एक लंबी फेहरिस्त पेश करते हुए आमा बोली –

“भौ होते समय भी गीत गाया जाता है,छठी का गीत ठहरा, पासिणि का गीत ठहरा, नामकरण का गीत, जनमबार का गीत, स्नान के गीत, सुवाल पथाई के गीत, रात के गीत, बारात चलते समय के गीत, बारात आते समय के गीत, गोठ बैठाने के गीत, कन्यादान के गीत, रत्याली के गीत, सुबह के गीत, कन्या बिदा करने के गीत, बारात लौटते समय के गीत, नौल सेऊंण या भेटण के गीत, बहु बेटियों को बिदा करने के गीत, वस्त्र भूषण देने के गीत, पास पड़ोस में न्यौता देने के गीत, कणिकी मोलाई गीत, तै लगूंण या चढूंण के गीत, इजा के दूध के मोल के गीत, छोली गीत, गड़ुवे की धार के गीत, अंगूठा पकड़ने का गीत, अन्तरपट उडूण को गीत, दहेज देते बखत का गीत, चेली समझूंण का गीत, सज्जादान गीत, रात ब्याण का गीत, आशीर्वचन का गीत.” (‘ओ इजा’,पृ.111)

लेकिन वहां बैठी औरतों को इन सब में रुचि नहीं थी वे तो आमा के मुख से कोई और गीत सुनना चाहती थी. तब आमा ने उन्हें कहा कि “ये गीत तो परसों सुवाल पथाई के दिन कहूंगी पर तुम्हें बता देती हूं कि इसे कैसे गाना है”-

सुवाल पथाई का गीत

“सुवा रे सुवा बनखंडी सुवा,
हरिया तेरो गात, पिंगल तेरा ठून,
लला तेरी आँखी, नजर तेरी बांकी,
दे सुवा नगरी न्यूत,
न नौं जाणन्यू ,न गौं पछान्यू,
कै घर कै नारी न्यूतूं,?
अयोध्या गौं छ सुभद्रा देई नौं छ,
वीका पुरीख अर्जुन नौं छ.”

आमा बोली बस ऐसे ही आगे को एक-एक करके पहले भगवानों का फिर पहले देवताओं को, फिर अपने रिश्तेदारों को न्यौतना ठहरा. इतने में आमा कुछ भावुक  सी होने लगी और कहने लगी,”पै ये तो सब भगवान के घर से चलाया ठहरा.अब देखो च्येली का कन्यादान करते च्येली खुद ही कहती है”-

कन्यादान का गीत

“हरियाली ठाड़ो मेरा द्वार,
इजा मेरी पैलागी,
छोड़ो छोड़ो इजा मेरी आँचली
काखी मेरी आँचली,
बबज्यू लै दियो कन्यादान,
ककज्यू लै दियो सत बोल,
इजा मेरी पैलागी.”

आमा इस प्रकार कन्यादान के गीत को गाकर मानो भावुक सी हो गई थी और इस गीत के बारे में आगे बताते हुए बोली- “बस ऐसे ही सबका नाम आने वाला ठहरा-इजा, बाज्यू, कका, काखी, दादी, बोजी, दीदी, भिना- सब रिश्तेदारों का नाम आने वाला हुआ- छोड़ो छोड़ो आँचली मेरी फलड़ले दियो दान. इजा और क्या हुआ चेलियों का, मां-बाप का तो इतना ही ठहरा. शादी के दिन से नातक-सूतक तक खत्म हो जाने वाला हुआ.”

आमा इस प्रकार कन्यादान के गीत को गाकर मानो भावुक सी हो गई थी और इस गीत के बारे में आगे बताते हुए बोली- “बस ऐसे ही सबका नाम आने वाला ठहरा-इजा, बाज्यू, कका, काखी, दादी, बोजी, दीदी, भिना- सब रिश्तेदारों का नाम आने वाला हुआ- छोड़ो छोड़ो आँचली मेरी फलड़ले दियो दान. इजा और क्या हुआ चेलियों का, मां-बाप का तो इतना ही ठहरा. शादी के दिन से नातक-सूतक तक खत्म हो जाने वाला हुआ.” ऐसा कहते कहते आमा की आंखों की कोर गीली हो गई गयी. शायद अपनी बेटी की बिदाई का दृश्य आमा की आंखों के आगे घूमने लगा था,क्योंकि आमा का भी इस दुनिया में एक बेटी के सिवा और कोई है नहीं.

सन्दर्भ:
‘ओ इजा’ उपन्यास,
लेखक: शम्भूदत्त सती
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन,
दिल्ली, 2008, पृ.104-108.
सभी सांकेतिक चित्र : गूगल से साभार

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज से एसोसिएट प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हैं. एवं विभिन्न पुरस्कार व सम्मानों से सम्मानित हैं. जिनमें 1994 में ‘संस्कृत शिक्षक पुरस्कार’, 1986 में ‘विद्या रत्न सम्मान’ और 1989 में उपराष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘आचार्यरत्न देशभूषण सम्मान’ से अलंकृत. साथ ही विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं और देश के तमाम पत्र—पत्रिकाओं में दर्जनों लेख प्रकाशित.)

Share this:

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *